Saturday, March 31, 2018
chandni chowk in foriegn travellers literature_विदेशी यात्रियों की नज़र में चांदनी चौक
"पिक्चरस्कयू इंडिया" (1898) पुस्तक में डब्ल्यू.एस कैन लिखते हैं कि शहर के बाजारों में हाथीदांत और लकड़ी की कारीगरी का काम करने वाले अनेक कुशल कारीगर हैं, जिनका काम चांदनी चौक की दुकानों में बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। दिल्ली से बेहतर कोई जगह नहीं है, जहां देशी आभूषणों खरीदे जा सकते हैं। जिनको पहनकर गरीब हिंदू महिलाएं भी सुघड़ और सलीकेदार पहनावे वाली लगती है।
Saturday, March 24, 2018
Bernier visit to India_economic life of delhi_बर्नियर के बरअक्स दिल्ली का आर्थिक जीवन
प्रसिद् फ्रांसिसी यात्री बर्नियर मुगल साम्राज्य को अपनी 1656-69 की यात्रा के दौरान उस समय के शासकों द्वारा कलाओं और दस्तकारियों को दिए जा रहे संरक्षण की बात से बड़ा प्रभावित था। दिल्ली का उल्लेख करते हुए वह लिखता है ‘‘अनेक स्थानों पर बड़े हाल दिखाई देते हैं जिन्हें कार कन्याज या कारीगरों के कारखाने कहा जाता है। एक हाल में कशीदाकार अपने उस्ताद की देखरेख में काम पर व्यस्त है। दूसरे में आप सुनारों को देखते हैं और तीसरे में चित्रकार को। चौथे में वार्निश वाले सुनहरी पालिश का कार्य करते हैं और पांचवे में बढ़ई, टर्नर, दर्जी तथा जूते बनाने वाले, छठे में रेशम निर्माता, जरीदार कपड़े का काम करने वाले तथा बढ़िया मलमल बनाने वाले जिससे पगड़ियां बनती हैं और सुनहरें फूलों की पेटियां तथा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले ऐसे वस्त्र बनाए जाते हैं जो इतने नाजुक तथा कोमल होते हैं कि पहनने पर एक ही रात में फट जाएं’’।
दिल्ली बिटवीन टू एंपायर्स (1803-1931) पुस्तक में नारायणी गुप्ता लिखती है कि बर्नियर, जो कि 1638 में शहर के बनने के तुरंत बाद यहां रहा था, यहां की आर्थिक, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक जीवन में बादशाह, दरबार और उमरा के दबदबे को लेकर बेहद प्रभावित था। अभिजात वर्ग के संरक्षण में कारीगरों के लिए बहुत सारे कारखाने थे लेकिन बर्नियर ने औसत दर्जे के व्यक्तियों की अनुपस्थिति पर टिप्पणी की। उसने विशाल ऐश्वर्य और शाही खर्च तो देखा ही पर घिघौनेपन को भी महसूस किया।
शहर में कुछ पत्थर और कुछ ईंटों के महल थे, जो कि मिट्टी और फूस के घरों से घिरे हुए थे। महल (लाल किला) से निकलकर फैज बाजार और चांदनी चौक की ओर जाने वाले दो रास्तों, जिनके दोनों तरफ पेड़ लगे हुए थे, में बनी दो मंजिला इमारतों में अक्सर व्यापारी काम करने के साथ रहते भी थे। इसके इर्दगिर्द कटरा विकसित हुए, जिनका नाम सूबों के रहने वाले समूहों या वस्तुओं (कश्मीरी कटरा, कटरा नील) पर आधारित था।
जबकि मोहल्लों और कूचों का नामकरण वहां बिकने वाली वस्तुओं या वहां रहने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों (मोहल्ला इमली, कूचा नवाब वजीर) पर था। शहर सौंदर्य की दृष्टि से मनमोहक था। दिल्ली के एक बड़े शायर मीर ने प्यार से कहा था कि दिल्ली की गलियां केवल गलियां न होकर चित्रकार की एक कृति के समान है।
