Tuesday, July 31, 2018
Saturday, July 28, 2018
Delhi with changing times_समय के साथ बदलती दिल्ली
प्रस्तर युग से ही दिल्ली मानवीय बसावट का एक केंद्र थी। मनुष्यों के वास करने योग्य एक स्थान के रूप में दिल्ली को कुछ प्राकृतिक लाभ थे खासकर अपनी भौगोलिक अवस्थिति के कारण। इन विशेषताओं में प्रमुख थीं, एक बारहमासी नदी, पत्थरों के औजार को बनाने के लिए पहाड़ियां, जो कि युद्ध के समय में एक प्रतिरोध का काम करती थी, कृषि से अलग कार्यों में लगी एक बड़ी शहरी आबादी को भोजन उपलब्ध करवाने के लिए भीतरी इलाके में एक उपजाऊ कृषि क्षेत्र। दिल्ली के क्षेत्रीय महत्व की व्यापकता का ऐतिहासिक कारण रहा है। ऐसा उत्तरापथ के महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग, जो कि गंगा के मैदान से गुजरते हुए रेशमी मार्ग तक जुड़ा हुआ था, पर उसकी निर्णायक भौगोलिक स्थिति के कारण था।
बीती शताब्दियों में यमुना नदी और रिज में बने त्रिभुज क्षेत्र में विभिन्न बसावटें पनपी। यहां मिले पुरातात्त्विक अवशेषों, तीसरी-चौथी ईसा पूर्व से लेकर मुगल काल तक यहां लगातार रही सांस्कृतिक परतों की उपस्थिति का खुलासा करते हैं। यहां मिले मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तो लगभग 1000-500 ईसा पूर्व तक पुराने हैं। दिल्ली पर सिलसिलेवार ढंग से विजय पताका लहराने वाले राजवंशों के शासकों ने दिल्ली के इस त्रिकोणीय क्षेत्र में अलग-अलग स्थानों को विकसित किया। जो कि उनकी बसावटों की अलग-अलग दीवारों, किलों और उससे जुड़े निर्माणों से प्रकट होता है। यहां समय के साथ बने विभिन्न शहर इसके गवाह है।
तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में, दिल्ली के विचार को नागरिकों और कवियों ने अंतर में आत्मसात कर लिया था। वे इसे “हजरत-ए-देहली” (सम्मानित दिल्ली) या “शहर” के नाम से पुकारते थे। तोमर वंश ने 1060 ईस्वी में दिल्ली के पहले शहर लाल कोट की स्थापना की थी। जबकि चौहान शासकों ने 12 वीं शताब्दी के मध्य में तोमर को अपदस्थ करके लाल कोट का विस्तार करते हुए किला राय पिथौरा (अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम पर) बनाया। उनके बाद 1192 ईस्वी में दिल्ली पर पहली बार मध्य एशिया के विदेशी तुर्कों ने कब्जा जमाते हुए दिल्ली में मुस्लिम शासन की नींव रखी। दिल्ली सल्तनत के समय में दिल्ली एक साम्राज्य की राजधानी बनी। खिलजी वंश के दौरान दिल्ली के दूसरे शहर सिरी की स्थापना हुई। खिलजी वंश का अंत होने के बाद पहले तुगलक सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक (1320-24) ने दिल्ली के तीसरे शहर तुगलकाबाद का निर्माण किया।
मुहम्मद बिन तुगलक ने 1326-27 ईस्वी में दिल्ली के चौथे शहर जहांपनाह को बनाने के लिए लाल कोट और सिरी के पुराने शहरों को दो दीवारों से जोड़ने का काम किया। फिरोज शाह तुगलक (1351-1388) ने यमुना किनारे दिल्ली के पांचवे शहर फिरोजाबाद का निर्माण किया। दिल्ली पर शासन करने वाले अनेक राजवंशों के विपरीत सैय्यद वंश (15 वीं शताब्दी) और लोदी राजवंश (15 वीं शताब्दी के मध्य) ने अलग से किसी कोई शहर विशेष को नहीं बसाया।
