Tuesday, June 16, 2020

History of Western Medical Research in India_भारत में पश्चिमी मेडिकल अनुसंधान का इतिहास

















आज देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के संक्रमण का सामना करने के लिए दवा बनाने की पुरजोर कोशिश हो रही है । ऐसे में भारत में पश्चिमी मेडिकल अनुसंधान (रिसर्च) के इतिहास को जानना रोचक होगा।
उल्लेखनीय है कि अठारहवीं सदी के भारत में अंग्रेजों के आगमन के साथ पश्चिम का विज्ञान भी पहुंचा। वर्ष 1784 में विलियम जोन्स ने वैज्ञानिक अनुसंधान में अपनी रुचि के अनुरूप कलकत्ता में "एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल" की स्थापना की। एशियाटिक सोसाइटी ने तब के हिन्दुस्तान में वैज्ञानिक गतिविधियों के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई।
सोसाइटी ने वर्ष 1788 में पहली बार "एशियाटिक रिसर्च" का प्रकाशन किया। एशियाटिक रिसर्च भारत में अपनी तरह का पहला प्रकाशन था, जिसका नाम वर्ष 1832 में बदलकर "जर्नल ऑफ़ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल" कर दिया गया। इसी वर्ष, कलकत्ता में "द मेडिकल एंड फिजिकल सोसाइटी ऑफ़ कलकत्ता" बनी। इस सोसाइटी की कार्यवाही का प्रकाशन ही भारत की पहली "पेशेवर चिकित्सा पत्रिका" के रूप में सामने आया।
जबकि वर्ष 1835 में मद्रास और कलकत्ता में तथा वर्ष 1845 में बंबई में मेडिकल कॉलेज शुरू हुए। 1857 के पहली आज़ादी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के भंग होने और और भारत में अंग्रेज सरकार की स्थापना का परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1869 में चिकित्सा अनुसंधान (मेडिकल रिसर्च) को एक संगठित स्वरूप दिया गया। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रेसीडेंसी व्यवस्था के समाप्त होने के साथ इन तीनों चिकित्सा विभागों को मिलाकर, वर्ष 1896 में एक अखिल भारतीय चिकित्सा सेवा (इंडियन मेडिकल सर्विस) गठिन की गई।
इस प्रकार, चिकित्सा अनुसंधान क्षेत्र में अनेक कदम उठाएं गए और वर्ष 1911 में भारतीय अनुसंधान कोष संघ (इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन) सहित अनेक उच्चस्तरीय प्रयोगशालाएँ बनाई गई। वर्ष 1914 में सर आशुतोष मुखर्जी ने पहले अध्यक्ष के रूप में कलकत्ता में हुई भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्धघाटन किया। वर्ष 1916 में कलकत्ता में भारतीय प्राणी सर्वेक्षण स्थापित किया गया। वर्ष 1917 में जगदीश चंद्र बोस ने कोलकाता में जैव-शोध क्षेत्र में अग्रणी और प्रसिद्ध बोस संस्थान बनाया। वर्ष 1932 में कोलकाता में अखिल भारतीय स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान (आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हाइजिन एंड पब्लिक हेल्थ) की स्थापना हुई। आज यह जन स्वास्थ्य और सम्बद्ध विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में एक अग्रणी संस्थान है।
दुनिया में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में होने वाले रोगों के निदान के लिए 19 वीं सदी के अंतिम 20 वर्षों में दवाई पर काम आरंभ हुआ। इसी क्रम में, वर्ष 1880 में चार्ल्स लेवरन ने मलेरिया का परजीवी, वर्ष 1884-85 में कोच ने भारत और मिस्र दोनों देशों में हैजे के विब्रियो को,1877-80 में वांडेक कार्टर ने बार-बार होने वाले सर्पिलम बुखार के कारण की खोज की।
