Saturday, May 26, 2018

Wells_Traditional water sources of Delhi in british raj_अंग्रेजी राज में कुओं की अथ कथा

दैनिक जागरण 26/05/2018


नगरों में नल से पानी हमारे घरों में क्या पहुंचा, हम उसके स्रोतों का महत्व ही बिसरा बैठे हैं। यदि आज कुओं से पानी खींचना पड़े तो मालूम हो जाए कि पनघट की डगर कितनी कठिन है। अब तो महानगरों में कुएं दिखाना भी अध्ययन का भाग हो गया है क्योंकि कुएं अब दीखते ही कहां हैं, राज-समाज ने यह मानकर कुओं का मुंह बंद कर दिया है कि उसमें गिरने का खतरा है। खैर कुओं की अपनी व्यथा है तो उनकी अथ-कथा भी है। 


1912 तक दिल्ली पंजाब सूबे का केवल एक जिला थी और दो अन्य तहसीलें, सोनीपत और वल्लभगढ़, जो अब हरियाणा राज्य की हिस्सा है। चकबंदी के वर्षों (1872-75) में पंजाब जिले में कुल 8841 कुएं थे, जिनमें दिल्ली में 2,256, सोनीपत में 4797 और वल्लभगढ़ में 1,788 कुंए थे। अंग्रेजी राज के दिल्ली के गजेटियर (1883-84) के अनुसार, ''पंजाब सूबे के सभी जिलों में दिल्ली खेती के लिए सिंचाई योग्य क्षेत्र के मामले में अव्वल थी। अकाल आयोग को दिए गए आंकड़ों के हिसाब से कुल 37 सिंचाई योग्य क्षेत्रों में से 15 कुंओं से सिंचित होते थे। जबकि चार सिंचाई योग्य क्षेत्रों में झील पर बने बंध से और अठारह सिंचाई योग्य क्षेत्रों में नहरों के पानी से सिंचाई की जाती थी।"

उस दौर में मुख्य रूप से चार तरह के कुओं का प्रयोग होता था। पहला, चिनाई वाला कुंआ ईंट, पत्थर और गारे से बना होता था, जिसे बरसों-बरस के उपयोग के हिसाब से बनाया जाता था। ऐसे कुएं लंबे समय तक पानी देने के काम आते थे। दूसरे, मजबूती के हिसाब से बनने वाले शुष्क चिनाई वाले कुंए थे जो कि मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में होते थे, जहां आस-पास चट्टान के होने के कारण कुएं को बनाने में पत्थरों का उपयोग सस्ता पड़ता था। तीसरे, लकड़ी के कुएं थे। ऐसे कुओं की चारोें ओर बैलगाड़ी के पहिए के समान लकड़ी के नौ इंच से दो फीट लंबे घुमावदार टुकड़े लगे होते थे जो कि अधिक गहरे न होने पर भी बरसों पानी देते थे। खादर इलाके के गांवों में इनकी संख्या अधिक थीं। चौथे, सिंचाई और टिकाऊपन के हिसाब से उपयोगी झार का कुंआ था जो कि जमीन में खुदा एक खड्डा भर होता था।
तब सिंचाई-पेयजल के लिए दो तरह के कुएं होते थे। पहला रस्सी-और-मशक यानी चड़स वाला और दूसरा रहट वाला कुआं। आज सिंचाई के जिस साधन को चड़स के नाम से पहचाना जाता है, वह मूल रूप से चमड़े का होता था। बैलों के बल के सहारे कुएं से जल को पात्र (चड़स) में भरकर ऊपर उठाया जाता और खाली कर पानी को इच्छित स्थान पर पहुंचाया जाता था। भ्रमणी (भूण) व ताकलिया (बेलनाकार चरखी) से लैस कुएं पर ही इसे संचालित किया जाता था। जबकि रहट खेतों की सिंचाई के लिए कुएँ से पानी निकालने का एक प्रकार का गोलाकार पहिए रूपी यंत्र होता था और जिस पर मिट्टी के हाँड़ियों की माला पड़ी रहती है। इसी पहिए के घूमने से कुंए में नीचे से हाँड़ियों में भरकर पानी ऊपर आता था।


दिल्ली के गजेटियर (1912) के अनुसार, "दिल्ली में होने वाली कुल सिंचित क्षेत्र में 57 प्रतिशत में सिंचाई के कृत्रिम साधनों से, 19 प्रतिशत में कुओं से, 18 प्रतिशत में नहरों से, और 20 प्रतिशत में बंध से होती थी।" 1860 तक, शहर में 1,000 कुएं होने बात दर्ज थी, जिनमें लगभग 600 निजी स्वामित्व और 400 सार्वजनिक उपयोग में थे। उर्दू शायर मिर्जा गालिब ने 1860-61 में एक खत में लिखा कि अगर कुएं गायब हो गए और ताजा पानी मोती की तरह दुर्लभ हो जाएगा तो यह शहर कर्बला की तरह एक वीराने में बदल जाएगा।


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