सबके हाथों में गीली धोतियां, तौलिए हैं, गगरियों और लोटों में गंगाजल भरा है। मैं इन्हें फिर कभी नहीं देखूंगा। कुछ दिनों में वे सब हिंदुस्तान के सुदूर कोनों में खो जाएंगे, लेकिन एक दिन हम फिर मिलेंगे, मृत्यु की घड़ी में आज का गंगाजल, उसकी कुछ बूंदें, उनके चेहरों पर छिड़की जाएगी! ऊन के गोले की तरह खुलते सूरज से लेकर मेले में फहरती पताकाओं, शिविरों, बुझी आवाजो में गाते कीर्तनियों, ऋगवेद की ऋचाओं के शुद्ध उच्चारण में पगी सुर लहरियों, नंगे निरंजनी साधुओं, खुली धूप में पसरे हिप्पियों, युद्ध की छोटी-मोटी छावनियों से तने तंबुओं के इस वातावरण से बावस्ता निर्मल वर्मा ने यहां अपने भीतर के निर्माल्य का खुला परिचय दिया है। मैं वहीं बैठ जाना चाहता था, भीगी रेत पर। असंख्य पदचिह्नों के बीच अपनी भाग्यरेखा को बांधता हुआ। पर यह असंभव था। मेरे आगे-पीछे अंतहीन यात्रियों की कतार थी। शताब्दियों से चलती हुई, थकी, उद्भ्रांत, मलिन, फिर भी सतत प्रवाहमान। पता नहीं, वे कहां जा रहे हैं, किस दिशा में, किस दिशा को खोज रहे हैं, एक शती से दूसरी शती की सीढि़यां चढ़ते हुए? कहां है वह कुंभ घट जिसे देवताओं ने यहीं कहीं बालू के भीतर दबा कर रखा था? न जाने कैसा स्वाद होगा उस सत्य का, अमृत की कुछ तलछटी बूंदों का, जिसकी तलाश में यह लंबी यातना भरी धूलधूसरित यात्रा शुरु हुई हैं। हजारों वर्षो की लॉन्ग मार्च, तीर्थ अभियान, सूखे कंठ की अपार तृष्णा, जिसे इतिहासकार भारतीय संस्कृति कहते हैं!
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