वर्ष 1897 में, इंडियन मेडिकल सर्विस के रोनाल्ड रॉस ने मानसन के ईलाज के तरीके पर काम करते हुए मलेरिया के फैलाव में एनोफिलीज मच्छरों की भूमिका को दर्शाने और उसकी भूमिका को स्थापित करने में सफल रहे। इससे भारत में चिकित्सा अनुसंधान में नए आयाम खुले, जिससे कई उत्साही लोग इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए और उष्णकटिबंधीय रोगों से संबंधित चिकित्सा के अनुसंधान में गति आई।
वर्ष 1859 में बने रॉयल कमीशन ने वर्ष 1863 में सौंपी रिपोर्ट में मद्रास, बम्बई और बंगाल में सार्वजनिक स्वास्थ्य आयोग (पब्लिक हैल्थ कमीशन) बनाने की सिफारिश की। शीघ्र ही इन आयोगों के स्थान पर बदल करते हुए हर प्रेसीडेन्सी में एक स्वच्छता आयुक्त (सैनिटरी कमिशनर) के साथ एक सहायक नियुक्त कर दिया गया। ब्रिटिश भारत के दूसरे सूबों में सेनेटरी इंस्पेक्टर-जनरल, जिन्हें बाद में सैनिटरी कमिशनर कहा जाता था, नियुक्त किए गए और सफाई तथा और टीकाकरण के काम से जुड़े कर्मचारियों को धीरे-धीरे उनके साथ समाहित कर दिया गया।
वर्ष 1888 में, लॉर्ड डफरिन के समय में अंग्रेज सरकार ने स्वच्छता के मामले को लेकर स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों को उनके कर्तव्यों का स्मरण करवाते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। इसके साथ ही, हर सूबे में सैनिटरी बोर्ड गठित किए गए।
वर्ष 1910 में भारत सरकार में गृह विभाग को शिक्षा, सफाई सहित प्रशासन के कुछ दूसरे विभागों के कामकाज से राहत देने के लिहाज से एक नया विभाग बनाया गया। इसके अलावा, स्थानीय निकायों ने सार्वजनिक स्वच्छता को लेकर सम्मेलन आयोजित किए और बम्बई, मद्रास और लखनऊ में तीन अखिल भारतीय सफाई सम्मलेन हुए। इन तीनों शहरों में सर हरकोर्ट बटलर ने गवर्नर जनरल की काउंसिल के सदस्य और संबंधित विभाग के प्रभारी के रूप में सम्मलेनों की अध्यक्षता की।
प्लेग कमीशन की रिपोर्ट (1898-99) के परिणामस्वरूप भारत में लॉर्ड कर्जन के समय अंग्रेज सरकार ने स्वच्छता विभाग के पुनर्गठन का कदम उठाया। उस समय अनेक अनुसंधान संस्थान शुरू किए गए और भारत सरकार में सेनेटरी कमीश्नर के पद का सृजन और नियुक्ति हुई। इस अधिकारी का कार्य सैनिटरी और जीवाणु संबंधी विषयों पर भारत सरकार को सलाह देना, स्थानीय निकायों के साथ इन विषयों को लेकर भविष्य की योजनाओं की तैयारी और क्रियान्वयन और देश भर में स्वच्छता को लेकर अनुसंधान को सुनिश्चित करना था। जबकि जीवाणु विभाग और अनुसंधान के लिए आवश्यक मानव संसाधन से लेकर प्रशासन तक के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार इंडियन मेडिकल सर्विसेज के महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) को दिया गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि सेनेटरी कमिश्नर को उसके स्टाॅफ अफसर के रूप में रखा गया।
भारत सरकार की नीति शोध को अपने नियंत्रण में रखने पर स्वच्छता से जुड़ी दूसरी शाखाओं के विकेंद्रीकरण की थी। भारत सरकार का सेनेटरी कमिशनर पूरे देश का भ्रमण करने वाला एक ऐसा अधिकारी था, जिसे स्थानीय निकायों के साथ अनौपचारिक रूप से परामर्श करने और सलाह देने का अधिकार था। देश के हर सूबे में स्वच्छता बोर्ड बनाए गए।
देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य की समस्याएं जटिल थीं। यह बात इस तथ्य से साबित होती है कि कीड़ों के काटने से रोग का प्रसार एक महत्वपूर्ण कारक था। इसी कारण से सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के विकास की दिशा में शुरुआत की गई। भारत सरकार का सेनेटरी कमिशनर देश भर में स्वच्छता और टीकाकरण से जुड़े कार्यों और इन कार्यों के महत्वपूर्ण आँकड़ों की निगरानी करता था। जन स्वास्थ्य आयुक्त (पब्लिक हेल्थ कमिशनर) और सांख्यिकीय अधिकारी सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामलों के लिए जिम्मेदार थे। जबकि भारत सरकार के कर्मचारी देश की जनता के स्वास्थ्य मामलों से संबंधित सर्वेक्षण, योजना, समन्वय, आयोजना और नियमन के कार्य के लिए जिम्मेदार थे।