फिर दिल्ली समय-समय पर मुगल शासन की राजधानी (16 वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 17 वीं शताब्दी के कालखंड में) रही। 1533 ईस्वी में मुगल बादशाह हुमायूं ने दिल्ली के छठें शहर दीनानाह का निर्माण किया। 1639 ईस्वी में, शाहजहां ने मुगल साम्राज्य की राजधानी को आगरा (अकबर की फतेहपुर सीकरी) से वापस दिल्ली को बना दिया। इस तरह, परकोटे वाला शाहजहांनाबाद दिल्ली का सातवां शहर बना।
इन विभिन्न शहरों के अवशेषों को आंशिक रूप से आज भी देखा जा सकता है। इस क्षेत्र की स्थलाकृति और पारिस्थितिकी के अनुरूप बने ये शहर अपने नएपन में भी पिछली बसावटों के सहअस्तित्व के साथ समृद्ध हुए थे। दुनिया में शायद ही कहीं मानवीय सभ्यता और उसकी बसावट के विकास का ऐसा नैरन्तर्य देखने को मिलता है। इस तरह, शहर के आकार की कई संगतियां, अनेक रंगतों वाली अभिव्यक्तियां और उसके परिणामस्वरूप एक विलक्षण घनी आबादी वाली बसावट के रूप में सामने आई, भारतीयों की दिल्ली।
Sunday, July 22, 2018
Saturday, July 21, 2018
INA trial at Redfort_लालकिले का आज़ाद हिन्द फौज का मुकदमा
दूसरे विश्व युद्व के दौरान हिंदुस्तान में पहली बार आजाद हिंद फौज का नाम गूंजा था। ऐसा 1943 में अंग्रेज सेना के बर्मा को दोबारा जीतने के कारण हुआ। इस विजय के साथ अंग्रेज सरकार की आजाद हिंद फौज (आइएनए) की गतिविधियों पर लगाई सेंसरशिप खत्म हो गई। अंग्रेज सरकार ने 27 अगस्त 1945 को आइएनए के बंदी सैनिक अधिकारियों का कोर्ट मार्शल करने की सार्वजनिक घोषणा की। इस पेशी का मुख्य उद्देश्य, देश की जनता को यह जतलाना था कि वे गद्दार, कायर, अड़ियल और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। यह कदम अंग्रेज सरकार की एक बड़ी भूल थी, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। तत्कालीन अंग्रेज वायसराय ए. पी. वावेल का भी मानना था कि आजाद हिंद फौज के अधिकारियों के कोर्ट मार्शल से भारतीय जनता को झटका लगेगा। तब के अंग्रेज सेनाध्यक्ष ऑचिनलेक को इस बात का भरोसा कि जब आइएनए की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो उसके लिए सहानुभूति अपने से ही समाप्त हो जाएंगी।
15 जून 1945 को जब अंग्रेज सरकार ने भारत छोड़ो आन्दोलन की विफलता के बाद कांग्रेस के नेताओं को देश भर की जेलों से छोड़ा तो राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ा परिवर्तन आ चुका था। दूसरी तरह, कांग्रेस के नेता, सुभाष चन्द्र बोस के सक्षम नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के गठन और फौज के साहसिक कारनामों से अनजान थे। शायद यही कारण था कि जेल से अपनी रिहाई के बाद जवाहरलाल नेहरू ने एक सवाल के जवाब में कहा कि अगर नेताजी भारतीयों का नेतृत्व करते हुए भारत से लड़ने की कोशिश की तो वे नेताजी के साथ-साथ जापानी सेना के विरूद्ध संघर्ष करेंगे।