बर्नियर की यात्रा और 1803 में अंग्रेजों की जीत के बीच के दशकों में, शाहजहांनाबाद ने गृहयुद्ध और हमलों के कारण विनाश का सामना किया। शहर का मूल स्वरूप अपरिवर्तित रहा, पर कुछ इलाकों में थोड़ी-बहुत इमारतें गतिविधियां बनीं तो कुछ क्षेत्र धीरे-धीरे या अचानक निर्जन हो गए। मालीवाड़ा और चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा मराठा नियंत्रण की अवधि में बने, जो कि मराठी प्रत्यय के संकेत से पता चलता है।
यहां तक कि 1780 के दशक के बाद भी, शहर में साठ बाजार थे और खाद्यान्नों की प्रचुर मात्रा में आपूर्ति होती थी। शहर की दीवार, जो कि नादिर शाह या मराठों के हमलों के लिए काफी नहीं थी, ने यहां के निवासियों की मेवातियों और गुर्जरों के धावों से काफी हद तक रक्षा की।
जब शाही दबदबा घटा तो कोतवाल की ताकत उसी हिसाब से बढ़ी। कोतवाल चांदनी चैक के अपने दफ्तर से प्राधिकरण से इनकार हुआ, तो कोतवाल का अनुपात बढ़कर बढ़ गया। चांदनी चौक के कार्यालय से कोतवाल और उसके बारह थानेदार शहर पर नजर रखने, चुंगी एकत्र करने के साथ व्यापार और उद्योगों को नियंत्रित करने का काम करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कर जुटाने की सीमा और दर अलग-अलग होती थी जो कि इस बात पर निर्भर करती थी कि सत्ता पर मुगल काबिज है या मराठा। बाकी यह कर एकत्र करने वाले व्यक्तियों की क्षमता पर भी निर्भर करता था।
Saturday, March 10, 2018
Old Delhi Havelis of Kuchas_पुरानी दिल्ली के कूचों की हवेलियाँ
हवेली फारसी शब्द है। इसका अर्थ है पृथ्वी का एक टुकड़ा या खुला स्थान जो लश्कर यानी फौज के लिए निश्चित कर दिया गया हो। ऐसी जमीनों की आमदनी से सेना का खर्च चलाया जाता था। समय बीतने के साथ-साथ जमीन के किसी भी विस्तृत खंड को, जिस पर चारदीवारी खिंची हुई हो और कुछ कमरे या कोठरियां बनी हुई हों, लोग हवेली कहने लगे।
अपने नए अर्थ में हवेली एक आलीशान, लंबी-चौड़ी इमारत को कहते हैं जो एक मंजिल की और कई मंजिलों की हो सकती है। "दिल्ली जो एक शहर है" पुस्तक में महेश्वर दयाल लिखते हैं कि पुरानी दिल्ली में हवेली लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी, सभ्यता और रहन-सहन का एक अभिन्न अंग थी और इसके बिना उस समय के सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हौज काजी चौक के पास, बाजार सीताराम को काटती हुए एक तंग गली है जो कि कूचा पाती राम कहलाती है। जहां पर अनेक हवेलियां या कोठियां हैं। ये हवेलियां, दिल्ली नगर निगम की विरासत इमारतों के लिए सूचीबद्ध 800 भवनों में शामिल है।
शाहजहांनाबाद के सुनहले दौर में परकोटे वाले शहर का यह हिस्सा हवेलियों से आबाद था। जहां कुलीन व्यक्तियों के घरों से लेकर नाचने वालियों के कोठे थे। इन कोठों में शहर के अभिजात वर्ग के लिए नाच-गाने और संगीत की बैठकें आयोजित होती थीं।
अधिकतर लखौरी ईंट से बनी इन हवेलियों का खास पहचान सजावटी दरवाजे, भव्य तीखे घुमावदार प्रवेश द्वार, झरोखे और नक्काशीदार बलुआ पत्थर के खंबे थे। इन हवेलियों के सामने वाले भाग को सजाने में रंग और शैली के संदर्भ में विविधता साफ देखी जा सकती है। इन हवेलियों में से एक के मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर एक बेहद नक्काशीदार मोर बना हुआ है, जो शायद मुगल बादशाह शाहजहां के तख़्त-ए-ताऊस (मयूर सिंहासन) से प्रभावित प्रतीत होता है।
