क्राइसिस में संस्थान
संस्थाएँ और प्रतिष्ठान टूट रहे हैं। कह लीजिए, मूल्यों का क्राइसिस है। वैसा है, तो चिन्ता और उद्वेग एक हद तक समझ में आते हैं : क्राइसिस की स्थिति के वे आनुषंगिक है। पर संस्था कब टूटती है, किस परिस्थिति में टूटती है? जब मानव के विचार उसकी संस्था के विकास की अपेक्षा अधिक तेज़ी से चलने लगते हैं, तब संस्था हिलती है, अररा कर गिरती है : क्योंकि विचार ही वह सीमेंट हैं जो उसे जोड़े रख सकते हैं। विचार आगे निकल गये हैं; पिछड़ी हुईं संस्थाएँ और प्रतिष्ठान नींव खोखली हो जाने के कारण लडख़ड़ा रहे हैं। जब फिर विचार सम्पूर्ण स्वीकृति पाएँगे-तब संस्थान फिर पनप सकेगा, आगे बढ़ सकेगा, तभी वह ‘संस्थान’ होगा।
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