दिल्ली के लालकिले में आजाद हिंद फौज के अफसरों शाह नवाज, पी. के. सहगल और जी.एस. ढिल्लों का पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। जबकि 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने भारतीयों में आजाद हिंद फौज की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आइएनए के सैनिकों को रिहा करने का निर्णय किया।
7 दिसंबर 1945 को जब दोबारा मुकदमा शुरू हुआ तो यह बात जाहिर हुई कि जापानी सेना का आचरण विधि सम्मत नहीं था न कि उनके साथीआइएनए के भारतीय सैनिकों का। मुकदमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह अंग्रेज सेना में एडजुटेंट जनरल की शाखा के डीसी नाग, जो कि सिंगापुर में कैदी बने, के साथ जिरह में आजाद हिंद फौज के एक संगठित, कुशल प्रशासन वाली सक्षम सेना होने की बात सबके सामने आई। इसका परिणाम यह हुआ कि अचानक सारे राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र आइएनए के कारनामों से भर गए। अंग्रेज सरकार को आइएनए के कारनामों से इतनी परेशानी हुई कि उसने बीबीसी को फौज पर समाचार देने से रोका। इस तरह पहली बार आजाद हिंद फौज का वास्तविक देशभक्त रूप सबके सामने आया।
"आजाद हिंद फौज का इतिहास" पुस्तक के अनुसार, मार्च 1946 के अंत तक केवल 27 मुकदमें शुरू किए गए थे या विचाराधीन थे। आजाद हिंद फौज और उसके मुकदमों ने अंग्रेज सरकार को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि अब उनकी विदाई की घड़ी आ गई है। वाइसरॉय ने अंग्रेज सरकार को चेताते हुए कहा कि पहली बार पराजय का भाव न केवल सिविल सेवाओं बल्कि भारतीय सेना पर नजर आया।
Tuesday, July 17, 2018
book ban in british india_rangila rasul_rajpal
अंग्रेज़ भारत में सरकारी प्रतिबन्ध की शिकार पहली किताब की कहानी.
कम को ही याद होगा कि देश की आज़ादी से पहले लाहौर से एक आर्य समाजी लेखक एम. ए. चमू पति की किताब "रंगीला-रसूल" के प्रकाशन का मूल्य एक और आर्य समाजी, महाशय राजपाल को अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा था. उनकी हत्या इल्ल्मुद्दीन नामक व्यक्ति ने की थी.
यह बात "ऑन दी रिकॉर्ड है कि इकबाल ने इस हत्यारे को मियांवाली जेल में फांसी देने शोक जताते हुए, उसका महिमा-मंडन किया था जबकि "महात्मा" मौन थे!
Sunday, July 15, 2018
Changing course of river yamuna_यमुना की बदलती राहे
दिल्ली के इतिहास को आकार देने में यमुना एक निर्धारक कारक रही है। ऐसा माना जाता है कि यह रिज के पश्चिम से बहते हुए सरस्वती, ऋग्वेद के प्राचीन श्लोकों में सभी नदियों के सबसे प्रमुख नदी के रूप में प्रशंसनीय, में मिलती थी। उल्लेखनीय है कि सरस्वती नदी राजस्थान के रेत के धोरों में अदृश्य हो गई। आज की दिल्ली के भौतिक भूदृश्य की रूपरेखाएं-वनस्पति समूह और जंतु समूह सहित-जिस रूप में दिखाई पड़ती हैं, वे कई अर्थों में हजारों वर्ष पूर्व के इनके रूप से भिन्न हैं।
