चार कौए उर्फ चार हौए_भवानी प्रसाद मिश्र (Poem on Emergency)
चार कौए उर्फ चार हौए
बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।
कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।
हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।
-भवानी प्रसाद मिश्र
(वर्ष 1977 में इन्दिरा काँग्रेस के शासन में लगे "आपातकाल" की पृष्ठभूमि में लिखी एक प्रमुख कविता। उल्लेखनीय है कि भारतीय कम्यूनिस्ट आपातकाल के समर्थन कर रहे थे। )
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