माना जाता है कि योजनाबद्ध ढंग से चिकित्सा अनुसंधान के प्रयास वर्ष 1894 से ही आरंभ हो गए थे, जब इंडियन मेडिकल कांग्रेस ने अंग्रेज सरकार को शोध संस्थानों की स्थापना और व्यवस्था करने का आग्रह किया था। भारत सरकार के इन प्रस्तावों पर विचार करने और देश में कुछ महामारियों की घटनाओं के कारण केंद्रीय और प्रांतीय स्तर पर प्रयोगशालाओं की स्थापना के कुछ प्रस्ताव तैयार हुए। जिनमें से कुछ प्रस्तावों के फलीभूत होने के कारण अनेक प्रयोगशालाएं स्थापित हुई। आज भी इन प्रयोगशालाओं में से कुछ का अस्तित्व बना हुआ है जो कि एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संस्थान के रूप में चिकित्सा अनुसंधान क्षेत्र में कार्यरत हैं।
वर्ष 1893 में आंत्र ज्वर (आंतों के बुखार) और हैजा के प्रकोपों की जड़ तक पहुंचने और उनके उपयुक्त इलाज के लिए आगरा में पी. एच. हॅनकिन के नेतृत्व में बैक्टेरियोलॉजिकल लेबोरेटरी की स्थापना की गई।
वर्ष 1896 में, बम्बई में प्लेग की आमद हुई और आश्चर्यजनक रूप से यह पूरे देश में व्यापक रूप से फैल गया। ऐसा दावा किया जाता है कि इस पर सर पेर्डे लुकिस ने कहा था कि प्लेग ने भारत में चिकित्सा अनुसंधान की दिशा में वैसी ही भूमिका निभाई जैसे करीब 60 साल पहले हैजे ने इंग्लैंड में स्वच्छता के मामले में निभाई थी।
वर्ष 1897 के आरंभ में, एक अंग्रेज अधिकारी हेफकाइन, जिन्हें प्लेग की समस्या पर काम करने की जिम्मेदारी दी गई थी, ने एक रोगनिरोधी टीका विकसित किया। इस टीके का पहले बार बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया और कुछ संशोधनों के साथ आज भी प्लेग की रोकथाम के लिए यह एक प्रभावी उपाय बना हुआ है। 
सिकंदराबाद में कार्यरत सर्जन-मेजर रोनाल्ड रॉस ने वर्ष 1897 में एक ऐतिहासिक खोज की। जिससे यह र्निविवाद रूप से यह बात साबित हुई कि मच्छर ही मलेरिया के वाहक हैं।
बंबई में अचानक प्लेग के होने और वहां से दूसरे क्षेत्रों में फैलने के कारण डब्ल्यू एम हाफकीन को इस समस्या के निदान की जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद ब्रिटेन, भारत, जर्मनी और रूस ने भारत में प्लेग की महामारी की जांच के लिए अनेक प्लेग कमीशनों की स्थापना की गई। पहले भारतीय प्लेग आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों में एक अनुशंसा, प्लेग की जांच करने के लिए उपयुक्त विशेषज्ञों से युक्त प्रयोगशालाओं की स्थापना और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं की रोकथाम के साधनों की व्यवस्था करना था।
वर्ष 1900 में कसौली में पहला पाश्चर इंस्टीट्यूट स्थापित किया गया। उसके तीन साल बाद, चेन्नई स्थित गुइंडी में बछड़े के लिम्फ की दवा बनाने और जीवाणु विज्ञान से जुड़े सामान्य कार्यों के लिए "किंग इंस्टीट्यूट" बनाया गया।
वर्ष 1903 में, डोनोवन ने मद्रास में कालाजार के पीड़ितों के मामले में एक परजीवी तिल्ली की उपस्थिति को साबित किया। अब इस परजीवी तिल्ली को डोनोवन के नाम पर लीशमैनिया डोनवानी के रूप में जाना जाता है। वर्ष 1904 में, रोजर्स ने जीवाणुओं की वृद्धि से यह साबित किया कि यह परजीवी एक पीड़ादायक फ्लैजिलेट था। इन सब एक के बाद एक हुई खोजों ने देश में चिकित्सा सेवाओं के दूसरे सदस्यों को भी अनुसंधान कार्य से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
