Thursday, March 1, 2018

Holi in Delhi after independence_आजादी के बाद की, दिल्ली की होली



देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पहली बार राष्ट्रपति भवन में होली, दशहरा और दीवाली जैसे त्योहार सामूहिक रूप से मनाने की शुरुआत की. इस आयोजन में उनके मित्र, सेनाध्यक्ष और वहां के कर्मचारी आकर मिलते और अबीर-गुलाल का आदान-प्रदान होता. हिंदी नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर ने इस बात की पुष्टि करते हुए अपनी पुस्तक "जिन्होंने जीना जाना" में लिखा है कि होली पर राष्ट्रपति भवन में संगीत और रूपकों का आयोजन मुझे करना होता था. मुगल गार्डन में अतिथियों और औपचारिकता से घिरे राजेन्द्रबाबू को मैंने भोजपुरी में होली के लोक-संगीत पर झूमते देखा. वे लिखते हैं कि राष्ट्रपति भवन की दीवारें मानों गायब हो जाती, दिल्ली का वैभव भी, उत्तरदायित्व का भार भी. सुदूर भारत के जिले के देहात की हवा मस्तानों को लिए आती और ग्रामीण हृदयों का सम्राट अपनेपन को पाकर विभोर हो जाता.


केवल राष्ट्रपति ही नहीं बल्कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के यहां भी साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी जुटते थे. मशहूर रंगकर्मी जे.एन. कौशल ने अपनी आत्मपरक पुस्तक "दर्द आया दबे पांव" में लिखा है कि पंडित नेहरू के जन्मदिन और होली के अवसर पर प्रायः (पंचानन पाठक, नेहरू के बाल सखा और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में पदस्थ) प्रधानमंत्री निवास पर जाया करते थे.


“दिल्ली” नामक उपन्यास के लेखक खुशवंत सिंह की जुबानी, मैंने तो होली पहली बार दिल्ली आकर मॉडर्न स्कूल में ही मनाई. उस वक्त इस स्कूल को बनाने वाले लाला रघुवीर सिंह के घर पर होली खेली जाती थी. पहली बार जिस लड़की के साथ मैंने होली खेली, वह एक सरदारनी ही थी. नाम था कवल. यह भी मेरे साथ ही उसी स्कूल में पढ़ती थी. बाद में वह मेरी पत्नी बनी.

केवल रंग ही नहीं, वे उस दौर के मौसम के बारे में बताते है कि होली के दिनों में मौसम सबसे अधिक सुहावना होता है. परिंदे अपने घोंसले बनाने में जुटे होते हैं. फूलों पर बहार आई होती है. दिल्ली में इतने फूल कभी खिले ही नहीं दिखते, जितने होली के मौसम में. विशेष रूप से टेसू या पलाश अपने पूरे यौवन पर होता है. उल्लेखनीय है कि पलाश के फूलों का होली से विशेष नाता है.

दिल्ली की होली की बात हो, "मधुशाला" (सुन आयी आज मैं तो होली की भनक, होली की भनक ए जी होली की भनक) का जिक्र न हो यह कैसे संभव है. कवि हरिवंशरॉय बच्चन ने अपनी चार खंडों वाली आत्मकथा के अंतिम खंड “दशद्वार से सोपान तक” में लिखा है कि अमित (अमिताभ बच्चन के चोट लगने से घायल होने पर) के साथ पहली फरवरी को हम यहां (दिल्ली) आये थे, मार्च में होली पड़ी, बुन्देलखंड के कवि ईसुरी की फागों के अनुकरण में मैंने तेजी (बच्चन) के विनोदार्थ एक फाग लिखी-
तेजी, दूर हो गए बेटे.
चले बम्बई से हम अपना सब सामान समेटे.

प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह "काशी के नाम" पुस्तक में अपने भाई काशीनाथ सिंह को लिखे एक पत्र (26 फरवरी 1966) में राजधानी में प्रवासियों के दुख को प्रकट करते हुए लिखते हैं कि लगता है, होली में न आ सकूंगा. इसलिए इस साल की होली मेरे बगैर ही मनाओ और इजाजत दो कि कम से कम एक साल तो दिल्ली की होली देख सकूं. जब यहां का नमक खा रहा हूं तो यहां की होली में भी शरीक होना ही चाहिए.

लेखक-पत्रकार सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 70 के दशक की दिल्ली में होली पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि होली मनोरंजन का त्योहार है पर धीरे-धीरे वह इस भाव से कटता जा रहा है. यह मनोरंजन का लोकरंजन से कट जाने का ही चरम रूप है. राजधानी में दिन पर दिन रंग कम होता जा रहा है, पानी बढ़ता जा रहा है.

जबकि प्रसिद्ध समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी उसी समय के अपने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिनों के बारे में बताते है कि उन दिनों वहां हमने सामुदायिक होली को बनाए रखा. आर्थिक विकास संस्थान में सभी प्रांतो, सभी धर्मों के लोग थे. सबके घर से मिठाइयां आती थी. हमारे तब के निदेशक की पत्नी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका शीला धर पक्का गाना गाती थीं और लोग भी गाते थे.

प्रसिद्ध लेखक मनोहर श्याम जोशी ने 80 के दशक में दिल्ली की होली के बारे में लिखा है कि जब तक दिल्ली में कुमाउंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्वार्टरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं. जबकि रघुवीर सहाय ने पुस्तक “लेखक के चारों ओर” में लिखा है हर बड़े शहर में ऐसे लोग हैं-राजधानी (दिल्ली) में तो बहुत हैं. ये लोग न तो यह जानते हैं कि वे होली क्यों नहीं खेलना चाहते न यह समझते हैं कि उन्हें होली क्यों खेलनी चाहिए.


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