Wednesday, June 3, 2015

यादों के झरोखे में रीगल_Regal Cinema of Delhi


नयी दिल्ली कनॉट प्लेस में अधिकतर थिएटर 30 के दशक में बनें, जिनमें से अनेक जैसे रीगल, प्लाज़ा ओडियन और रिवोली प्लाज़ा आज भी लोकप्रिय व्यावसायिक सिनेमाघर के रूप में मौजूद हैं। बहराल, पुरानी दिल्ली में तो पहले से ही अनेक सिनेमाघर थे, पर रीगल नई दिल्ली का पहला सिनेमाघर था जो कि वर्ष 1931 में बना। रीगल थियेटर, कनॉट प्लेस में बनी सबसे पहली इमारत थी। जब यह सिनेमाघर खोला गया था तब इस क्षेत्र का व्यावसायिक रूप से इतना विकास नहीं हुआ था और रीगल को खुलते ही तत्काल सफलता नहीं मिली थी।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह “सेलिब्रेटिंग दिल्ली” पुस्तक में बताते है कि उनके पिता (सरदार शोभा सिंह) नए शहर में एक सिनेमा-रीगल का निर्माण करने वाले पहले व्यक्ति थे। शुरू में उन्होंने खुद सिनेमाघर को चलाने की कोशिश की। मुझे याद है कि कई बार सिनेमाघर में केवल दस दर्शक होते थे और उन्हें दर्शकों को टिकट के उनके पैसे वापस लेने के लिए गुहार करनी पड़ती थी, जिससे उन्हें फिल्म को दिखाने पर पैसा बर्बाद नहीं करना पड़े। उस दौर में, पुरानी दिल्ली वालों खासकर चव्वनीवालों ने इसे पसंद नहीं किया क्योंकि वे खुले में बनी नई दिल्ली को एक भूतों की बस्ती मानते थे।

रीगल का डिजाइन नई दिल्ली के वास्तुकार एडविन लुटियंस के दल के साथी वॉल्टर स्काइज़ जॉर्ज ने तैयार किया था। रीगल की इमारत मॉल के प्रारूप की तरह दिखती है। मूल रूप से विक्टोरियन वास्तुकला से प्रेरित रीगल सिनेमाघर में मुगल प्रभाव, पाइट्रा द्यूरा सजावट में नज़र आता है। हैरानी की बात यह है कि यहाँ किया गया फूलों का रूपांकन, सफदरजंग मकबरे के समान है। रीगल एक ऐसा सिनेमाघर था जिसमें नाटक और फिल्में दोनों दिखाए जाते थे। इसका स्थापत्य-बाक्स, ग्रीन रूम, विंग्स आदि इसके इतिहास का पता देते हैं।

इस इमारत में एक ही छत के नीचे रीगल सिनेमा हॉल, दुकानें, और रेस्तरां मौजूद थे। रीगल का स्वरूप रंगमंच और सिनेमा को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था और इसमें स्टेंडर्ड नामक एक रेस्तरां भी था जो बाद में गेलॉर्ड बन गया। पहले रीगल में फिल्म देखना एक सांस्कृतिक कर्म माना जाता था। उस समय फिल्म देखने का मतलब तक के डेविकोस और आज के स्टैंडर्ड रेस्तरां तथा गेलार्ड में भोजन करना भी होता था।


सरदार खुशवंत सिंह के शब्दों में, एक बार प्रसिद्व नर्तक उदय शंकर ने उनसे (सरदार शोभा सिंह) संपर्क किया था। मशहूर नर्तक उदय शंकर अपने यूरोप के दौरे से लौटे थे और उनके नृत्य कार्यक्रमों की वहां के अखबारों में काफी तारीफ हुई थी। वे कुछ रातों के लिए रीगल सिनेमा को अपने नृत्य कार्यक्रमों के लिए किराए पर लेना चाहते थे। मेरे पिता ने उनसे पूछा किस लिए? उनका कहना था कि मैं नृत्य करना चाहता हूँ। मेरे पिता के विचार में पुरुषों के नृत्य का विचार केवल हिजड़ों के घुम-घुमकर हाथ से ताली बजाने तक ही सीमित था। उदय शंकर ने किराए के पैसे का अग्रिम में भुगतान करने के कारण मेरे पिता सहमत हो गए। वे उत्सुकतावश वहां यह देखने चले गए कि इस आदमी के नृत्य को देखने के लिए कौन आता है। उन्होंने देखा कि सिनेमाघर में जाने के लिए डिनर जैकेट पहने अंग्रेज पुरूषों और महिलाओं की कारों की कतार लगी हुई है। यह देखकर वे भी नृत्य देखने के लिए चले गए और उन्हें एहसास हुआ कि भारतीय नृत्य का मतलब हिजड़ों के अश्लील नाच से कहीं अधिक था। उन्होंने उदय शंकर और उनकी टोली को अपने कुछ अंग्रेज मित्रों से मिलने के लिए अपने घर पर आमंत्रित किया।


रीगल के स्थापना वर्ष में ही जोसफ डेविड के पारसी नाटक पर आधारित पहली भारतीय बोलती (सवाक) फिल्म “आलम आरा” (दुनिया की रोशनी) का निर्माण मूक फ़िल्मों के दौर की समाप्ति का एलान था। इस फिल्म के मुख्य कलाकार मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वीराज कपूर थे। सन् 1938 में रीगल को एक कंपनी के लिए लीज पर दिया गया था, जिसमें राजेश्वर दयाल भी एक निदेशक थे। उस दौर में उन्होंने 10,000 रुपए का निवेश किया था पर उसके बाद भी कंपनी का दिवाला पिट गया।