यमुना नदी का इतिहास पुराना और घटनापूर्ण रहा है और दिल्ली शहर के बसने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रसिद्व अंग्रेज इतिहासकार पर्सिवल स्पीयर के शब्दों में, दिल्ली के इतिहास और उसकी वास्तुकला को तो ढंग से संकलित किया गया है परंतु उसके प्राकृतिक भूदृश्य और बसावट की जानकारी कमतर है। दिल्ली पर ऐतिहासिक साहित्य मुख्य रूप से राजनीतिक, सामाजिक, पुरातात्विक या स्थापत्य इतिहास पर केंद्रित है। जहां तक आसपास के पर्यावरण की बात है, उसको लेकर साहित्यिक संदर्भ नाममात्र के ही रहे हैं। ऐसे संदर्भ भी शायद नदी, पहाड़ियों, वनस्पतियों, जीवों और भूविज्ञान के सामान्य विवरण तक ही सीमित थे।
उत्तर भारत की एक प्राचीन जल वाहिका यमुना दिल्ली के जल निकास का प्रमुख साधन है। उत्तर से दक्षिण दिशा में बहने वाली यह नदी मोटे तौर पर उत्तर प्रदेश के साथ दिल्ली की पूर्वी सीमा रेखा के रूप में मौजूद है। हजार बरसों से यह नदी दिल्ली की जमीन से होकर बह रही है और इस तरह, दोनों ही किनारों पर उपजाऊ मिट्टी लाकर जमा करती है। दिल्ली में जमीन का ढलान भी यमुना नदी के बहाव की मुख्य दिशा के अनुरूप है यानी उत्तर से दक्षिण की ओर। नदी के पश्चिम में एक स्थानीय जल विभाजक रेखा है जो उस अंचल के जल निकास को दो क्षेत्रों में बांटती है। पूर्वी अंचल का पानी यमुना में जा गिरता है, पश्चिमी अंचल की सतह का पानी प्राकृतिक रास्तों से गुजरता हुआ दक्षिण की ओर नजफगढ़ नाले में जा मिलता है।
एक समय यमुना की धारा पश्चिम की ओर होकर बहती थी और यह घग्गर-हकरा नदी में मिलती थी। समय के साथ इसकी धारा पूरब की ओर होती गई और अंततः यह गंगा नदी में मिल गई। नजफगढ़, सूरजकुंड और बड़कल की झीलें यमुना की पुरानी धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। नदी की पुरानी धारा के चिन्ह परिव्यक्त जल मार्गों और चाप झीलों में देखे जा सकते हैं जो वर्तमान धारा के पश्चिम में विशेषतः उत्तरी भाग में दिल्ली की सीमा में पहले पाई जाती है।
दिल्ली क्षेत्र के पुरायुगीन पर्यावरण के अनुसार, यमुना नदी का विस्थापन दिल्ली की उत्तरी और पश्चिमी दिशाओं में 100 किलोमीटर और दक्षिण में 40 किलोमीटर हुआ। चार हजार वर्ष पूर्व यह नदी बदरपुर पहाड़ियों से होकर बहती थी।
यह नदी पिछले चार हजार साल में अपनी दिशा बदलती रही है। सैटेलाइट इमेजरी यानी उपग्रहों से यमुना की तस्वीरों से पता चलता है कि यह नदी अपना रास्ता बार-बार बदलती रही है। पहले यमुना उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम की ओर आज के करनाल, सफीदों एवं भिवानी से होकर बहती थी और फिर मुड़कर झज्झर से गुडगांव होकर दिल्ली की ओर आती थी। फिर इस नदी ने पूर्व की ओर खिसकना शुरू किया। इस नदी के कम से कम पांच बार पूर्व की ओर खिसकना शुरू किया। इस नदी के कम से कम पांच बार पूर्व की ओर खिसकते जाने के प्रमाण आज की दिल्ली में देखे जा सकते हैं। नजफगढ़, सूरजकुंड और बड़कल की झीलें यमुना की पहाड़ियों के बीच रास्ता बदलते जाने कारण बनी मानी जाती हैं। इस प्रकार यह नदी खिसकती हुई रिज के दक्षिण पश्चिम की ओर पूर्व की ओर बढ़ती रही है। कालांतर में यह पूर्व के मैदानी क्षेत्र की तरफ बहते-बहते अपने वर्तमान प्रवाह-मार्ग में बहने लगी।
