Saturday, July 21, 2018

INA trial at Redfort_लालकिले का आज़ाद हिन्द फौज का मुकदमा









दूसरे विश्व युद्व के दौरान हिंदुस्तान में पहली बार आजाद हिंद फौज का नाम गूंजा था। ऐसा 1943 में अंग्रेज सेना के बर्मा को दोबारा जीतने के कारण हुआ। इस विजय के साथ अंग्रेज सरकार की आजाद हिंद फौज (आइएनए) की गतिविधियों पर लगाई सेंसरशिप खत्म हो गई। अंग्रेज सरकार ने 27 अगस्त 1945 को आइएनए के बंदी सैनिक अधिकारियों का कोर्ट मार्शल करने की सार्वजनिक घोषणा की। इस पेशी का मुख्य उद्देश्य, देश की जनता को यह जतलाना था कि वे गद्दार, कायर, अड़ियल और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। यह कदम अंग्रेज सरकार की एक बड़ी भूल थी, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। तत्कालीन अंग्रेज वायसराय ए. पी. वावेल का भी मानना था कि आजाद हिंद फौज के अधिकारियों के कोर्ट मार्शल से भारतीय जनता को झटका लगेगा। तब के अंग्रेज सेनाध्यक्ष ऑचिनलेक को इस बात का भरोसा कि जब आइएनए की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो उसके लिए सहानुभूति अपने से ही समाप्त हो जाएंगी। 


15 जून 1945 को जब अंग्रेज सरकार ने भारत छोड़ो आन्दोलन की विफलता के बाद कांग्रेस के नेताओं को देश भर की जेलों से छोड़ा तो राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ा परिवर्तन आ चुका था। दूसरी तरह, कांग्रेस के नेता, सुभाष चन्द्र बोस के सक्षम नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के गठन और फौज के साहसिक कारनामों से अनजान थे। शायद यही कारण था कि जेल से अपनी रिहाई के बाद जवाहरलाल नेहरू ने एक सवाल के जवाब में कहा कि अगर नेताजी भारतीयों का नेतृत्व करते हुए भारत से लड़ने की कोशिश की तो वे नेताजी के साथ-साथ जापानी सेना के विरूद्ध संघर्ष करेंगे।

दिल्ली के लालकिले में आजाद हिंद फौज के अफसरों शाह नवाज, पी. के. सहगल और जी.एस. ढिल्लों का पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। जबकि 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने भारतीयों में आजाद हिंद फौज की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आइएनए के सैनिकों को रिहा करने का निर्णय किया।

7 दिसंबर 1945 को जब दोबारा मुकदमा शुरू हुआ तो यह बात जाहिर हुई कि जापानी सेना का आचरण विधि सम्मत नहीं था न कि उनके साथीआइएनए के भारतीय सैनिकों का। मुकदमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह अंग्रेज सेना में एडजुटेंट जनरल की शाखा के डीसी नाग, जो कि सिंगापुर में कैदी बने, के साथ जिरह में आजाद हिंद फौज के एक संगठित, कुशल प्रशासन वाली सक्षम सेना होने की बात सबके सामने आई। इसका परिणाम यह हुआ कि अचानक सारे राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र आइएनए के कारनामों से भर गए। अंग्रेज सरकार को आइएनए के कारनामों से इतनी परेशानी हुई कि उसने बीबीसी को फौज पर समाचार देने से रोका। इस तरह पहली बार आजाद हिंद फौज का वास्तविक देशभक्त रूप सबके सामने आया।

"आजाद हिंद फौज का इतिहास" पुस्तक के अनुसार, मार्च 1946 के अंत तक केवल 27 मुकदमें शुरू किए गए थे या विचाराधीन थे। आजाद हिंद फौज और उसके मुकदमों ने अंग्रेज सरकार को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि अब उनकी विदाई की घड़ी आ गई है। वाइसरॉय ने अंग्रेज सरकार को चेताते हुए कहा कि पहली बार पराजय का भाव न केवल सिविल सेवाओं बल्कि भारतीय सेना पर नजर आया।


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