मैं जो कभी-कभी ‘बुद्धिजीवी’ और ‘बौद्धिक’ में भेद करता हूँ वह इसीलिए! जिस संस्कारिता की बात आपने ही, उसमें भी बुद्धि से आजीविका कमाने वाले आदमी की वह प्रतिष्ठा नहीं थी जो कवि की या अध्यापक की-पुरानी परिपाटी का अध्यापक विद्या-दान की बात करता था, वेतन या फीस नहीं लेता था। मैं इस बात को यों कहना चाहता हूँ कि बौद्धिक या प्रबुद्धचेता व्यक्ति की प्रतिष्ठा का-उसमें और निरे बुद्धिजीवी में अन्तर का-एक आधार यह भी रहा कि ‘बुद्धिजीवी’ वह जो बुद्धि के सहारे समाज को दुहे (चाहे मर्यादाओं को निबाहते हुए ही दुहे), और ‘बौद्धिक’ वह जो समाज को कुछ दे, समाज के लिए कुछ छोड़े। बौद्धिकता की कसौटियों में इस निस्पृहता को भी जोडऩा, जोड़े रखना, मेरी समझ में गलत तो नहीं था। यदि आज का पढ़ा-लिखा समाज यही मानता है कि ‘बिना स्वार्थ के कोई कुछ नहीं करता, और अगर किसी का स्वार्थ दीख नहीं रहा तो उससे और अधिक चौकन्ने रहो’, तो यह समाज का दुर्भाग्य ही है, यथार्थवादिता नहीं है। यथार्थ यह है कि आज भी मानव को आदर्श ललकारते हैं, भाव-विगलित भी करते हैं और प्रेरणा भी देते हैं-समूह को भी और इकाइयों को भी। ऐसे लोग बहुत थोड़े दीखते हैं, और कम भी होते जा रहे हैं, इसे लक्ष्य कीजिए और दुखी होइए, जरूर होइए-पर वह जो छोटी-सी ज्योति है उसे भी अनदेखा क्यों कीजिए? बल्कि जब तक वह है तभी एक तो बौद्धिक के लिए भी करने को कुछ है, तभी तो बौद्धिक भी आपको दीखेगा-नहीं तो टोटल अन्धकार में वह भी कहाँ है?
Saturday, July 21, 2012
Difference of Intellectual-Ageya
अज्ञेय
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