Saturday, March 31, 2018

chandni chowk in foriegn travellers literature_विदेशी यात्रियों की नज़र में चांदनी चौक


दैनिक जागरण ३१ मार्च २०१८


"फर्स्ट इमप्रेशन एंड स्टडीज फ्राॅम नेचर इन हिंदुस्तान" (1831-6) नामक दो खंडों की पुस्तक लिखने वाले थॉमस बेकन के शब्दों में, चांदनी चौक , जमीन से एक ऊंचाई पर बहने वाली छोटी-सी जलधारा से विभाजित है, जो कि सड़क के बीचों-बीच बहती है। इसमें नहर से साफ पानी आता है। पानी की यह महत्वपूर्ण धारा उपेक्षित होकर पूरी तरह नष्ट हो चुकी थी जबकि हमारी (अंग्रेज) सरकार ने अली मर्दन की इस बड़ी नहर को साफ करके दोबारा बनवाया। अब इस वजह से नहर में पानी उपलब्ध हो गया है।


कुछ इसी तरह की ही बात डब्ल्यू.एच.डी. एडमस "इंडिया पिक्टोरियल एंड डिस्क्रिपटिव" पुस्तक (1888) में लिखी है। उनके शब्दों में, चांदनी चौक की दुकानें किसी भी यूरोपीय महिला को लुभाने वाले कलात्मक उत्पादों से भरी पड़ी हैं। इनमें ऐसे कलात्मक उत्पाद भी हैं जो कि कला में रूचि रखने वाले यूरोपीयों की चाहत को बढ़ाएंगे। वे एक तरह से अपने सोने और चांदी की कढ़ाई वाले मनके और चूड़ियों, चमकदार रेशमी सामान, मखमली जालीदार-काम, शानदार खिलौने, भव्य विवाह-मंजूषा की चमक से कौंधा देते हैं।

19 वीं सदी में भारत आए महत्वपूर्ण यूरोपीय यात्रियों में से अपवादस्वरूप ही किसी ने दिल्ली की यात्रा नहीं की। दिल्ली आने वाले इन विदेशी यात्रियों के लिए चांदनी चौक शुरू से ही एक आकर्षण का केंद्र रहा। यही कारण है कि इन सभी यात्रियों ने अपने यात्रा वृत्तांत, संस्मरणों को लिखते हुए चांदनी चौक का उल्लेख अवश्य किया है।

इसी तरह, "लाइफ इन द मिशन, द कैंप एंड द जनाना, सिक्स इयर इन इंडिया" (1847) में श्रीमती कॉलिन मकेन्जी तत्कालीन भूगोल और बाशिंदों का वर्णन करते हुए बताती है कि चांदनी चौक एक दोहरी गली है, जो कि बीच में एक पानी की नहर से बंटी हुई है, जिसके किनारों पर लोगों की भीड़ थी। घरों के छज्जे और छतें, जो कि ज्यादातर नीची हैं, लोगों से भरी थीं। यहाँ पुरुषों और बच्चों का एक भिन्नरूप समूह था, वहां मुस्लिम महिलाएं थीं, जो कि मैंने पहली बार देखी।


जबकि ई.एफ.वाइमन "एन ओल्ड इंडियन" (1866) में यहां की बाजार खरीददारी की तस्वीर उकेरते हुए लिखते हैं कि वैसे तो चांदनी चौक में एक-दो बहुत ही अच्छी दुकानें हैं, जहां लागत पर कम मुनाफे के साथ उचित बाजार मूल्य पर वस्तुएं उपलब्ध हैं। अगर कोई यात्री सही में असली माल की तलाश में है जो उसे सीधे यही पर जाना चाहिए। उदाहरण के लिए हमें 2,000 रुपए मूल्य की जो शॉल दिखाई गई, वह हमने थोड़े बहुत मोलभाव के साथ इस दुकान से 800 रुपए में खरीदी।

"पिक्चरस्कयू इंडिया" (1898) पुस्तक में डब्ल्यू.एस कैन लिखते हैं कि शहर के बाजारों में हाथीदांत और लकड़ी की कारीगरी का काम करने वाले अनेक कुशल कारीगर हैं, जिनका काम चांदनी चौक की दुकानों में बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। दिल्ली से बेहतर कोई जगह नहीं है, जहां देशी आभूषणों खरीदे जा सकते हैं। जिनको पहनकर गरीब हिंदू महिलाएं भी सुघड़ और सलीकेदार पहनावे वाली लगती है।

वहीं पर्सवेल लान्डेन अपनी किताब "अंडर द सन" (1906) में बताते हैं कि चांदनी चौक के बीच में दोनों हिस्सों को बराबर बांटती हुई बरगद के पेड़ों की एक कतार है, जिसे टैवर्नियर ने अपने कारोबार के लिए फायदेमंद पाया। जिसके लिए उसका कहना था कि कोई भी छायादार पेड़ के नीचे एक पानीदार हीरे को परख सकता है। इन पेड़ों के तनों के नीचे की मिट्टी पर भिश्ती पानी छिड़कते थे, जिस वजह से ऊपर धूल जम जाती थी। इन वृक्षों के अंत में, जली हुई घास का मैदान था जहां से किले की धुंधली लाल रंग की दीवारें दिखाई देती हैं।

जबकि जे.रेंटन डेनिंग, "दिल्ली, द इंपीरियल सिटी" (1911) में लिखते हैं कि चांदनी चौक का महान व्यापारिक मार्ग व्यापारियों की दुकानों और गोदामों से अटा हुआ है। और यह दिल्ली आने वाले यात्रियों के लिए प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है। चांदनी चौक में सुनारों और कीमती पत्थरों के जौहरियों की भरमार हैं। इतना ही नहीं, भारत के महत्वपूर्ण पहाड़ी हिस्सों में जहां भी यूरोपीय बसावट है, इनके कारिंदे मौजूद हैं।


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