दीवान-ए-गालिब—(ओशो की प्रिय पुस्तकें)
असदल्ला खां ग़ालिब:
कल हमने दिल्ली के ही एक सूफी फकीर सरमद की बात की थी आज भी दिल्ली की गलियों में जमा मस्जिद से थोड़ा अंदर की तरफ़ कुच करेंगें बल्लिमारन। जहां, महान सूफी शायद मिर्जा गालिब के मुशायरे में चंद देर रूकेंगे। बल्लिमारन के मोहल्ले की वो पेचीदा दरीरों की सी गलियाँ…सामने टाल के नुक्कड पर बटेरों के क़सीदे…गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह, वाह….चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कूद टाट के परदे…एक बकरी के मिमियाने की आवाज….ओर धुँधलाती हुई शाम के बेनूर अंधेर ऐसे दीवारों से मुंह जोड़कर चलते है यहां, चूड़ी वाला के कटरे की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाजे टटोलते। आज जो गली इतनी बेनुर लग रही है। जब मैं पहली बार उस घर में पहुंचा तो कुछ क्षण तो उसे अटक निहारता ही रह गया।
असल में वहां अब जूते का कारखाना था। शरीफ़ मिया ने मुझे उस घर में भेजा जहां इस सदी का महान शायद मिर्जा गालिब की हवेली थी। समय ने क्या से क्या कर दिया। खेर सरकार ने बाद में उस हवेली का दर्द सूना और आज उसे मिर्जा जी की याद में संग्रहालय बना दिया। वो बेनूर अंधेरी सी गली, आज भी बेनुर लग रही है। जिसके रोंए-रेशे में कभी काफ़ी महकती थी। अब उदास और बूढ़ी हो कर झड़ गई है। अब उन पैबंद को कौन गांठ बांधेगा। एक सिसकती सी अहा खड़ी रह गई है। एक छुपे हुए दर्द की लकीर जो छूने से पहले ही कांप जाती है। कासिम से एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है, एक पुराने सुखन का सफ़ा खुलता है, असदुल्लाह खां ग़ालिब का पता देखता और कुछ कहता सा दिखता है।
पुरानी दिल्ली की गलियों में कैमरा का पीछा करती हुई वह आवाज दो सौ साल बाद फिर कुछ कहती है। ये आवाज गुलजार जी की थी। जो टी वी सीरियल ग़ालिब बना रहे थे। जब ओशो ने सुना कि गालिब के जीवन को दूरदर्शन पर धाराप्रवाह दिखाया जा रहा है। और ग़ालिब को पुनरुज्जीवित करने का काम गुलज़ार साहब कर रहे है। ओशो ने इस फिल्म के वीडियो कैसेट मंगवा कर देखने की इच्छा जाहिर की। सन था 1989 दो दफा ओशो का संदेशा गुलजार के पास पहुंचा। गुलजार ने सोचा, अभी नहीं जब फिल्म पूरी हो जायेगी तो सारे कैसेट एक पहुंचा दिये जायेगे। तीसरी बार जो खबर आई वह यह नहीं थी कि ओशो गालिब के वीडियो देखना चाहते है। वह यह थी कि देखने वाला विदा हो चुका है। गुलजार साहब के कलेजे में आज तक कसक है—काश, मैं समय रहते ओशो को वीडियो कैसेट भेज देता।
कैसे होंगे वे मिर्जा गालिब जिनके ओशो इतने दिवाने थे। आज दो सौ साल बाद भी गालिब के शेर गली कूचों में गूंज रहे है। 27 दिसंबर 1797 को आगरा में पैदा हुए असदुल्लाह खां गालिब का कर्ज और दर्द से टूटा हुआ जिस्म 72 साल तक जिंदगी को ढोता रहा। इन दोनों ने उनका पीछा आखिरी दम तक नहीं छोड़ा। लेकिन उनकी हर आह अशअर बनकर उनकी क़लम से झरती रही, दुनिया को रिझाती रही।
