दैनिक जागरण, २४ अगस्त २०१८ |
इस सप्ताह दिवंगत हुए वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर का दिल्ली से अटूट संबंध था। 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ हुए बंटवारे का खामियाजा उनके परिवार को भी भुगतना पड़ा। नैय्यर अपनी मां से 120 रूपए लेकर स्यालकोट से दिल्ली पहुंचने वाले अपने परिवार के पहले सदस्य थे। वे दरियागंज में अपनी कुन्तो मौसी के पास पहुंचे, जिनके पति केन्द्रीय सचिवालय में हेड क्लर्क थे।
लेकिन यह बिलकुल साफ था कि 1940 के दशक के मध्य तक हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो चुकी थी कि बंटवारे जैसी कोई चीज लगभग एक अनिवार्यता बन गई थी। इतना ही नहीं वे मानते हैं कि पाकिस्तान की मांग को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित यूपी, बिहार और दिल्ली के उर्दूभाषी क्षेत्र थे-हालांकि लोगों को अच्छी तरह मालूम था कि अगर पाकिस्तान बन भी गया तो भी ये क्षेत्र उसमें शामिल नहीं हो सकेंगे। लेकिन उनकी मानसिकता को समझना इतना मुश्किल नहीं था।
नैय्यर के शब्दों वे अपने-आपको एक एक ऐसी कौम के रूप में देखते थे जो हजारों वर्षों तक हिन्दुस्तान पर राज कर चुकी थी। अंग्रेजों के जाने के बाद वे किसी ऐसी व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे जिसमें गिनती, ताकत या रूतबे के हिसाब से वे दबदबे की स्थिति में न हो। हिन्दुस्तान पर राज कर चुकने की भावना ने उनकी आंखों पर पर्दा डाल दिया था। वे यह नहीं देख पा रहे थे कि एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सत्ता की बागडोर बहुसंख्यकों के हाथ में रहना स्वाभाविक था।
उन्होंने अपनी आत्मकथा "एक जिन्दगी काफी नहीं" में इस बात का उल्लेख किया है। बकौल नैय्यर, 15 सितंबर (1947) को मैं दिल्ली पहुंचा तो शहर दंगों की चपेट में था। इसी कारण हमारी ट्रेन का रास्ता बदल दिया गया था और वह 24 घंटों तक मेरठ में रूकी रही थी। वे दिल्ली पहुंचने के तुरंत बाद सीधे बिड़ला हाउस गए थे जहां महात्मा गांधी रहा करते थे। गांधी जब भी दिल्ली में होते थे तो बिड़ला हाउस के बगीचे में प्रतिदिन एक प्रार्थना सभा को सम्बोधित किया करते थे। इन प्रार्थना सभाओं में पाकिस्तान से आए पंजाबी ज्यादा होते थे। नैय्यर ने लिखा है कि मेरी जिन्दगी पर जितना असर बंटवारे का पड़ा है उतना किसी और चीज का नहीं। बंटवारे ने मुझे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया। मुझे एक नए माहौल में नए सिरे से जिन्दगी शुरू करनी पड़ी।
40 के दशक में जामा मस्जिद के सामने कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्यालय था। इसी पार्टी के दिल्ली इकाई के सचिव मुहम्मद फारूकी उनकी पहली नौकरी का कारण बने। वैसे उससे पहले, उन्होंने "पीपुल्ज एज" नामक एक कम्युनिस्ट साप्ताहिक अखबार को सदर के एक चौराहे पर खड़ा होकर बेचने का काम भी किया।
फारसी में ग्रेज्युएट नैय्यर ने दिल्ली के एक उर्दू अखबार अंजाम में पत्रकारिता की पहली नौकरी की। उन्हीं के शब्दों में मेरे सहाफात (पत्रकारिता) का आगाज अन्जाम से हुआ। इस अखबार का मालिक मुहम्मद यासिन एक अच्छे रूतबे और पैसे वाला आदमी था।
नैय्यर के शब्दों में उनका अखबार मुस्लिम लीग और पाकिस्तान का खुलकर समर्थन करता रहा था और हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगलता रहा थां लेकिन अब बंटवारे के बाद अखबार के तेवर ढीले पड़ गए थे। उर्दू प्रेस ने नई सच्चाइयों का साथ समझौता करते हुए रातोरात अपना रूख बदल लिया था और कांग्रेस पार्टी का राग अलापना शुरू कर दिया था-हालांकि पिछले कई वर्षों से उर्दू प्रेस कांग्रेस को एक मुस्लिम विरोधी हिन्दू संस्था कहकर उसकी कड़ी भर्त्सना करती रही थी।
तत्कालीन दिल्ली में मुस्लिम समाज के मानस को रेखांकित करते हुए नैय्यर बताते हैं कि अखबार का दफ्तर बल्लीमारान नामक मुस्लिम इलाके में था, जो उजड़ा-उजड़ा सा दिखाई देता था। माहौल में एक भारीपन-सा था, जिसमें जाती हादसों की टीस बिलकुल साफ महसूस की जा सकती थी-एक ऐसे समुदाय का दर्द जिसकी हर उम्मीद मिट्टी में मिल चुकी थी।
मुसलमान ठगे हुए महसूस कर रहे थे। उन्होंने कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें बंटवारे की यह कीमत चुकानी पड़ेगी-उनके खिलाफ पूर्वाग्रहों भरा माहौल और हिन्दुओं की मांग कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। उन्हें शायद ही इस बात का अहसास था कि पाकिस्तान एक ऐसी सलीब थी जो आनेवाली कई पीढ़ियों तक उनके गले में झूलती रहेगी।
मुसलमान ठगे हुए महसूस कर रहे थे। उन्होंने कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें बंटवारे की यह कीमत चुकानी पड़ेगी-उनके खिलाफ पूर्वाग्रहों भरा माहौल और हिन्दुओं की मांग कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। उन्हें शायद ही इस बात का अहसास था कि पाकिस्तान एक ऐसी सलीब थी जो आनेवाली कई पीढ़ियों तक उनके गले में झूलती रहेगी।
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