1915 में लाला कन्हैया लाल ने कूचा पाती राम में पहली हवेली, हवेली राम कुटिया बनाई थी। इस दो मंजिला हवेली के भूतल में बाहर की तरफ निकली दो खिड़कियां और सजावटी बलुआ पत्थर के खंबों वाले तोरण तथा फूलदार नक्काशी हैं। अब एक निजी स्वामित्व वाली इस हवेली के भीतर एक बड़ा आंगन है, जिसके चारों ओर कमरे बने हैं।
हवेली राम कुटिया के ठीक सामने बनी हवेली कूचा पाती राम, जिसके नाम पर ही गली है, का निर्माण बीसवीं सदी के आरंभ में हुआ था। इस दो-मंजिला हवेली के सामने वाले भाग एक सुंदर नक्काशीदार बलुआ पत्थर से बना है, जिसमें बाहर की ओर निकला बलुआ पत्थर का छज्जा, नक्काशीदार स्तंभ, जंगला और दरवाजे हैं। इसकी एक अन्य विशिष्टता दरवाजों पर बनी मानवीय आकृतियां हैं।
कूचा पाती राम में हवेली राम कुटिया के पास 505 नंबर में एक हवेली है। उपरोक्त प्रकार से ही बनी इस हवेली का सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता, हवेली की बाहरी तरफ और भूतल पर व्यापक ढंग से पत्थर पर की गई नक्काशी है। इसी तरह, कूचा पाती राम की 908 नंबर हवेली में, दो मंजिला घर, एक मीटर ऊंचे चबूतरे पर बना है, जिसमें एक नुकीले मेहराबदार दरवाजे से घुसना पड़ता है। लखौरी ईंट और बलुआ पत्थर से बनी इस हवेली में ऊपरी मंजिल पर ठेठ बलुआ पत्थर से ताके बनी है। इस हवेली का नक्शा भी दूसरी हवेलियों के समान है, जहां एक मुख्य आंगन के चारों ओर कमरे बने होते हैं।
उस दौर में जैन और हिंदू समुदायों ने यहां कई मंदिर भी बनाए थे। 1655-65 में कूचा पाती राम के इमली मोहल्ला में एक मंदिर बना था, जिसका नाम उसके निर्माता कन्नौजी राय के नाम पर ही रखा गया। अब इसके एक निजी निवास का हिस्सा होने के कारण केवल पूर्व अनुमति के साथ ही यहाँ भीतर प्रवेश किया जा सकता है।
Monday, March 5, 2018
Sunday, March 4, 2018
Saturday, March 3, 2018
Thursday, March 1, 2018
Holi in Delhi after independence_आजादी के बाद की, दिल्ली की होली
देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पहली बार राष्ट्रपति भवन में होली, दशहरा और दीवाली जैसे त्योहार सामूहिक रूप से मनाने की शुरुआत की. इस आयोजन में उनके मित्र, सेनाध्यक्ष और वहां के कर्मचारी आकर मिलते और अबीर-गुलाल का आदान-प्रदान होता. हिंदी नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर ने इस बात की पुष्टि करते हुए अपनी पुस्तक "जिन्होंने जीना जाना" में लिखा है कि होली पर राष्ट्रपति भवन में संगीत और रूपकों का आयोजन मुझे करना होता था. मुगल गार्डन में अतिथियों और औपचारिकता से घिरे राजेन्द्रबाबू को मैंने भोजपुरी में होली के लोक-संगीत पर झूमते देखा. वे लिखते हैं कि राष्ट्रपति भवन की दीवारें मानों गायब हो जाती, दिल्ली का वैभव भी, उत्तरदायित्व का भार भी. सुदूर भारत के जिले के देहात की हवा मस्तानों को लिए आती और ग्रामीण हृदयों का सम्राट अपनेपन को पाकर विभोर हो जाता.
केवल राष्ट्रपति ही नहीं बल्कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के यहां भी साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी जुटते थे. मशहूर रंगकर्मी जे.एन. कौशल ने अपनी आत्मपरक पुस्तक "दर्द आया दबे पांव" में लिखा है कि पंडित नेहरू के जन्मदिन और होली के अवसर पर प्रायः (पंचानन पाठक, नेहरू के बाल सखा और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में पदस्थ) प्रधानमंत्री निवास पर जाया करते थे.