ग़ालिब से पहले उर्दू शायरी गुल-बुलबुल और हुस्न-औ-इश्क की चिकनी-चुपड़ी बातें हुआ करती थी। उन्हें वे ‘’गजल की तंग गली’’ कहा करते थे। ग़ालिब के पुख्ता शेर उस गली से नहीं निकल सकते थे। उसकी शायरी में जिंदगी की हकीकत मस्ती और गहराई से उजागर होती थी। इसलिए वे जिस मुशायरे में जाते, उसे लूट लेते। भीतर काव्य की असाधारण प्रतिभा लेकिन पैदा हुए ग़ालिब बदकिस्मती अपने हाथ की लकीरों में लिखा कर लाये थे। उनके पास जो भी आया—चाहे बच्चे, चाहे भाई, चाहे दोस्त या बीबी—उनको दफ़नाने का काम ही ग़ालिब करते रहे। अपनी नायाब शायरी से लाखों लोगों को चैन और सुकून देनेवाले ग़ालिब को न सुकून कभी नसीब हुआ, न चैन। इसीलिए कभी वह तिल मिलाकर कहते है:
मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब, कई दिये होते
कर्ज में वे गले तक डूबे हुए थे लेकिन शराब और जुए का शौक फर्मा ते रहे। अपने हालात को शेरों में ढालकर मानों वे उनके मुक्त हो जोत थे…
कर्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन
कर्ज की शराब पीते थे, लेकिन समझते थे कि एक न एक दिन हमारी गरीबी अच्छे दिन दिखायेगी।
दिल्ली में घना शायराना माहौल था। उसमें ग़ालिब की शायरी पर निखार आता गया। उनकी शोहरत बुलंदियाँ छूती गई। लेकिन आफ़तें पहाड़ की तरह उन पर टूटती गई। दुनियादारी उन्हें कभी न आई। उन पर चढ़े 40-50 हजार रूपए का कर्ज मानो कम था इस करके एक दीवानी मुकदमे में उनके खिलाफ 5 हजार रूपये की डिग्री हो गई। अगर वह घर से बाहर निकलते तो गिरफ्तार किये जाते। सो अपने ही घर में कैद, दिन काटते हुए उन्होंने लिखा–
मुश्किल मुझ पर पड़ी इतनी कि आसा हो गई,
उन्होंने सारी आप बीती अपनी पुस्तक ‘’दस्तंबो’’ में दर्ज की है। जब उनका शरीर भी बीमारियों का घर होने लगा तो उन्होंने लिखा–
मेरे मुहिब (प्रिय मित्र),
मेरे महबूब,
तुमको मेरी खबर भी है?
पहले नातवां (परेशान) था
अब नीम जान (अधमरा) हूं,
आगे बहरा था,
अब अंधा हुआ जाता हूं।
जहां चार सतरें लिखीं,
उंगलियां टेढ़ी हो गई।
हरफ (अक्षर) सजनें से रह गए।
इकहत्तर बरस जिया, बहुत जिया।
अब जिंदगी बरसों की नहीं,
महीनों और दिनों की है।
ग़ालिब ने यह भविष्यवाणी लिखी, उसके बाद वे ज्यादा दिनों तक जी नहीं सके। 18 फरवरी 1869 के दिन, दोपहर ढले मिर्जा ग़ालिब इस जमीन से उठ गए; और छोड़ गए अपना वह कलाम, जो सदियों तक गाया, गुनगुना या जाएगा।
किताब की झलक:
ग़ालिब की शायरी
थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गये थे, पै तमाशा न हुआ।
बाग़ मैं मुझको न ले जा, वरना मेरे हाल पर
हर गुले-तर एक चश्मे-खूंफिशां हो जायेगा।
( हर फूल खून के आंसू बरसाती हुई आँख हो जायेगा)
कितने शीरीं है तेरे लब, कि रकीब
गलियाँ ख़ाके बेमजा न हुआ।
(कितने रसपूर्ण है तेरे होंठ, कि गालियां खाकर भी रक़ीब को मजा ही आया। तू गालियां दे रही थी, और वह होंठों को देखता ही रहा।)
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यूं बेहिस (स्तब्ध) तो ग़म
क्या सर के कटने का?
न होता गर जुदा तन से तो जानूं (घुटने) पर धरा होता
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इस बात पर कहना, कि यों होता तो क्या होता?
