Saturday, October 26, 2019

Story of Yaksh_Yakshini murals at RBI Delhi_रिज़र्व बैंक की लक्ष्मी के रखवाले यक्ष-यक्षिणी

दैनिक जागरण, 26/10/2019



अंग्रेजों से मिली आजादी के बाद देश में बनी पहली भारतीय सरकार ने राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक संस्थानों के गठन के लिए भवनों के निर्माण की योजना बनाई।


तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भव्य और विशाल आकार वाले सार्वजनिक संस्थानों के भवनों को बनाने की योजना में वास्तुशिल्पियोंचित्रकारों और मूर्तिकारों को जोड़ने का सुझाव दिया। इस सुझाव के मूल में नवस्वतंत्र राष्ट्र के सार्वजनिक संस्थानों के भवनों के निर्माण में भारतीय कलाकारों की प्रतिभा का किसी न किसी रूप में उपयोग करने की भावना थी। नेहरू का विचार था कि इन सार्वजनिक संस्थानों के भवनों के निर्माण में आने वाली कुल लागत की तुलना में कला के काम पर अधिक खर्चा नहीं होगा। इससे भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहन मिलेगा और जनता ऐसे काम का स्वागत करेगी।


प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को व्यवहार रूप में लागू करने के लिए केंद्रीय वित्त सचिव श्री के.जी. अंबगांवकर ने तत्कालीन गर्वनर बी. रामा राव को इस विषय पर एक नोट भेजा। यह उस समय की बात है, जब भारतीय रिजर्व बैंक नई दिल्ली, मद्रास और नागपुर जैसे स्थानों में नए भवनों के निर्माण को लेकर सोच-विचार कर रहा था। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस प्रस्ताव की जांच और सुझाव देने के लिए एक समिति गठित की। इस समिति के सदस्यों में बंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट के डीन श्री जे.डी. गोंदेलकर, मैसर्स मास्टर, साठे और भूटा कंपनी के श्री जी.एम. भूटा और रिजर्व बैंक के सहायक मुख्य लेखाकार श्री आर.डी. पुलस्कर थे। 


समिति ने नई दिल्ली स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर प्रतिमाएं लगाने की सिफारिश की। इनमें से एक को उद्योग और दूसरी को कृषि से समृद्धि प्राप्त करने के प्रतीक विचार के रूप में लिया गया। तब भारतीय रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड के तत्कालिक निदेशक जे.आर.डी. टाटा के आग्रह पर प्रख्यात आलोचक और कला के पारखी कार्ल खंडालवाला की इस विषय पर सम्मति पूछी गई। उन्होंने ही भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य द्वार के दो तरफ यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाओं को स्थापित करने के विचार का सुझाव दिया था। खंडालवाला की सलाह पर ही रिजर्व बैंक के नई दिल्ली कार्यालय के सामने के अहाते में अलंकरण के कार्य के लिए नौ कलाकारों से निविदाएं आमंत्रित की गई। अलंकरण के कार्य के लिए कुल आमंत्रित नौ कलाकारों में से पाँच ने अपने प्रस्ताव प्रस्तुत किए और उनमें से भी केवल ने एक ही प्रतिमाओं के निर्माण के लिए उपयुक्त मॉडल और रेखाचित्र दिए। 


इस तरह, राम किंकर बैज का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। बैज ने पुरुष यक्ष की कला का प्रतिरूप मथुरा संग्रहालय में परखम यक्ष की प्रतिमा से और महिला यक्षिणी की कला का प्रतिरूप कलकत्ता संग्रहालय में बेसनगर यक्षिणी के आधार पर तैयार किया। श्री खंडालवाला की मान्यता थी कि ये विशाल प्रतिमाएं, नई दिल्ली स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के कार्यालय की स्थापत्य विशेषताओं के साथ बेहद अच्छी लगेगी। एक ओर जहां, किसान-मजदूर की खुशहाली के विषय को नेहरू की वैज्ञानिक सोच से लिया गया तो वहीं दूसरी तरफ यक्ष और यक्षिणी के रूप में उसकी अभिव्यक्ति पारंपरिक दृष्टि रखने वालों की संवेदनाओं को पुष्ट करती थी। 


हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यक्ष अर्ध देवयोनि के एक वर्ग में आते हैं और वे धन के देवता कुबेर के सेवक माने जाते हैं। यक्षों का काम कुबेर के उद्यानों और खजाने की रक्षा करना है। यक्षिणी एक महिला यक्ष है। भारतीय रिजर्व बैंक को नोट जारी करने का एकमेव अधिकार होने और केंद्र तथा राज्य सरकार के बैंक होने के नाते, इसकी तुलना धन के देवता कुबेर के साथ की सकती है। एक तरह से, यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाएं बैंक के खजाने की रक्षा का दायित्व संभाल रही है। 


आधुनिक संदर्भ मेंइन प्रतिमाओं की रूपवादी व्याख्याओं के अनुसार, ये दोनों प्रतिमाएं उद्योग और कृषि का प्रतीक रूप भी मानी जा सकती है। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि स्वतंत्रता के एकदम बाद देश का केंद्रीय बैंक होने के नाते रिजर्व बैंक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप इन क्षेत्रों के विकास को लेकर अत्यंत चिंतित था। इन प्रतिमाओं के निर्माण में लगे एक लंबे कालखंड ने बैंक अधिकारियों के धैर्य की परीक्षा ली। यह लंबा इंतजार, प्रसिद्ध शिल्प-कलाकार राम किंकर के उपयुक्त गुणवत्ता वाले पत्थर को चयनित करने में लिए अपार समय लेने के कारण हुआ। किंकर को इतना समय, सही पत्थर के लिए विभिन्न स्थानों की खोज, पत्थर की गुणवत्ता, पत्थर के उत्खनन में आई समस्याओं और पत्थर को ढोकर दिल्ली लाने के लिए परिवहन की व्यवस्था करने में लगा। 


