(पुराना किला का एक दुर्लभ ऐतिहासिक चित्र)
देश की राजधानी दिल्ली का इतिहास, उसके शहरों की तरह ही रोचक है । इन शहरों के इतिहास का सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के निर्माण किया था। दिल्ली का सफर लालकोट, किला राय पिथौरा, सिरी, जहांपनाह, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीनपनाह, शाहजहांनाबाद से होकर नई दिल्ली तक जारी है। समय के इस सफर में दिल्ली बदली, बढ़ी और बढ़ती जा रही है और उसका रूतबा आज भी बरकरार है।
(पुराना किला खुदाई मिले मिले अवशेष का चित्र)
बाबर के बेटे और वारिस दूसरे मुगल बादशाह हुमायूँ के राजधानी के आगरा से दिल्ली लाए जाने का कोई एक निश्चित कारण इतिहास की किताबों में नहीं मिलता। हुमायूँ ने दिल्ली में अपने नए शहर को बसाने के लिए पुराने शहर इन्द्रप्रस्थ का चुनाव किया था और उस शहर का नाम रखा दीनपनाह। यह इमारत हुमायूँ और शेरशाह के छोटे से मगर उथल-पुथल भरे शासन काल की गवाह है। हुमायूँ के शहर का निर्माण 1530-1540 के बीच किया गया।
(आज के पुराना किला का दरवाजा )
यह शहर मूल रूप से आज के हुमायूँ के मकबरे से लेकर बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित प्रेस एरिया के बीच फैला हुआ माना जाता है। आधुनिक दिल्ली के विकास की भेंट चढ़ने के कारण अब उसके अधिक अवशेष नहीं दिखाई देते। हुमायूँ के दीनपनाह की उत्तरी सीमा मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के सामने बने खूनी दरवाजे तक मानी जाती है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि खूनी दरवाजा कहा जाने वाला गेट हुमायूँ की दिल्ली का उत्तरी दरवाजा था। मूलतः इस दरवाजे को काबुली दरवाजा कहा जाता था। इस दरवाजे को हुमायूँ और शेरशाह के शहरों की उत्तरी सीमा माना जाता है।
(पुराना किला का बुर्ज और झील )
उस नगर में एक किला (पुराना किला) था जहां शाही परिवार रहता था और यह शहर की जनता का रिहायशी इलाका और नगर भी था। दीनपनाह को फिरोजशाह कोटला और पुराने किला के बीच बनाया गया था। जबकि अंग्रेज इतिहासकार जनरल अलेक्जेंडर कनिंघम की मानें तो हुमायूँ के नया शहर बनाने के पहले यहां पर एक अपेक्षाकृत छोटा लेकिन आज के पुराने किले से कहीं पुराना एक किला था। शायद वही इंद्रप्रस्थ का अवशेष हो। कनिंघम ने लिखा है कि हुमायूँ ने तो उस पुराने किले की मरम्मत कराई और उसे ही दीनपनाह का नाम दे दिया। उल्लेखनीय है कि पुराने किले का स्थान दिल्ली का मूल नगर इंद्रप्रस्थ माना जाता है।
(इंडियन आर्कियोलाजी रिव्यू" के अंक का आवरण चित्र)
1954-55 के "इंडियन आर्कियोलाजी रिव्यू" अंक के मुताबिक, इस जगह की प्राचीनता का पता लगाने और यह सुनिश्चित करने के लिए नॉर्थ वेस्ट सर्किल के बी.बी. लाल के नेतृत्व में एक प्रायोगिक खुदाई की गई कि क्या यह वही जगह है कि जिसे प्राचीन काल में इंद्रप्रस्थ कहा जाता था? खुदाई से पता चला कि लगभग 1,000 ईसा पूर्व के काल में यहां इंसानी रिहायश थी और ये लोग विशिष्ट प्रकार के बर्तनों और सलेटी रंग की चीजों का इस्तेमाल किया करते थे। यहाँ खुदाई में मिले बर्तनों के अवशेषों के आधार पर पुरातत्वविदों की मान्यता है कि यही स्थल पांडवों की राजधानी होगा। उल्लेखनीय है कि अन्य महाभारतकालीन स्थानों पर भी खुदाई में ऐसे ही बर्तनों के अवशेष मिले हैं।महाभारत की घटनाएँ और प्राचीन परंपराएं यहां पांडवों की राजधानी होने की बात की ओर संकेत करती हैं।
(राजा रवि वर्मा की महाभारत पर प्रसिद्ध सिरीज़ का चित्र)
एक और प्रसंग है, जिसके अनुसार पांडवों ने कौरवों से पांच गांव मांगे थे। ये वे गाँव थे जिनके नामों के अंत में "पत" आता है। जो संस्कृत के "प्रस्थ" का हिंदी साम्य है। ये पत वाले गांव हैं इंदरपत, बागपत, तिलपत, सोनीपत और पानीपत हैं। यह परम्परा महाभारत पर आधारित है। जिन स्थानों के नाम दिए गए हैं। उनमें ओखला नहर के पूर्वी किनारे पर दिल्ली के दक्षिण में लगभग २२ किलोमीटर दूरी पर तिलपत गांव स्थित है। इन सभी स्थलों से महाभारत कालीन भूरे रंग के बर्तन मिले हैं। ऐसे ही बर्तन अन्य महाभारत कालीन स्थलों पर भी पाए गए हैं। एक तथ्य यह भी है कि इंद्रप्रस्थ के अपभ्रंश इंद्रपत के नाम का एक गांव वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक पुराना किला में स्थित था।