कुछ शेरों में ग़ालिब सूफी फ़क़ीरों जैसी बात कहते है:
इशरने कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
(दरियाँ में विलीन हो जाना बूंद का ऐश्वर्य है, दर्द जब हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है)
मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस तरह
मैं गया वक्त नहीं हूं कि आ न सकूँ
गैर फिरता है लिये यों तेरे खत को कि अगर
काई पूछे ये क्या है, तो छि पाए न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले है तो क्या
हाथ आयें तो उन्हें हाथ लगाये न बने
मौत की राह न देखू कि बिन आए न रहे
तुमको चाहूं कि न आओ, बुलाये न बने
हमको उनसे है वफा की उम्मीद
जो नहीं जानते वफा क्या है
उभरा हुआ नकाब में है उनके एक तार
मरता हूं मैं कि ये न किसी की निगाह हो
जब मै कदा छूटा तो अब क्या जगह की कैद
मस्जिद हो, मदरसा हो, काई खान काह हो
ग़ालिब भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर( नुकसान) नहीं
दुनिया हो या रब और मेरा बादशाहों
ओशो का नज़रिया:
मिर्जा ग़ालिब उर्दू के महानतम शायर है। वे न केवल उर्दू के महानतम शायद है, संभवत: विश्व की किसी भी भाषा के शायर से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। उनका संग्रह ‘’दीवान’’ कहलाता है। दीवान का सीधा सा अर्थ है शेरों का संग्रह। उन्हें पढ़ना अत्यंत कठिन है, लेकिन अगर तुम थोड़ा प्रयास कर सको तो बहुत कुछ पाओगे। मानो प्रत्येक पंक्ति में पूरी किताब छुपी हो। और यही है उर्दू का सौंदर्य इतने छोटे से स्थान में कोई भाषा इतनी विशालता नहीं दर्शा सकती। मात्र दो वाक्य पूरी पुस्तक को समा सकते है। यह जादूगरी है। मिर्जा ग़ालिब भाषा का जादूगर है।
(http://oshosatsang.org/2011/12/20/%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%8F-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AC-%E0%A4%93%E0%A4%B6%E0%A5%8B-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF/)
कल हमने दिल्ली के ही एक सूफी फकीर सरमद की बात की थी आज भी दिल्ली की गलियों में जमा मस्जिद से थोड़ा अंदर की तरफ़ कुच करेंगें बल्लिमारन। जहां, महान सूफी शायद मिर्जा गालिब के मुशायरे में चंद देर रूकेंगे। बल्लिमारन के मोहल्ले की वो पेचीदा दरीरों की सी गलियाँ…सामने टाल के नुक्कड पर बटेरों के क़सीदे…गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह, वाह….चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कूद टाट के परदे…एक बकरी के मिमियाने की आवाज….ओर धुँधलाती हुई शाम के बेनूर अंधेर ऐसे दीवारों से मुंह जोड़कर चलते है यहां, चूड़ी वाला के कटरे की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाजे टटोलते। आज जो गली इतनी बेनुर लग रही है। जब मैं पहली बार उस घर में पहुंचा तो कुछ क्षण तो उसे अटक निहारता ही रह गया।
असल में वहां अब जूते का कारखाना था। शरीफ़ मिया ने मुझे उस घर में भेजा जहां इस सदी का महान शायद मिर्जा गालिब की हवेली थी। समय ने क्या से क्या कर दिया। खेर सरकार ने बाद में उस हवेली का दर्द सूना और आज उसे मिर्जा जी की याद में संग्रहालय बना दिया। वो बेनूर अंधेरी सी गली, आज भी बेनुर लग रही है। जिसके रोंए-रेशे में कभी काफ़ी महकती थी। अब उदास और बूढ़ी हो कर झड़ गई है। अब उन पैबंद को कौन गांठ बांधेगा। एक सिसकती सी अहा खड़ी रह गई है। एक छुपे हुए दर्द की लकीर जो छूने से पहले ही कांप जाती है। कासिम से एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है, एक पुराने सुखन का सफ़ा खुलता है, असदुल्लाह खां ग़ालिब का पता देखता और कुछ कहता सा दिखता है।