इस काम में हुई खासी-लेटलतीफी के कारण कई बार तो रिजर्व बैंक को यह बात महसूस हुई कि रामकिंकर भले ही उत्कृष्ट कलाकार होने की योग्यता रखते हो पर शायद उनके पास प्रतिमाओं को बनाने का उद्यम करने का प्रबंधकीय कौशल नहीं है। जब दिसंबर 1966 के आसपास प्रतिमाएं गढ़कर पॉलिश के लिए तैयार हुई तो स्वीकृत लागत की अनुमानित मूल राशि में खासा संशोधन करना पड़ा।

पर किस्सा यही खत्म नहीं हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि आखिरकार जब प्रतिमाएं को स्थापित किया गया तब करीब दस साल से ज्यादा का समय बीत चुका था। जब इन प्रतिमाओं को बनाने का आदेश दिया गया था, तब से लेकर अब तक समय, स्थिति और समाज सभी में काफी परिवर्तन आ चुका था। केवल इतना ही नहीं, देश के नेतृत्व और जनमानस दोनों का दृष्टिकोण काफी बदल चुका था। 


जब नई दिल्ली के संसद मार्ग पर रिजर्व बैंक के कार्यालय में प्रतिमाओं को स्थापित किया गया तो नागरिकों के एक वर्ग की पाखंडी संवेदनशीलता को ठेस लगी। इस वर्ग की उत्तेजना का वास्तविक कारण, अपने प्राकृतिक सौंदर्य के रूप में दर्शायी गई यक्षिणी की प्रतिमा थी। उस समय सांसद प्रोफेसर सत्यव्रत सिद्वांतालंकार ने इन प्रतिमाओं के विषय को राज्यसभा में उठाया था। उन्होंने आवास और आपूर्ति मंत्री से यह सवाल पूछा कि संसद मार्ग स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के सामने एक नग्न स्त्री की प्रतिमा स्थापित करने का क्या उद्देश्य है, जबकि वास्तविकता में नग्न स्त्री की प्रतिमा अनिवार्य रूप से एक रूपक व्याख्या थी जो कि कृषि-समृद्वि का प्रतिनिधित्व करती थी। यह बात समझने-समझाने के लिए पर्याप्त थी पर तिस पर भी पूरक प्रश्न पूछे गए। इन प्रश्ननों में प्रतिमाओं के निर्माण की लागत के खर्च का ब्यौरा और इस कला की सिफारिश करने वाली समिति के सवाल थे। संसद के उच्च सदन में बेचैनी का कारण तो यक्षिणी की मूर्ति थी पर तब के लोकप्रिय साप्ताहिक अखबार ब्लिट्ज, जिसका न पाखंडी दृष्टिकोण था और न कला के बारे में अनजान, ने विशेष रूप से प्रतिमाओं को लेकर प्रकाशित समाचार को एक अलग ही कोण दे दिया। ब्लिट्ज ने यक्ष को एक उद्योगपति सदोबा पाटिल के समान बताते हुए यक्ष पाटिल शीर्षक वाले एक समाचार के साथ प्रतिमा की एक तस्वीर छापी। वह बात अलग थी कि राम किंकर के एक आधुनिक यक्ष, जो कि अब रिजर्व बैंक का रक्षक है, की संयोग से तब देश के बड़े व्यवसायियों में से एक सदोबा पाटिल से अद्भुत समानता थी।



ब्लिट्ज के प्रकाशित लेख को ध्यान में रखते हुए देखते हुए यह बात महसूस की गई कि प्रतिमाओं के कारण उपजी गलतफहमियों को रिजर्व बैंक की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कला-कार्य पर सफाई देनी चाहिए। फिर विज्ञप्ति को जारी करने से एक बार फिर विवादों को हवा मिलने की भी आषंका जताई गई। फिर अंत में रिजर्व बैंक में इस विषय पर चुप्पी ही साधने की बात पर सहमति बनी। पचास के दशक में, जब नेहरू ने देश में कला को प्रोत्साहन देने के विचार की कल्पना की थी, वह आशावादिता का एक युग था। जबकि तुलनात्मक रूप से, साठ के दशक में एक तरह से कला का विचार पृष्ठभूमि में चला गया था। इस तरह, दोनों कालखंडों में विचार के स्तर पर काफी अंतर आ गया था। रिजर्व बैंक के गर्वनर पी.सी. भट्टाचार्य ने समय की गति को पहचानते हुए टिप्पणी की थी कि मुश्किल समय में चुप रहना ही बेहतर होता है। आज के हिसाब से पैसे को खर्च करने का निर्णय और परियोजना के देरी से पूरा होने की बात को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे मेंएक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से रिजर्व बैंक के प्रांगण में लगाई गई प्रतिमाओं के प्रतीकात्मक महत्व को समझाने की बात व्यर्थ ही होगी। हम संसद में पूछे जाने वाले किसी भी सवाल का सीधा या तदर्थ आधार पर जवाब दे सकते हैं। इस तरह, एक अच्छा विचार और कार्य मात्र देरी की वजह से शंका और संदेह का शिकार हुआ।


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