Saturday, August 4, 2018

Delhi at the time of partition 1947_बंटवारे के दौर की दिल्ली_1947

04082018, दैनिक जागरण 







स्वतंत्रता और विभाजन दोनों की घोषणा 15 अगस्त 1947 को एक साथ हुई। बंटवारे पर असीम कटुता तथा दुख का अनुभव किया गया। जैसे-जैसे पाकिस्तान से धकेले हुए आतंकित हिंदू-सिख दिल्ली में आने लगे वैसे-वैसे राजधानी में उदासी और डर का वातावरण बैठता गया।

प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा, "एक जिन्दगी काफी नहीं" में उस समय का वर्णन करते हुए लिखते है कि 15 सितंबर को मैं दिल्ली पहुंचा तो शहर दंगों की चपेट में था। मुसलमान शहर से भाग रहे थे, उसी तरह जैसे हिन्दू और सिख पश्चिम पंजाब से भाग रहे थे। मुसलमान दिल्ली की गलियों में सुरक्षित नहीं थे, इसलिए उनमें से ज्यादा ने पुराने किले में शरण ले रखी थी। सरदार पटेल और संविधान परिषद के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद दोनों ने ही नेहरू के इस प्रस्ताव का विरोध किया था कि दिल्ली के कुछ रिहायशी इलाके मुसलमानों के लिए आरक्षित कर देने चाहिए।

अगस्त 1947 में देश के विभाजन के दौरान हुए रक्त-रंजित दंगों में दिल्ली के मुसलमानों पर भी संकट आया और वे बड़ी संख्या (लगभग दो लाख) में पाकिस्तान चले गये। मुस्लिम लीग का नेतृत्व भी यहां से विदा हुआ। ऐसे ही दिल्ली में 1951 में लगभग जिन पांच लाख हिंदू-सिख शरणार्थियों की गणना की गई थी उनमें से 95 प्रतिशत दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में ही बस गए।

प्यारेलाल की पुस्तक "महात्मा गांधीःपूर्णाहुति" के अनुसार, जून के अंतिम भाग में और जुलाई भर गांधीजी राजधानी में रहे। गांधी के शब्दों में, मैं नेताओं के बुलाने पर दिल्ली आया था, लेकिन अगर मुझसे पूछा जाय कि मैंने यहां क्या सिद्व किया, तो मुझे कहना पडे़गा कि उपयोगी कुछ नहीं। गांधी को लगा कि ऐसी स्थिति में मेरा सच्चा स्थान राजधानी में नहीं, किन्तु उन आदमियों के साथ है, जो पलटन टूट जाने पर भी मरते दम तक लड़ते रहते हैं। स्वाधीनता दिवस पर गांधीजी रोज से एक घंटे पहले अर्थात् 2 बजे जाग गये। वह महादेव देसाई का पांचवां श्राद्व दिवस था, इसलिए उन्होंने-ऐसे अवसर पर अपनी प्रथा के अनुसार-प्रातःकालीन प्रार्थना के बाद उपवास रखकर और संपूर्ण गीता का पाठ करके यह दिन मनाया।

आजादी की खुशी में बंटवारे का दर्द का बयान करते हुए "तमस" के लेखक भीष्म साहनी अपनी आत्मकथा "आज के अतीत" में लिखते हैं, मैंने साथ-ही-साथ दिल्ली की सड़कों पर शरणार्थियों की भीड़ भी देखी। एक ओर जश्न का-सा समां, दूसरी ओर बेघर लोगों की बदहाली, पर कुल मिलाकर वातावरण में आजादी की लहर का अधिक प्रभाव था। वे सबसे पहले 1947 में देश को आजादी मिलने का गवाह बनने की ललक से दिल्ली आए थे। बकौल साहनी पिताजी से यह कहकर कि मैं सप्ताह भर में लौट आऊंगा, कि मैं दिल्ली में आजादी का जश्न देखने जा रहा हूँ जब लालकिले पर भारत का झंडा लहराया जाएगा। जबकि दिल्ली पहुंचने की देर थी कि पता चल गया कि लौट पाना असम्भव हो गया है, रेलगाड़ियों का आना-जाना बन्द हो गया था। सहसा ही मेरे लिए सारा चित्रपट बदल गया। मेरे लिए ही क्यों, हमारे परिवार के लिए।

भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश) और प्रसिद्ध गांधीवादी सुचेता (मजूमदार) कृपलानी ने अपनी मधुरिम आवाज में संवैधानिक सभा में 14 अगस्त, 1947 की रात को एक विशेष सत्र के दौरान वंदे मातरम और जन-गण-मन गाया था। "गांधी बोध: गांधीवादियों के साथ फ्रेड जे ब्लूम का संवाद" पुस्तक में दिए एक साक्षात्कार में सुचेता के ही शब्दों में, विभाजन के उपरान्त जब शरणार्थी आ रहे थे, मैंने बहुत काम किया। वास्तव में, मैंने सरकार की ओर से उनकी देखरेख की जिम्मेदारी के लिए राजी होने के पूर्व ही पहल करते हुए शरणार्थियों को संगठित किया। सुचेता ने इसके लिए राजेन्द्र बाबू की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। बकौल सुचेता, मैंने सभी चीजें व्यवस्थित की और मैं दिल्ली में सैंकड़ों शरणार्थियों की देखभाल कर रही थी। बाद में, हम दूसरे भागों में भी फैले। शिविरों का संचालन करते हुए दो मास उपरान्त मेरे पास देखरेख में तीस हजार से भी ज्यादा लोग थे।



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