गौरतलब है कि पहले रीगल में रूसी बैले, उर्दू नाटक और मूक फिल्में दिखाई जाती थीं। पृथ्वीराज कपूर सरीखे अभिनेता ने कनॉट प्लेस के कई थिएटरों में मंचित अनेक नाटकों में अभिनय किया था। आज़ादी से पूर्व उस दौर में, यहां समाज के उच्च वर्ग का तबका, जिनमें अंग्रेज़ अधिकारी और भारतीय रजवाड़ों के परिवार हुआ करते थे, नाट्य प्रस्तुति देखने आया करता था।

देश को आजादी मिलने तक रीगल में नाटकों होते थे और अनेक अंग्रेज नाटक कंपनियों ने शेक्सपियर और दूसरे क्लासिक अंग्रेजी नाट्य प्रस्तुतियों का मंचन किया। वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के अतिथि के रूप में नाटककार नोएल पियर्स कोवर्ड ने यहां प्रदर्शन किया। उल्लेखनीय है कि दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश खुफिया सेवा के लिए काम करने वाले पियर्स ने अपने दोस्त लॉर्ड लुईस माउंटबेटन पर चरित्र आधारित एक नाटक में नौसेना के एक कप्तान की भूमिका निभाई थी।

राबर्ट ग्रांट के शब्दों में, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सेना अकसर अपने सैन्य कार्यों के लिए सिनेमाघर लेने का अनुरोध करती थी, जिस कारण पूरी इमारत आम जनता की जद से दूर हो जाती थी। फरवरी 1949 में जवाहर लाल नेहरू अंग्रेज राजदूत के एक अतिथि के रूप में नई दिल्ली के रीगल सिनेमा में हेमलेट के एक नाट्य प्रदर्शन को देखने के लिए गए और बाद में उन्हें पता चला कि थिएटर के सामने सड़क को तीन घंटे के लिए बंद कर दिया गया था।

सन् 1952 से जब दिल्ली में बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम आरंभ हुआ, तब इसका एक समारोह रीगल सिनेमा के सामने मैदान में और दूसरा लालकिले में हुआ था। फिल्म व्यापार से जुड़े लोग बताते हैं कि पांचवे दशक के आसपास कनाट प्लेस में सात बजे के बाद सब कुछ सूना हो जाता था। लोग पुराने शहर से तांगे पर आकर रीगल में फिल्म देखा करते थे।

काफी समय के बाद यहां नया शो और मैटिनी शो में फिल्में भी दिखाई जाने लगीं। यह वह समय था जब नया शो शुरू होने से पहले हवन किए जाते थे। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वर्ष 1956 में रीगल में “चलो दिल्ली” फिल्म देखी। इसी वर्ष, सोवियत नेता ख्रुशचेव और बुल्गानिन भारत की यात्रा पर आए थे। उनके साथ एक सांस्कृतिक दल भी था, जिसने उस समय के दिल्ली के सबसे बड़े थिएटर रीगल सिनेमा में प्रदर्शन किया था। वर्ष 1960 तक नई दिल्ली में सिनेमा मनोरंजन के प्रमुख साधनों में एक हुआ करता था।

आजादी के बाद, रीगल में लोकप्रिय हिंदी फिल्में दिखाई जाती थीं। हिंदी सिनेमा जगत के पहले परिवार, कपूर खानदान का रीगल से गहरा नाता रहा। हिंदी फिल्मों के पहले शोमैन राजकपूर की फिल्मों के रेड-कार्पेट प्रीमियर एक “असाधारण समारोह” हुआ करते थे। फिल्म प्रीमियर का पैमाना रेड-कार्पेट स्वागत और शानदार जुलूस से तय होता था। राजकपूर की अनेक फिल्में जैसे ‘बाबी’, ‘जागते रहो’, ‘संगम’ और ‘बूट पालिश’ रीगल में ही रिलीज़ हुईं।
यहाँ उनकी आखिरी फिल्म ‘सत्यम शिव सुंदरम’ थी । यहाँ तक कि रीगल को बेहद पसंद करने वाले वी. शांताराम कि ‘दहेज’ और ‘दो आंखें बारह हाथ’ भी यहाँ रिलीज़ हुई तो गुरुदत्त की ‘कागज के फूल’ और महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ जैसी कालजयी हिंदी फिल्में भी।


70 के दशक से पहले अधिक फिल्मों के रिलीज़ न होने के कारण आज के समय के उलट जब हर सप्ताह सिनेमाघरों में फिल्में बदलती हैं, लंबे समय तक सिनेमाघरों में एक ही फिल्म लगी रहती थी। तब एक ही फिल्म के दिन में चार शो होते थे: दोपहर का शो (12.30 बजे), मैटिनी शो (3.30 बजे), शाम का शो (6.30 बजे) और रात का शो (9.30 बजे). उस समय सिनेमा देखने के टिकिट का दाम, जो सीट पर निर्भर था, 12 आने से लेकर 1.25 रूपए तक होता था।
वर्ष 2000 तक रीगल को छोड़कर कनॉट प्लेस के सभी सिनेमाघर मल्टीप्लेक्स के मालिकों ने किराए के पट्टे पर ले लिए। ऐसे में, केवल रीगल ही अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में सफल रहा है।









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