पुरानी दिल्ली की गलियों में कैमरा का पीछा करती हुई वह आवाज दो सौ साल बाद फिर कुछ कहती है। ये आवाज गुलजार जी की थी। जो टी वी सीरियल ग़ालिब बना रहे थे। जब ओशो ने सुना कि गालिब के जीवन को दूरदर्शन पर धाराप्रवाह दिखाया जा रहा है। और ग़ालिब को पुनरुज्जीवित करने का काम गुलज़ार साहब कर रहे है। ओशो ने इस फिल्म के वीडियो कैसेट मंगवा कर देखने की इच्छा जाहिर की। सन था 1989 दो दफा ओशो का संदेशा गुलजार के पास पहुंचा। गुलजार ने सोचा, अभी नहीं जब फिल्म पूरी हो जायेगी तो सारे कैसेट एक पहुंचा दिये जायेगे। तीसरी बार जो खबर आई वह यह नहीं थी कि ओशो गालिब के वीडियो देखना चाहते है। वह यह थी कि देखने वाला विदा हो चुका है। गुलजार साहब के कलेजे में आज तक कसक है—काश, मैं समय रहते ओशो को वीडियो कैसेट भेज देता।
कैसे होंगे वे मिर्जा गालिब जिनके ओशो इतने दिवाने थे। आज दो सौ साल बाद भी गालिब के शेर गली कूचों में गूंज रहे है। 27 दिसंबर 1797 को आगरा में पैदा हुए असदुल्लाह खां गालिब का कर्ज और दर्द से टूटा हुआ जिस्म 72 साल तक जिंदगी को ढोता रहा। इन दोनों ने उनका पीछा आखिरी दम तक नहीं छोड़ा। लेकिन उनकी हर आह अशअर बनकर उनकी क़लम से झरती रही, दुनिया को रिझाती रही।
ग़ालिब से पहले उर्दू शायरी गुल-बुलबुल और हुस्न-औ-इश्क की चिकनी-चुपड़ी बातें हुआ करती थी। उन्हें वे ‘’गजल की तंग गली’’ कहा करते थे। ग़ालिब के पुख्ता शेर उस गली से नहीं निकल सकते थे। उसकी शायरी में जिंदगी की हकीकत मस्ती और गहराई से उजागर होती थी। इसलिए वे जिस मुशायरे में जाते, उसे लूट लेते। भीतर काव्य की असाधारण प्रतिभा लेकिन पैदा हुए ग़ालिब बदकिस्मती अपने हाथ की लकीरों में लिखा कर लाये थे। उनके पास जो भी आया—चाहे बच्चे, चाहे भाई, चाहे दोस्त या बीबी—उनको दफ़नाने का काम ही ग़ालिब करते रहे। अपनी नायाब शायरी से लाखों लोगों को चैन और सुकून देनेवाले ग़ालिब को न सुकून कभी नसीब हुआ, न चैन। इसीलिए कभी वह तिल मिलाकर कहते है:
मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब, कई दिये होते
कर्ज में वे गले तक डूबे हुए थे लेकिन शराब और जुए का शौक फर्मा ते रहे। अपने हालात को शेरों में ढालकर मानों वे उनके मुक्त हो जोत थे…
कर्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन
कर्ज की शराब पीते थे, लेकिन समझते थे कि एक न एक दिन हमारी गरीबी अच्छे दिन दिखायेगी।
दिल्ली में घना शायराना माहौल था। उसमें ग़ालिब की शायरी पर निखार आता गया। उनकी शोहरत बुलंदियाँ छूती गई। लेकिन आफ़तें पहाड़ की तरह उन पर टूटती गई। दुनियादारी उन्हें कभी न आई। उन पर चढ़े 40-50 हजार रूपए का कर्ज मानो कम था इस करके एक दीवानी मुकदमे में उनके खिलाफ 5 हजार रूपये की डिग्री हो गई। अगर वह घर से बाहर निकलते तो गिरफ्तार किये जाते। सो अपने ही घर में कैद, दिन काटते हुए उन्होंने लिखा–
मुश्किल मुझ पर पड़ी इतनी कि आसा हो गई,
उन्होंने सारी आप बीती अपनी पुस्तक ‘’दस्तंबो’’ में दर्ज की है। जब उनका शरीर भी बीमारियों का घर होने लगा तो उन्होंने लिखा–
मेरे मुहिब (प्रिय मित्र),
मेरे महबूब,
तुमको मेरी खबर भी है?
