इन्हीं सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में नई दिल्ली स्थित भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 29 जुलाई 1947 को एक परिपत्र जारी किया। गृह मंत्रालय में उपसचिव जी. वी. बेडेकर की ओर से हस्ताक्षरित इस परिपत्र का विषय "भारतीय राष्ट्रीय ध्वज-15 अगस्त 1947 समारोह" था। यह पत्र सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत सूबा और बलूचिस्तान को छोड़कर सभी प्रांतीय सरकारों और चीफ कमीशनरों को भेजा गया था। पत्र में कहा गया था कि "भारत सरकार के संविधान सभा की ओर से स्वीकृत नए राष्ट्रीय ध्वज को अपनाया है। संविधान सभा के 22 जुलाई को अपनाए गए प्रस्ताव के अनुसार, यह प्रस्ताव पारित किया जाता है कि राष्ट्रीय ध्वज क्षैतिज आकार का तिरंगा होगा, जिसमें गहरा भगवा (केसरी), सफेद और गहरा हरा रंग समान अनुपात में होंगे। ध्वज के मध्य में सफेद पट्टी होगी,जिसमें गहरे नीले रंग का एक चक्र बना होगा जो कि चरखे का प्रतीक होगा। चक्र का आकल्पन (डिजाइन) सारनाथ की अशोक लाट पर बने सिंहचतुर्मुख के समान होना चाहिए। इस चक्र का व्यास, ध्वज की पट्टी की चौड़ाई के अनुपात में होगा। सामान्य रूप से ध्वज की चौड़ाई से उसकी लंबाई का अनुपात 2ः3 होना चाहिए।"
अगर इतिहास में झांके तो पता चलता है कि संविधान सभा के इस प्रस्ताव तक पहुंचने की कहानी इतनी सीधी नहीं है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यकारी समिति की कराची में 2 अप्रैल 1931 को हुई एक बैठक में सात सदस्यों की एक समिति गठित हुई। इस समिति के गठन का उद्देश्य आज के राष्ट्रीय ध्वज को लेकर उठी आपत्तियों सहित तिरंगे झंडे के सांप्रदायिक होने के आरोप को खारिज करने की जांच करना था। साथ ही, इसे कांग्रेस की स्वीकृति के लिए एक ध्वज की सिफारिश भी करनी थी।
इस समिति के सदस्यों में सरदार वल्लभाई पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मास्टर तारा सिंह, जवाहरलाल नेहरू, डी.बी. कालेलकर, डॉ एन. एस. हार्डिकर और डॉ पट्टाभी सीतारम्मैया शामिल थे। इस समिति को आवश्यक साक्ष्य एकत्र करने और 31 जुलाई 1931 से पहले कांग्रेस कार्य समिति को उसकी रिपोर्ट देने के लिए अधिकृत किया गया।
डॉ पट्टाभि सीतारमैया ने 4 अप्रैल 1931 को मछलीपट्टनम से समिति की ओर से विभिन्न प्रांतीय कांग्रेस समितियों और जन साधारण को अखबारों के माध्यम से एक प्रश्नावली वितरित की। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय ध्वज के आकल्पन (डिजाइन) को लेकर प्रांतों में रहने वाले विभिन्न समुदायों की विचारों को जानना और इस विषय में उनके सुझावों को आमंत्रित करना था। इस प्रश्नावली के उत्तर में, कांग्रेस की आठ प्रांतीय समितियों, पचास व्यक्तियों और केंद्रीय सिख लीग की कार्यकारी समिति ने अपने ज्ञापन भेजे। मुंबई में 7 जुलाई को हुई ध्वज समिति की बैठक में सरदार पटेल की उपस्थिति महत्वपूर्ण थी। ध्वज के संबंध में मूल रूप से यह माना गया था कि लाल और हरे रंग क्रमशः हिंदुओं और मुसलमानों तथा सफेद रंग अन्य समुदायों का प्रतीक है।
इस आशय पर आपत्ति जताते हुए सिखों का एक प्रतिनिधिमंडल दिसंबर 1929 में गांधी से मिला था। उसकी मांग थी कि ध्वज में उनके लिए एक रंग शामिल किया हो अथवा एक गैर-सांप्रदायिक ध्वज तैयार हो। जबकि समिति का मानना था कि वैसे तो ध्वज के इन रंगों के लिए विभिन्न व्याख्याएं दी गई हैं पर जनसाधारण के मन की भावनाएं मौजूदा ध्वज के लिए असहयोग आंदोलन, नागपुर में कांग्रेस के झंडा आंदोलन और 1930-31 के अहिंसक आंदोलन के कारण जुड़ गई हैं, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
राष्ट्रीय ध्वज के रंगों और रचना (डिजाइन) के प्रश्नों पर एक सर्वसम्मति थी। इस बात को लेकर एकमत था कि राष्ट्रीय ध्वज में उसकी रचना के मूल रंग से अलग एक ही रंग का होना चाहिए। भारतीयों की प्राचीन परंपरा के अनुरूप अगर कोई एक रंग पूरी तरह से स्वीकार्य हो सकता है तो वह केसरी रंग है। इसलिए यह माना जा सकता है कि ध्वज केसरी रंग का होना चाहिए और उसमें रचना के अनुरूप नीले रंग का चरखा का होना चाहिए। यह समिति, राष्ट्रीय ध्वज के लिए केसरी या केसरिया रंग की सिफारिश करती है, जिसमें शीर्ष पर बाएं ओर नीला चरखा और ध्वज दंड की तरह चक्र।
प्रांतीय समितियों और अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्यों की राय को ध्यान में रखते हुए समिति ने केसरिया रंग के शीर्ष पर कोने में चरखा के चिन्ह वाले राष्ट्रीय ध्वज की अपनी सिफारिश को कार्यकारी समिति को सौंप दिया। लेकिन कार्यकारी समिति को यह अस्वीकार्य था और जो कि चर्चा के बाद अपने निष्कर्ष पर पहुंची। इस निष्कर्ष को अगस्त 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के समक्ष रखा गया, जहां गहन चर्चा के बाद तिरंगे को गहरे नीले रंग के साथ स्वीकार किया गया। साहस और बलिदान के लिए भगवा, सत्य और शांति के लिए सफेद और वफादारी और बहादुरी के लिए हरे रंग की सिफारिश की गई। इस तरह, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने एक प्रस्ताव के माध्यम से राष्ट्रीय ध्वज को आधिकारिक मान्यता प्रदान की।
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