वैसे तो यमुना दिल्ली से होकर बहने वाली एक बारहमासी नदी है, तथापि यहां की छोटी बरसाती नदियां भी महत्वपूर्ण हैं। ये बरसाती नदियां अब प्रायः गंदे और बदबूदार पानी वाले नालों के रूप में शेष रह गई हैं, इनका ऐतिहासिक या पर्यावरणीय महत्व गौण हो गया है। अधिकांश नदी-नाले, जिनमें बुधी नाला सबसे प्रमुख है, दक्षिणी दिल्ली के बल्लभगढ़ पहाड़ी इलाके से पूर्व की ओर बहता है। प्राचीन काल की बस्तियां प्रायः ऐसे ही जल स्त्रोतों के अपवाह क्षेत्र में सघन रूप से बसीं। ऐसा माना जाता है कि हरियाणा में सोनीपत के निकट बहने वाला बुधी नाला शायद यमुना की ही एक पुरानी धारा है।
उल्लेखनीय है कि बुधी नाला ही भूमि को खादर और बांगर में विभाजित करता है। दिल्ली से नीचे नदी की धारा आम तौर पर बांगर जलोढक के पूर्वी तट के साथ-साथ बहती है। खादर यमुना नदी की नई बालू मिट्टी का निक्षेप है। इसके पश्चिम में बांगर है जो बहुत समय पूर्व नदी के पुराने प्रवाह-मार्गों के निक्षेपों से बने बालू मिट्टी के टीले हैं। डाबर दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली की बाढ़ प्रभावित नीची भूमि है। यह पहाड़ियों के पश्चिम में जल जमाव का क्षेत्र है जहां से धाराएं पश्चिम को जाती है।
यमुना नदी दिल्ली के भूदृश्य का एक मुख्य आकर्षण है। आज संकुचित स्वरूप और प्रदूषित जल वाली इस नदी की स्थिति दयनीय है। मानसून के दौरान जब इसका पानी खतरे के निशान से ऊपर उठता है तभी यमुना की ओर सबका ध्यान जाता है। दिल्ली की सीमा में प्रवेश करने से पूर्व यमुना से दो नहरें, ईस्टर्न यमुना कैनाल और वेस्टर्न यमुना कैनाल, निकाल लिए जाने के कारण दिल्ली के मैदानी भाग में यह एक पतली धारा के रूप में बहती है। नदी के दोनों किनारे निचले और बलुई है जबकि ओखला वीयर के पास तल में मजबूत चट्टानें भी पाई गई हैं।
आज यमुना नदी दिल्ली की सीमा में पल्ला गांव से प्रायः एक मील उत्तर में प्रवेश करती है, जहां इसकी समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 690 फुट है। यह समुद्र तल से 650 फुट की ऊंचाई पर ओखला के नीचे जैतपुर के पूर्व में एक स्थान पर दिल्ली की सीमा छोड़ देती है। यमुना नदी दिल्ली महानगरीय क्षेत्र में उत्तर से दक्षिण-पूर्व की ओर बहती है। सामान्य रूप से जल का पाट बहुत चौड़ा नहीं है किन्तु बारिश के मौसम में बाढ़ से शहर को बचाने के लिए पक्के बांध और पुश्ते बनाकर नदी के दोनों किनारों को रोकथाम की जाती है। इतना ही नहीं, उसके बीच बाढ़ के पानी को रोके रखने के लिए काफी स्थान छोड़ा हुआ है।