भारत सरकार के बनाए चिकित्सा अनुसंधान विभाग में प्रमुख प्रयोगशालाओं और पास्चर संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों के अलावा विशेष रूप से चयनित अतिरिक्त अधिकारी शामिल थे। ये अधिकारी पूरे समय के अनुसंधान कार्य के लिए उपलब्ध थे जो कि प्रयोगशालाओं से जुड़े हुए थे या क्षेत्र में जांच कार्यों में लगे हुए थे। वर्ष 1906 में कसौली में केंद्रीय अनुसंधान संस्थान स्थापित किया गया। वर्ष 1907 में दक्षिण भारत के कुन्नूर में एक और पास्चर संस्थान खोला गया। इन सभी संस्थानों और प्रयोगशालाओं में अनुसंधान कार्य की उचित सुविधाएं प्रदान की गई।
इन संस्थानों में मानव संसाधन उपलब्ध करवाने के लिए विशेष कार्य पर प्रतिनियुक्त किए गए शोध कार्य में लगे कर्मचारियों को लिया गया। इसी दिशा में गति बढ़ाते हुए वर्ष 1905 में भारत सरकार अपने अधीन एक जीवाणु विज्ञान विभाग स्थापित करने के लिहाज से वैज्ञानिक कार्य में लगे कर्मचारियों का एक अलग काॅडर बनाया। आरंभिक चरण में मूल रूप से 13 अधिकारियों, जिनमें अधिकतर इंडियन मेडिकल सर्विस के सदस्य थे, के साथ इस विभाग का गठन किया गया। इन अधिकारियों को केंद्रीय और प्रांतीय प्रयोगशालाओं में तैनात किया गया।
वर्ष 1911 कठिन परिस्थितियों में इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (अब भारतीय अनुसंधान कोष एसोसिएशन) की की स्थापना हुई। इसका प्राथमिक उद्देश्य संचार के रोगों की रोकथाम के लिए चिकित्सा अनुसंधान, उससे संबंधित ज्ञान का प्रसार और प्रायोगिक कार्यों को प्रोत्साहन देने तथा ऐसे कार्यों के प्रचार का वाहक बनने के साथ दूसरे क्षेत्रों में भी हो रही अनुसंधान गतिविधियों का वित्तपोषण करना और सहायता देना था।
दिलचस्प बात यह है कि इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (आइआरएफए) की स्थापना के दो साल बाद इंग्लैंड में मेडिकल रिसर्च काउंसिल हुई। भारत में आइआरएफए को बनाने का श्रेय हरकोर्ट बटलर और इंडियन मेडिकल सर्विस के महानिदेशक परडे परदेश लुकीस है। बटलर, वायसराय की कार्यकारी परिषद में शिक्षा और स्वास्थ्य तथा भूमि विभागों का सदस्य थे। भारत सरकार की पहल पर बने आइआरएफए की पैसे की व्यवस्था के लिए स्थानीय कोष यह सोचकर बनाया गया था कि निजी क्षेत्र से भी धन का सहयोग मिलेगा। पर तब परलकेमेडी के महाराजा और कर्नल अमीर चंद दो ही व्यक्तियों ने इस कार्य के लिए खुले दिल से दान दिया था।
आइआरएफए के पूरे काम की जिम्मेदारी उसके संचालक मंडल को दी गई थी। जिसमें अंग्रेज वायसराय की कार्यकारी परिषद में शिक्षा और स्वास्थ्य तथा भूमि विभागों के सदस्य की अध्यक्षता में शेष सभी सदस्य सरकारी अफसर थे। इस संचालक मंडल की पहली बैठक 15 नवंबर 1911 को मुंबई के परेल स्थित प्लेग प्रयोगशाला में हरकोर्ट बटलर की अध्यक्ष्ता में हुई थी। जबकि दूसरी बैठक में एसोसिएशन की आम सभा में चिकित्सा अनुसंधान के प्रसार की दृष्टि से इंडियन मेडिकल रिचर्स का एक जर्नल शुरू करने का निर्णय हुआ। इसका नाम "इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च" रखा गया और उसमें पहले से प्रकाशित हो रहे "पाल्यूडिज्म" नामक प्रकाशन तथा वैज्ञानिक संस्मरणों के रूप में छपे अधिकतर मोनोग्राफों को भी समाहित कर लिया गया। यह जर्नल एसोसिएशन का आधिकारिक प्रकाशन है जो कि जुलाई 1913 से आज तक नियमित प्रकाशित हो रहा है।