पहले नातवां (परेशान) था
अब नीम जान (अधमरा) हूं,
आगे बहरा था,
अब अंधा हुआ जाता हूं।
जहां चार सतरें लिखीं,
उंगलियां टेढ़ी हो गई।
हरफ (अक्षर) सजनें से रह गए।
इकहत्तर बरस जिया, बहुत जिया।
अब जिंदगी बरसों की नहीं,
महीनों और दिनों की है।
ग़ालिब ने यह भविष्यवाणी लिखी, उसके बाद वे ज्यादा दिनों तक जी नहीं सके। 18 फरवरी 1869 के दिन, दोपहर ढले मिर्जा ग़ालिब इस जमीन से उठ गए; और छोड़ गए अपना वह कलाम, जो सदियों तक गाया, गुनगुना या जाएगा।
किताब की झलक:
ग़ालिब की शायरी
थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गये थे, पै तमाशा न हुआ।
बाग़ मैं मुझको न ले जा, वरना मेरे हाल पर
हर गुले-तर एक चश्मे-खूंफिशां हो जायेगा।
( हर फूल खून के आंसू बरसाती हुई आँख हो जायेगा)
कितने शीरीं है तेरे लब, कि रकीब
गलियाँ ख़ाके बेमजा न हुआ।
(कितने रसपूर्ण है तेरे होंठ, कि गालियां खाकर भी रक़ीब को मजा ही आया। तू गालियां दे रही थी, और वह होंठों को देखता ही रहा।)
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यूं बेहिस (स्तब्ध) तो ग़म
क्या सर के कटने का?
न होता गर जुदा तन से तो जानूं (घुटने) पर धरा होता
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इस बात पर कहना, कि यों होता तो क्या होता?
कुछ शेरों में ग़ालिब सूफी फ़क़ीरों जैसी बात कहते है:
इशरने कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
(दरियाँ में विलीन हो जाना बूंद का ऐश्वर्य है, दर्द जब हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है)
मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस तरह
मैं गया वक्त नहीं हूं कि आ न सकूँ
गैर फिरता है लिये यों तेरे खत को कि अगर
काई पूछे ये क्या है, तो छि पाए न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले है तो क्या
हाथ आयें तो उन्हें हाथ लगाये न बने
मौत की राह न देखू कि बिन आए न रहे
तुमको चाहूं कि न आओ, बुलाये न बने
हमको उनसे है वफा की उम्मीद
जो नहीं जानते वफा क्या है
उभरा हुआ नकाब में है उनके एक तार
मरता हूं मैं कि ये न किसी की निगाह हो
जब मै कदा छूटा तो अब क्या जगह की कैद
मस्जिद हो, मदरसा हो, काई खान काह हो
ग़ालिब भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर( नुकसान) नहीं
दुनिया हो या रब और मेरा बादशाहों
ओशो का नज़रिया:
मिर्जा ग़ालिब उर्दू के महानतम शायर है। वे न केवल उर्दू के महानतम शायद है, संभवत: विश्व की किसी भी भाषा के शायर से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। उनका संग्रह ‘’दीवान’’ कहलाता है। दीवान का सीधा सा अर्थ है शेरों का संग्रह। उन्हें पढ़ना अत्यंत कठिन है, लेकिन अगर तुम थोड़ा प्रयास कर सको तो बहुत कुछ पाओगे। मानो प्रत्येक पंक्ति में पूरी किताब छुपी हो। और यही है उर्दू का सौंदर्य इतने छोटे से स्थान में कोई भाषा इतनी विशालता नहीं दर्शा सकती। मात्र दो वाक्य पूरी पुस्तक को समा सकते है। यह जादूगरी है। मिर्जा ग़ालिब भाषा का जादूगर है।
(http://oshosatsang.org/2011/12/20/%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%8F-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AC-%E0%A4%93%E0%A4%B6%E0%A5%8B-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF/)
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