दिल्ली के अन्तर्गत उसके प्रवाह की लंबाई लगभग 51 किलोमीटर है और वह 18 से 20 इंच प्रति मील की औसत से नीचे उतरती है। उत्तर में पल्ला गांव से दक्षिण में जैतपुर तक नदी का वर्तमान प्रवाह बहुत टेढ़ा-मेढ़ा है। वजीराबाद तक नदी दक्षिण की ओर बहती है और फिर पूर्व की ओर तेज मोड़ लेती है। लाल किले के निकट से गुजरती हुई वह दक्षिण पूर्व दिशा में ओखला तक पहुंचती है जहां उसकी प्रवाह धारा में आगरा नहर हेडवर्क्स से बाधा पड़ती है।
Saturday, July 7, 2018
water in the old maps of delhi_प्रकृति-पानी की कहानी बताते दिल्ली के नक्शे
आज से लगभग दो सौ साल पहले पुरानी दिल्ली (तब शाहजहांनाबाद) में अंसख्य बागों के साथ पानी की एक बड़ी नहर बहती थी। आज ये दोनों चीजें, बाग और नहर, बीते समय की बात बन कर रह गई हैं क्योंकि अब इनका कोई भौतिक अवशेष बाकी नहीं है। दिल्ली के पुराने नक्शों में झांकने से न केवल दिल्ली के इतिहास बल्कि शहर के पानी, जल निकायों और यमुना नदी से आबादी के अंर्तसंबंधों का पता चलता है। केवल इतना ही पिछली दो शताब्दियों में पानी को लेकर दिल्ली में बदलते समीकरणों का खुलासा भी होता है।
“एंटीक्यूटीस ऑफ दिल्ली” शीर्षक वाला सबसे पुराना रंगीन नक्शा (1803-1857 के बीच में बना) नदियों और नहरों को नीले, बसावट वाले इलाकों को लाल और सड़कों तथा रास्तों को पीले रंग में दर्शाता है। जबकि अंग्रेज सर्वेक्षक एफ एस व्हाईट का बनाया “1807 का दिल्ली के परिवेश” शीर्षक वाले मानचित्र में नीले रंग से नदियों और धाराओं का तो छायांकन चिन्ह से रिज और पहाड़ियों की उपस्थिति को बताया गया है। इस नक्शे की सबसे बड़ी विशेषता एक नहर है, जिसका उद्गम स्थल शाहजहांनाबाद से दर्शाया गया है। यह बात नक्शे के ऊपरी बाईं ओर संकेत रूप में देखने को मिलती है पर अफसोस कि आज की तारीख में इसका कोई अस्तित्व नजर नहीं आता है।
“दिल्ली या शाहजहांनाबाद के पर्यावरण का त्रिभुजीय सर्वेक्षण” शीर्षक वाला मानचित्र वर्ष 1808 की दिल्ली और उसके पास पड़ोस के परिवेश को दर्शाता है। इस नक्शे में खास तौर से यमुना नदी के बाएं ओर के इलाके को प्रदर्शित किया गया है। 1807 के दिल्ली के परिवेश शीर्षक वाले मानचित्र में अब बेकार हो चुकी नहर को प्रमुखता से दिखाते हुए पुरानी नहर बताया गया है। “1812 का दिल्ली की योजना” शीर्षक का नक्शा अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र वाले शाहजहांनाबाद में सैकड़ों बागों की उपस्थिति को दर्शाता है। अब यह बात स्पष्ट नहीं है कि ये बाग शहर के उत्तरी भाग के नजदीक होने की वजह से पनपे या फिर एक कृत्रिम नहर की निकटता के कारण।
“दिल्ली-1857” शीर्षक वाले मानचित्र में यमुना नदी के पूर्वी किनारे से शहर में घुसने के एकमात्र प्रवेश बिंदु के रूप में नौकाओं का पुल का संकेत है जो कि उसके सामरिक महत्व के साथ राजधानी की जल-जीवन रेखा के अस्तित्व को दर्शाता है। इसी अवधि का “1857 में दिल्ली” शीर्षक वाला एक अन्य श्वेत-श्याम नक्शा इस कारण से विलक्षण है कि उसमें दिल्ली की पहाड़ियों और पेड़ों को लाक्षणिक रूप में दर्शाने के साथ नदियों और नहरों को लहरदार लकीरों के रूप में प्रदर्शित किया गया जो कि नक्शों के मामलों में लीक से हटकर बात है।
