Saturday, October 19, 2019

Age old Indo_Soviet relationship_समय की धारा पर भारत-सोवियत संबंध

दैनिक जागरण, 19102019








यह एक कम जाना तथ्य है कि हिंदुस्तान ने आजादी मिलने के पहले ही सोवियत संघ के साथ राजनयिक संबंध कायम कर लिए थे। जबकि पहला सोवियत राजनयिक स्वतंत्र भारत में ही दिल्ली पहुंचा था। 13 अप्रैल 1947 को दोनों देशों के मध्य राजनियक संबंध स्थापित हुए थे। जबकि  नंवबर 1947 में दिल्ली पहुंचने वाले पहले सोवियत राजनयिक पावेल येर्जिन (1919-1992) थे। ऐसे मेंयर्जिन के सामने सबसे बड़ी चुनौती तत्कालीन भारत सरकार की सहायता से सोवियत दूतावास के लिए एक उपयुक्त स्थान की तलाश था। यर्जिन के दिल्ली पहुंचने के अगले दिन ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें मिलने के लिए आमंत्रित किया। इस बैठक में नेहरू ने सोवियत राजनयिक को बताया कि भारत सरकार ने सोवियत संघ के दूतावास के लिए त्रावणकोर हाउस का चयन किया।


उसके शीघ्र बाद ही किरील नोविकोव (1905-1983) को भारत में सोवियत राजदूत नियुक्त किया गया। इससे पहलेवर्ष 1939 में नोविकोव को सोवियत विदेश मंत्रालय में नियुक्त थे। वे लंदन स्थित सोवियत दूतावास में डीसीएम बने। जबकि वर्ष 1945 में हुए प्रसिद्ध याल्टा सम्मेलन के वे मुख्य आयोजक थे। लिवाडिया पैलेस (क्रीमिया) में इस आयोजन को समर्पित संग्रहालय में उनकी राजनयिक पोषाक प्रदर्शित है।

दिसंबर 1947 में दिल्ली पहुंचे नोविकोव को यह जानकर बेहद खुशी हुई कि त्रावणकोर हाउस सरीखी शानदार इमारत सोवियत दूतावास होगी। वर्ष 1953 तक नोविकोव भारत में तैनात रहे। वर्ष 1960 में सोवियत संघ दूतावास त्रावणकोर हाउस से स्थानांतरित होकर चाणक्यपुरी में एक नई इमारत में पहुंच गया। जबकि 1960-1964 यानि चार साल की अवधि में त्रावणकोर हाउस में सोवियत सेंटर फॉर साइंस एंड कल्चर बना रहा।

सितंबर 1946 को एक रेडियो प्रसारण में अंतरिम सरकार के उपाध्यक्ष के रूप में नेहरू ने सोवियत नागरिकों को भारत की शुभकामनाएं देते हुए इस बात की घोषणा कि वे एशिया में हमारे पड़ोसी हैं और अनिवार्य रूप से हमें मिलकर अनेक साझा कार्यों का बीड़ा उठाना होगा और एक दूसरे के साथ मिलकर बहुत कुछ करना होगा। सोवियत नेताओं ने भी ऐसी भावनाओं के साथ पूरी तरह अपनी सम्मति जताई। इसका ही परिणाम था कि 13 अप्रैल 1947 को दोनों देशों ने राजनयिक संबंध स्थापित करने के निर्णय की घोषणा की। तब अंग्रेजों से भारतीय नेतृत्व के हाथों में सत्ता हस्तांतरण की वार्ता को लेकर अपनी आशंकाओं के बावजूद सोवियत संघ ने स्वतंत्रता पूर्व भारत के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने का फैसला लिया। एक तरह सेयह भारत में सोवियत संघ की गहरी रूचि का प्रतीक था। जो कि दोनों देशों के भविश्य के द्विपक्षीय संबंधों के विकास के लिए एक शुभंकर साबित हुआ।

15 अगस्त, 1947 को भारत की आजादी के बाद कुछ समय के लिएभारत-सोवियत संबंधों में वह पहले वाली गर्मजोशी नहीं रही। यहां तक कि दोनों देशों में कुछ दूरियां भी बढ़ी। फिर भी उस समय संयुक्त राष्ट्र में भारत और सोवियत संघ उपनिवेशवाद और नस्लवाद के मुद्दों पर एकमत और साथ थे। उदाहरण के लिएसोवियत संघ ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के लोगों की दुर्दशा और इंडोनेशियाई निवासियों के स्वतंत्रता संघर्ष की ओर ध्यान आकर्षित करने के भारत की कोशिशों का पुरजोर समर्थन किया। उसके शीघ्र बाद भारत की पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता और कोरियाई युद्ध की समाप्ति के लिए निरंतर प्रयासों ने सोवियत नेताओं को इस बात का भरोसा हुआ कि भारत पश्चिमी शक्तियों के दबावों को दरकिनार करते हुए वैश्विक मामलों में एक स्वतंत्र मार्ग का पक्षधर है। इससे भारत-सोवियत संबंधों में प्रगाढ़ता बढ़ी।

सोवियत संघ ने अब कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा में सक्रिय रुचि लेना शुरू किया और पूरी मजबूती से भारतीय पक्ष के समर्थन में खड़ा रहा। वर्ष 1952 में सुरक्षा परिषद में सोवियत प्रतिनिधि के भाषणों से यह बात साबित होती है। दिसंबर 1953 में पहले भारत-सोवियत व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह दोनों देशों के बीच व्यापार के विस्तार की एक महत्वाकांक्षीपंचवर्षीय योजना पर आधारित था। जिससे भारत को कुछ ऐसे फायदे थे जो कि आमतौर पर पश्चिमी देशों के साथ होने वाले समान व्यापारिक समझौतों में नहीं होते थे। जैसेदोनों देशों के बीच भारतीय रुपए में व्यापार होने की बात थी। इतना ही नहींआपसी व्यापार को बढ़ाने के अलावा भुगतान संतुलन को भी बनाए रखने के प्रयास किए गए। इस दौरानपरस्पर सांस्कृतिक संपर्क के बढ़ने का परिणाम दोनों देशों में विविध क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों की आपसी यात्राओं के रूप में सामने आया। 



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