“दिल्ली” नामक उपन्यास के लेखक खुशवंत सिंह की जुबानी, मैंने तो होली पहली बार दिल्ली आकर मॉडर्न स्कूल में ही मनाई. उस वक्त इस स्कूल को बनाने वाले लाला रघुवीर सिंह के घर पर होली खेली जाती थी. पहली बार जिस लड़की के साथ मैंने होली खेली, वह एक सरदारनी ही थी. नाम था कवल. यह भी मेरे साथ ही उसी स्कूल में पढ़ती थी. बाद में वह मेरी पत्नी बनी.
केवल रंग ही नहीं, वे उस दौर के मौसम के बारे में बताते है कि होली के दिनों में मौसम सबसे अधिक सुहावना होता है. परिंदे अपने घोंसले बनाने में जुटे होते हैं. फूलों पर बहार आई होती है. दिल्ली में इतने फूल कभी खिले ही नहीं दिखते, जितने होली के मौसम में. विशेष रूप से टेसू या पलाश अपने पूरे यौवन पर होता है. उल्लेखनीय है कि पलाश के फूलों का होली से विशेष नाता है.
दिल्ली की होली की बात हो, "मधुशाला" (सुन आयी आज मैं तो होली की भनक, होली की भनक ए जी होली की भनक) का जिक्र न हो यह कैसे संभव है. कवि हरिवंशरॉय बच्चन ने अपनी चार खंडों वाली आत्मकथा के अंतिम खंड “दशद्वार से सोपान तक” में लिखा है कि अमित (अमिताभ बच्चन के चोट लगने से घायल होने पर) के साथ पहली फरवरी को हम यहां (दिल्ली) आये थे, मार्च में होली पड़ी, बुन्देलखंड के कवि ईसुरी की फागों के अनुकरण में मैंने तेजी (बच्चन) के विनोदार्थ एक फाग लिखी-
तेजी, दूर हो गए बेटे.
चले बम्बई से हम अपना सब सामान समेटे.
प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह "काशी के नाम" पुस्तक में अपने भाई काशीनाथ सिंह को लिखे एक पत्र (26 फरवरी 1966) में राजधानी में प्रवासियों के दुख को प्रकट करते हुए लिखते हैं कि लगता है, होली में न आ सकूंगा. इसलिए इस साल की होली मेरे बगैर ही मनाओ और इजाजत दो कि कम से कम एक साल तो दिल्ली की होली देख सकूं. जब यहां का नमक खा रहा हूं तो यहां की होली में भी शरीक होना ही चाहिए.
लेखक-पत्रकार सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 70 के दशक की दिल्ली में होली पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि होली मनोरंजन का त्योहार है पर धीरे-धीरे वह इस भाव से कटता जा रहा है. यह मनोरंजन का लोकरंजन से कट जाने का ही चरम रूप है. राजधानी में दिन पर दिन रंग कम होता जा रहा है, पानी बढ़ता जा रहा है.
जबकि प्रसिद्ध समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी उसी समय के अपने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिनों के बारे में बताते है कि उन दिनों वहां हमने सामुदायिक होली को बनाए रखा. आर्थिक विकास संस्थान में सभी प्रांतो, सभी धर्मों के लोग थे. सबके घर से मिठाइयां आती थी. हमारे तब के निदेशक की पत्नी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका शीला धर पक्का गाना गाती थीं और लोग भी गाते थे.
प्रसिद्ध लेखक मनोहर श्याम जोशी ने 80 के दशक में दिल्ली की होली के बारे में लिखा है कि जब तक दिल्ली में कुमाउंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्वार्टरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं. जबकि रघुवीर सहाय ने पुस्तक “लेखक के चारों ओर” में लिखा है हर बड़े शहर में ऐसे लोग हैं-राजधानी (दिल्ली) में तो बहुत हैं. ये लोग न तो यह जानते हैं कि वे होली क्यों नहीं खेलना चाहते न यह समझते हैं कि उन्हें होली क्यों खेलनी चाहिए.
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