Thursday, March 1, 2018
Holi in Delhi after independence_आजादी के बाद की, दिल्ली की होली
केवल रंग ही नहीं, वे उस दौर के मौसम के बारे में बताते है कि होली के दिनों में मौसम सबसे अधिक सुहावना होता है. परिंदे अपने घोंसले बनाने में जुटे होते हैं. फूलों पर बहार आई होती है. दिल्ली में इतने फूल कभी खिले ही नहीं दिखते, जितने होली के मौसम में. विशेष रूप से टेसू या पलाश अपने पूरे यौवन पर होता है. उल्लेखनीय है कि पलाश के फूलों का होली से विशेष नाता है.
दिल्ली की होली की बात हो, "मधुशाला" (सुन आयी आज मैं तो होली की भनक, होली की भनक ए जी होली की भनक) का जिक्र न हो यह कैसे संभव है. कवि हरिवंशरॉय बच्चन ने अपनी चार खंडों वाली आत्मकथा के अंतिम खंड “दशद्वार से सोपान तक” में लिखा है कि अमित (अमिताभ बच्चन के चोट लगने से घायल होने पर) के साथ पहली फरवरी को हम यहां (दिल्ली) आये थे, मार्च में होली पड़ी, बुन्देलखंड के कवि ईसुरी की फागों के अनुकरण में मैंने तेजी (बच्चन) के विनोदार्थ एक फाग लिखी-
प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह "काशी के नाम" पुस्तक में अपने भाई काशीनाथ सिंह को लिखे एक पत्र (26 फरवरी 1966) में राजधानी में प्रवासियों के दुख को प्रकट करते हुए लिखते हैं कि लगता है, होली में न आ सकूंगा. इसलिए इस साल की होली मेरे बगैर ही मनाओ और इजाजत दो कि कम से कम एक साल तो दिल्ली की होली देख सकूं. जब यहां का नमक खा रहा हूं तो यहां की होली में भी शरीक होना ही चाहिए.
लेखक-पत्रकार सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 70 के दशक की दिल्ली में होली पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि होली मनोरंजन का त्योहार है पर धीरे-धीरे वह इस भाव से कटता जा रहा है. यह मनोरंजन का लोकरंजन से कट जाने का ही चरम रूप है. राजधानी में दिन पर दिन रंग कम होता जा रहा है, पानी बढ़ता जा रहा है.
जबकि प्रसिद्ध समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी उसी समय के अपने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिनों के बारे में बताते है कि उन दिनों वहां हमने सामुदायिक होली को बनाए रखा. आर्थिक विकास संस्थान में सभी प्रांतो, सभी धर्मों के लोग थे. सबके घर से मिठाइयां आती थी. हमारे तब के निदेशक की पत्नी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका शीला धर पक्का गाना गाती थीं और लोग भी गाते थे.
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