Saturday, March 24, 2018

Bernier visit to India_economic life of delhi_बर्नियर के बरअक्स दिल्ली का आर्थिक जीवन



प्रसिद् फ्रांसिसी यात्री बर्नियर मुगल साम्राज्य को अपनी 1656-69 की यात्रा के दौरान उस समय के शासकों द्वारा कलाओं और दस्तकारियों को दिए जा रहे संरक्षण की बात से बड़ा प्रभावित था। दिल्ली का उल्लेख करते हुए वह लिखता है ‘‘अनेक स्थानों पर बड़े हाल दिखाई देते हैं जिन्हें कार कन्याज या कारीगरों के कारखाने कहा जाता है। एक हाल में कशीदाकार अपने उस्ताद की देखरेख में काम पर व्यस्त है। दूसरे में आप सुनारों को देखते हैं और तीसरे में चित्रकार को। चौथे में वार्निश वाले सुनहरी पालिश का कार्य करते हैं और पांचवे में बढ़ई, टर्नर, दर्जी तथा जूते बनाने वाले, छठे में रेशम निर्माता, जरीदार कपड़े का काम करने वाले तथा बढ़िया मलमल बनाने वाले जिससे पगड़ियां बनती हैं और सुनहरें फूलों की पेटियां तथा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले ऐसे वस्त्र बनाए जाते हैं जो इतने नाजुक तथा कोमल होते हैं कि पहनने पर एक ही रात में फट जाएं’’।

दिल्ली बिटवीन टू एंपायर्स (1803-1931) पुस्तक में नारायणी गुप्ता लिखती है कि बर्नियर, जो कि 1638 में शहर के बनने के तुरंत बाद यहां रहा था, यहां की आर्थिक, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक जीवन में बादशाह, दरबार और उमरा के दबदबे को लेकर बेहद प्रभावित था। अभिजात वर्ग के संरक्षण में कारीगरों के लिए बहुत सारे कारखाने थे लेकिन बर्नियर ने औसत दर्जे के व्यक्तियों की अनुपस्थिति पर टिप्पणी की। उसने विशाल ऐश्वर्य और शाही खर्च तो देखा ही पर घिघौनेपन को भी महसूस किया।

शहर में कुछ पत्थर और कुछ ईंटों के महल थे, जो कि मिट्टी और फूस के घरों से घिरे हुए थे। महल (लाल किला) से निकलकर फैज बाजार और चांदनी चौक की ओर जाने वाले दो रास्तों, जिनके दोनों तरफ पेड़ लगे हुए थे, में बनी दो मंजिला इमारतों में अक्सर व्यापारी काम करने के साथ रहते भी थे। इसके इर्दगिर्द कटरा विकसित हुए, जिनका नाम सूबों के रहने वाले समूहों या वस्तुओं (कश्मीरी कटरा, कटरा नील) पर आधारित था।

जबकि मोहल्लों और कूचों का नामकरण वहां बिकने वाली वस्तुओं या वहां रहने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों (मोहल्ला इमली, कूचा नवाब वजीर) पर था। शहर सौंदर्य की दृष्टि से मनमोहक था। दिल्ली के एक बड़े शायर मीर ने प्यार से कहा था कि दिल्ली की गलियां केवल गलियां न होकर चित्रकार की एक कृति के समान है।

बर्नियर की यात्रा और 1803 में अंग्रेजों की जीत के बीच के दशकों में, शाहजहांनाबाद ने गृहयुद्ध और हमलों के कारण विनाश का सामना किया। शहर का मूल स्वरूप अपरिवर्तित रहा, पर कुछ इलाकों में थोड़ी-बहुत इमारतें गतिविधियां बनीं तो कुछ क्षेत्र धीरे-धीरे या अचानक निर्जन हो गए। मालीवाड़ा और चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा मराठा नियंत्रण की अवधि में बने, जो कि मराठी प्रत्यय के संकेत से पता चलता है।

यहां तक कि 1780 के दशक के बाद भी, शहर में साठ बाजार थे और खाद्यान्नों की प्रचुर मात्रा में आपूर्ति होती थी। शहर की दीवार, जो कि नादिर शाह या मराठों के हमलों के लिए काफी नहीं थी, ने यहां के निवासियों की मेवातियों और गुर्जरों के धावों से काफी हद तक रक्षा की।

जब शाही दबदबा घटा तो कोतवाल की ताकत उसी हिसाब से बढ़ी। कोतवाल चांदनी चैक के अपने दफ्तर से प्राधिकरण से इनकार हुआ, तो कोतवाल का अनुपात बढ़कर बढ़ गया। चांदनी चौक के कार्यालय से कोतवाल और उसके बारह थानेदार शहर पर नजर रखने, चुंगी एकत्र करने के साथ व्यापार और उद्योगों को नियंत्रित करने का काम करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कर जुटाने की सीमा और दर अलग-अलग होती थी जो कि इस बात पर निर्भर करती थी कि सत्ता पर मुगल काबिज है या मराठा। बाकी यह कर एकत्र करने वाले व्यक्तियों की क्षमता पर भी निर्भर करता था।

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