तब एसोसिएशन के सदस्यों में इंडियन मेडिकल सर्विस के महानिदेशक, भारत सरकार के स्वच्छता आयुक्त, कसौली के सीआरआइ के निदेशक, वर्ष 1909 में बने केंद्रीय मलेरिया ब्यूरो के विशेष कार्याधिकारी, इंडियन मेडिकल सर्विस (स्वच्छता), के सहायक महानिदेशक और मानद परामर्शदाता सदस्य के रूप में चुने गए रोनाल्ड रॉस थे। उल्लेखनीय है कि रॉस को वर्ष 1905 में मेडिसिन में नोबल पुरस्कार मिला।
वर्ष 1911 में इंडियन मेडिकल सर्विस के मेजर एस. पी. जेम्स को पीले बुखार को उसके प्रभावित क्षेत्र में अध्ययन की जिम्मेदारी दी गई और भारत में इस रोग की रोकथाम के लिए सुरक्षात्मक उपायों को करने का प्रस्ताव बनाने को कहा गया।
वर्ष 1914 में, भारत सरकार ने "इंडियन मेडिकल सर्विस" कैडर के आकार को बढ़ाते हुए विभाग का नया नाम "मेडिकल रिसर्च डिपार्टमेंट" रखा। साथ ही विभाग में अधिकारियों की संख्या को बढ़ाकर 30 कर दिया गया, जिसमें आठ अधिकारियों के वेतन और भत्तों के व्यय का वहन आइआरएफए करता था।
इस बीच, पहला विश्व युद्ध छिड़ने के कारण इस दिशा में प्रगति बाधित हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि देश के अधिकांश शोधकर्मी भारतीय सेना में तैनात कर लिया गया। इस तरह देश में कुछ समय के लिए शोध गतिविधियों में विराम आया। इस तरह, इन घटनाक्रमों के बीच भारत में चिकित्सा अनुसंधान के इतिहास में एक नए अध्याय का श्रीगणेश हुआ।
वर्ष 1909 में केंद्रीय समिति के तहत कसौली में एक केंद्रीय मलेरिया ब्यूरो की स्थापना की गई थी। वर्ष 1916 में भारत के लिए एक मलेरिया संगठन की संकल्पना की गई और उसी वर्ष शिमला में हुई इंपीरियल मलेरिया कान्फ्रेन्स के बाद उसे साकार रूप दे दिया गया। एक केंद्रीय मलेरिया समिति सहित भारत के आठ सूबों में एक-एक प्रांतीय मलेरिया समिति गठित की गई। वर्ष 1925 में कसौली में केंद्रीय मलेरिया संगठन की स्थापना की स्वीकृति प्राप्त की गई और जो कि भारतीय मलेरिया सर्वेक्षण के नाम से जाना गया। 
भारत का मलेरिया सर्वेक्षण की शुरूआत सीआरआइ की इमारतों से हुई थी। लेकिन यह बाकी सब लिहाज से स्वतंत्र संगठन था। इसके प्रशासन और वित्तपोषण का दायित्व आईआरएफए पर था। आईआरएफए को विशेष सरकारी अनुदान प्राप्त था पर वह इंग्लैंड के मेडिकल रिसर्च काउंसिल की तरह काफी हद तक एक स्वतंत्र निकाय था। एक अंग्रेज अधिकारी सिंटन को इस संगठन का पहला निदेशक नियुक्त किया गया और समस्त जांच-पड़तालों और अनुसंधानों को नए संगठन के तहत कर दिया गया। सिंटन वर्ष 1936 में संगठन के निदेशक पद से सेवानिवृत्ति हुए। उनके बाद, लेफ्टिनेंट कर्नल गोर्डन कॉवेल ने संगठन की कमान संभाली।
वर्ष 1937 में भारत सरकार ने सर्वेक्षण के सार्वजनिक स्वास्थ्य और सलाह देने के कार्य को अपने हाथ में लेने का निर्णय किया। इसके साथ ही, संगठन का नाम और मुख्यालय के स्थान में परिवर्तन किया गया। भारत के मलेरिया संस्थान के नए नाम के साथ उसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। सिंटन निदेशक के रूप में, आइआरएफए के वैज्ञानिक सलाहकार बोर्ड के पदेन सदस्य थे। वह राष्ट्र संघ के मलेरिया आयोग का सदस्य और इस निकाय का समन्वय अधिकारी भी थे।
वैसे तो, अनेक प्रकार के रोगों पर नवाचार किए गए, जिनसे महामारियों की रोकथाम में मदद मिली लेकिन पैसे की कमी और दूसरी कठिनाइयों के कारण नवाचारों को हतोत्साहित किया गया। 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी की शुरुआत में भारत में रोग चिकित्सा की स्थिति में सुधार हुआ और इस बात को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया कि चिकित्सा अनुसंधान रोग निवारक दवा का एक अभिन्न अंग था।

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