कभी व्यक्त भी अव्यक्त रहा
तो दोनों संग भी असंग रहे
और जुदा रहकर भी जुड़े रहे
कभी बनी नहीं बात
कभी हो नहीं सकी मुलाकात
कभी बात करके भी कुछ अबूझा रह गया
कभी मिलकर भी दूरी रह गई
कभी दोनों ठीक होकर भी गलत थे
सिरे दोनों सुलझे थे
पर बीच में गांठ बनी रही
हर बार कितना अबोला रह जाता
दोनों की हथेलियों में सिमटा समय
रेत की तरह बह जाता
विरोधाभासों में विरोध ही सम था
सम ही मानो विषम था
लेकिन दोनों के संबंधों में बंधन था
उनका अनुभव, कुतुबनुमा घड़ी थी
जिसने जीवन की दशा ही नहीं
दिशा भी तय की
उनके बरगद सरीखे व्यक्तित्व ने
सभी दुश्चिंताओं और खतरों से सुरक्षित रखा
धूप सहकर छांव दी
कभी कष्टों के कांटों को
दुख के दर्द को
अभावों को, पराभवों को
कभी स्थायी भाव नहीं बनने दिया
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