Saturday, August 24, 2019

First Public works in Delhi by Britishers_दिल्ली में पहले अंग्रेजी सार्वजनिक निर्माण कार्य का इतिहास

24082019, दैनिक जागरण 








अंग्रेजों की दिल्ली में दो कालखंड ऐसे थे जब यहां सर्वाधिक सार्वजनिक निर्माण कार्य हुए। इनमें पहला दौर 1860-80 तक और फिर दूसरा 1912 के बाद कलकत्ता से दिल्ली में अस्थायी तथा शाही राजधानी के बनने-बसने का दौर था। पहले दौर में, अंग्रेजी सैन्य आवश्यकताओं के साथ व्यावसायिक और नागरिक प्रशासन की जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से सार्वजनिक निर्माण कार्य हुए। 


दिल्ली में रेलवे पटरी शहर के बाहर से बिछाने की बजाय भीतर से बिछाई गई। ऐसा करने में अंग्रेजों के मन में 1857 में भारतीयों के आजादी की पहली लड़ाई की बात ध्यान में थी। अंग्रेजों के दिमाग में दोबारा ऐसी परिस्थिति के पैदा होने पर अपनी सुरक्षा की बात सर्वोपरि थी। सलीमगढ़ और लाल किला में अंग्रेज सेना की उपस्थिति के बाद सैनिक दृष्टि से रेल पटरी के शहर को इन दो किलों में बांटने की बात अधिक लाभदायक थी। जबकि अंग्रेज़ों ने रेल को लेकर तैयार मूल योजना में रेलवे के यमुना नदी के पूर्वी किनारे पर बसे गाजियाबाद तक ही आने की बात सोची थी।
1860 में फोर्ट विलियम (कलकत्ता स्थित किला, जहां से पूरे भारत में अंग्रेजी राज चलता था) ने दिल्ली की हिंदू आबादी को नई सड़कों के बनने से होने वाली परेशानी से अपनी हमदर्दी जताई। इसका कारण यह था कि ये सड़कें शहर की सबसे अधिक आबादी वाले हिस्सों में बनाई गई थी। वह बात अलग है कि हिंदुओं के कष्ट को दूर करने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया। भारत में अंग्रेज सरकार और प्रांतीय सरकार के विभागों के रेलवे लाइन के साथ में 100 फीट चौड़ी क्वींस रोड और हैमिल्टन रोड के बनने से सैकडों लोग विस्थापित हुए।

दिल्ली में रेलवे स्टेशन (आज का पुराना दिल्ली स्टेशन) के बनने के बाद टाउन हाल बना। यह विक्टोरिया दौर की अंग्रेज़ों के नागरिक निर्माण की सोच का स्वाभाविक परिणाम था। टाउन हाल का कुल क्षेत्रफल तत्कालीन नगर पालिका के कार्यालय से दोगुना था। उस इमारत में बाद में, चैम्बर ऑफ़ कामर्स, एक लिटरेरी सोसाइटी और एक संग्रहालय का भी प्रावधान किया गया। अंग्रेज़ों की इन सारी कोशिशों के मूल में स्थानीय व्यक्तियों की सोच को विकसित करना था, जिससे देसी नागरिकों और यूरोपीयों लोगों के बीच आदान प्रदान को बढ़ावा मिल सकें। तत्कालीन अंग्रेज कमीश्नर कूपर टाउन हाल के भीतर कोतवाली बनवाना चाहता था, जिससे पंजाब के न्यायिक आयुक्त ने अस्वीकृत कर दिया। दिल्ली की जनता ने अस्वीकृति के इस निर्णय का तहेदिल से स्वागत किया।
टाउन हाल की योजना आजादी की पहली लड़ाई से पहले बनी और 1860-5 की अवधि में इसका निर्माण हुआ। इसे पहले लारेंस इंस्टिट्यूट का नाम दिया गया और इसके निर्माण में प्रांतीय सरकार के अलावा अंग्रेजों के वफादार हिंदू-मुस्लिम व्यक्तियों से दान में मिले पैसों का उपयोग हुआ। जब यह इमारत बन कर तैयार हो गई तो अंग्रेजों के वफादार इसे नगरपालिका के इस्तेमाल के लिए लेना चाहते थे।

इन वफादारों ने अपनी मांग को बतौर "दिल्ली के लोग" के रूपक के हिसाब से पेश किया। वर्ष 1866 में नगरपालिका ने विशेष प्रयास करते हुए 135457 रूपए में यह इमारत खरीद ली। एक लाइब्रेरी और एक यूरोपीय क्लब की अलग से व्यवस्था रखी गई।

तत्कालीन अखबार "मुफसिल" ने इस घटना के बारे में लिखा, भारतीयों और यूरोपीय नागरिकों में यह भावना है कि सरकार को कुल दो लाख रूपए की लागत में से शिक्षा विभाग के दस हजार रूपए लौटाकर इस इमारत से उनका बोरिया बिस्तर बांध देना चाहिए। भारतीय नागरिकों की भावना न केवल इमारत से जुड़ी है बल्कि वे यहां पर लगाने के हिसाब से दिल्ली के इतिहास में हुए नामचीन व्यक्तियों के आदमकद चित्रों को भी जुटा रहे हैं।




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