(ब्रिटिश दिल्ली बनने के अवसर पर जारी पुराना किला का डाक टिकिट )
अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली का निर्माण करने के दौरान अन्य गांवों के साथ उसे भी हटा दिया गया था। आज भले ही हम महाभारत को एक पुराण के रूप में देखते हैं लेकिन बौद्ध साहित्य “अंगुत्तर निकाय” में वर्णित महाजनपदों यथा अंग, अस्मक, अवन्ती, गांधार, मगध, छेदी आदि में से बहुतों का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है जो इस बात का संकेत है कि यह ग्रन्थ मात्र पौराणिक ही नहीं तथापि कुछ ऐतिहासिकता को भी संजोये हुए है।
(अंग्रेज़ वाइसरॉय लॉर्ड हार्डिंग का आदम चित्र)
1911 में दिल्ली की ब्रिटिश भारत की नई राजधानी बनाने की जद्दोजहद में मुब्तिला तत्कालीन अंग्रेज़ वाइसरॉय लॉर्ड हार्डिंग ने लिखा था, "दिल्ली अभी भी एक मायावी नाम है। हिंदुओं के दिलोदिमाग में यह नाम बहुत सारे ऐसे पवित्र प्रतीकों और किंवदंतियों से जुड़ा हुआ है जो इतिहास के प्रारंभ बिंदु से भी पुराने हैं। दिल्ली के मैदानों में ही पांडव राजकुमारों ने कौरवों के साथ एक भीषण युद्व लड़ा था जिससे अंततः महाभारत की रचना हुई। और यमुना तट पर ही पांडवों ने प्रसिद्ध यज्ञ किया था जिसमें उनकी ताजपोशी हुई थी। पुराना किला आज भी उसी जगह आबाद है जहां उन्होंने इस शहर की बुनियाद डाली थी और इसे इंद्रप्रस्थ का नाम दिया था। यह आधुनिक दिल्ली शहर के दक्षिणी दरवाजे से बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर पड़ता है। मुसलमानों के लिए भी यह अप्रतिम गर्व की बात होगी कि मुगलों की प्राचीन राजधानी को हमारे साम्राज्य में ऐसा गौरवपूर्ण स्थान मिले।"
(सैयद अहमद की 'आसारुस्सनादीद' का आवरण चित्र)
सैयद अहमद खान ने अपनी 'आसारुस्सनादीद' शीर्षक पुस्तक में जिन्हें इंदरपत के मशहूर मैदानों (जिसके एक हिस्से को अब इंद्रप्रस्थ एस्टेट के रूप में स्मारक का दर्जा दे दिया गया है) का नाम दिया था।
(18 वीं सदी की दिल्ली का विहंगम दृश्य)
इतिहासकारों के अनुसार पूर्व ऐतिहासिक काल में जिस स्थल पर इंद्रप्रस्थ बसा हुआ था, उसके ऊंचे टीले पर १६ वीं शताब्दी में पुराना किला बनाया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस किले की कई स्तरों पर खुदाई की है। खुदाई में प्राचीन भूरे रंग से चित्रित मिट्टी के विशिष्ट बर्तनों के अवशेष मिले हैं, जो महाभारत काल के हैं।
(19 वीं सदी का पुराना किला)
हिन्दू साहित्य के अनुसार, यह किला पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ के स्थल पर है। पांडवों ने ईसापूर्व
से 1400 वर्ष सबसे पहले दिल्ली को अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ के रूप में बसाया था। 1955 में पुराने किले के दक्षिण पूर्वी भाग में हुई पुरातात्त्विक खुदाई में कुछ मिट्टी के पात्रों के टुकड़े पाए गए जो कि महाभारतकालीन पुरा वस्तुओं से मेल खाते थे।
(आधुनिक समय में पुराना किला पुरातात्विक खनन)
इससे पुराने किला क्षेत्र के इन्द्रप्रस्थ होने की बात की पुष्टि हुई। पुराने किले की पूर्वी दीवार के पास 1969-1973 के काल में दोबारा खुदाई की गई। उस दौरान यहाँ पुरातात्विक खनन में मिले मृदभांड, टेराकोटा (पकी मिटटी की) की यक्ष यक्षियों की छोटी प्रतिमाएँ, लिपि वाली मुद्राएँ किले के संग्रहालय में रखी गई हैं। यहाँ महाभारत कालीन मानव बसावट के स्पष्ट प्रमाण तो प्राप्त नहीं हुए पर मौर्य काल (३०० वर्ष ईसापूर्व) से लेकर मुगलों के आरंभिक दौर तक इस क्षेत्र में लगातार मानवीय बसावट रहने का तथ्य प्रमाणित हुआ।
No comments:
Post a Comment