इसी तरह, “दिल्ली का घेराबंदी” शीर्षक वाला एक महत्वपूर्ण श्वेत-श्याम सैन्य मानचित्र] अँग्रेजी सैन्य व्यवस्था के साथ-साथ दिल्ली रिज की स्थलाकृति को भी दर्शाता है। जबकि “पश्चिमी जमुना नहर” शीर्षक वाला नक्शा अपने नाम को चरितार्थ करते हुए, पूरे दिल्ली क्षेत्र की प्रस्तावित और तैयार सिंचाई नहरों और जल निकासी कार्यों को दिखाता है। तब दिल्ली का विस्तार यमुना नदी के पूर्व से से लेकर बहादुरगढ़ कस्बे के पश्चिम तक था। नक्शे के दाईं तरफ इस विषय में लिखित जानकारी दर्ज है। इस नक्शे में राजधानी के तीन जल स्रोत नीले रंग में अंकित हैं। जिसमें जमुना नदी, दिल्ली नहर और नजफगढ़ झील प्रमुख है। दिलचस्प बात यह है कि शाहजहांनाबाद के हल्के, लाल संकेतक, नक्शे के बीच में ध्यान आकर्षित करते है, जहां से जल प्रवाह की व्यवस्था को इंगित करती लाल रेखाएं शुरू होती हैं। “1807 का दिल्ली के परिवेश” शीर्षक नक्शा में भी इसी जल स्त्रोत के होने की ताकीद करता है।
Thursday, July 5, 2018
Wednesday, July 4, 2018
British India Census_अंग्रेजी राज की जनगणना का सच
एम. ए. शेरिंग |
अंग्रेजी राज की जनगणना का सच
1872 में "हिंदू कास्ट्स एंड टाइब्स" नामक पुस्तक लिखने वाले एम. ए. शेरिंग ने ने 1880 में "कलकत्ता रिव्यू" में जाति के विभाजनकारी पक्ष को उभारते हुए लिखा, अन्य देशों में पाए जाने वाली सामाजिक एकता को जाति नष्ट कर देती है।
इस विभाजनकारी साम्राज्यवादी सोच के कार्यान्वयन का मुख्य माध्यम बनाया गया सन् 1871 से प्रारंभ हुई दस वर्षीय जनगणना की प्रक्रिया को। उसका एकमात्र लक्ष्य था हिंदू यथार्थ को जाति, उपासना और बोलियों आदि के भेदों में खंड-खंड करके चित्रित करना।
अपने साम्राज्यवादी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने 1871-72 की जनगणना से ही जातियों की सूचियां तैयार करना और उनका कृत्रिम वर्गीकरण शुरू कर दिया।
सन् 1881 में प्रत्येक प्रांत के लिए ग्रामशः प्रत्येक जाति की संख्या देते हुए जातियों की सूची तैयार की गई। इतना ही नहीं, जातीय स्पर्धा पैदा करने हेतु उन्होंने प्रत्येक जाति की अन्य जातियों से ऊंच नीच का तुलनात्मक आकलन भी करना चाहा। किन्तु उनके इस प्रयत्न का उस समय के भारतीय समाज की ओर से इतना कड़ा विरोध हुआ कि उन्हें उस समय अपनी इस योजना को स्थगित करना पड़ा।
पर सन् 1909 के जनगणना आयुक्त सर हर्बर्ट रिस्ले ने सामाजिक उच्चता के सिद्धांत के आवरण में इस योजना को कार्यान्वित कर ही डाला। जनगणना कर्मचारियों को निर्देश दिया गया कि वे जाति और उपजाति पूछने के साथ ही यह भी पूछेें कि आपकी जाति अमुक जाति से ऊंची है या नीची। इस पूछताछ का परिणाम हुआ कि विभिन्न जातियों में अपने को ऊंचा बताने की होड़ लग गई।
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कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...