मौन भी अभिव्यंजना है : जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
(जितना तुम्हारा सच है:अज्ञेय)
प्रकाश मेरे अग्रजों का है
कविता का है, परंपरा का है,
पोढ़ा है, खरा है :
अंधकार मेरा है,
कच्चा है, हरा है।
(हरा अंधकार)
यों मैं
अपने रहस्य के साथ
रह गया
सन्नाटे से घिरा
अकेला
अप्रस्तुत
अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र,
निष्कवच,
वध्य।
(निरस्त्र)
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही : जो दर्द है
वह बड़ा है, मुझ से ही सहा नहीं गया।
तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया।
(जो कहा नहीं गया)
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।
-वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने :
(जिस के खुले निमंत्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है और वह नहीं बोली),
नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किंतु नहीं है करुणा
उठो, चलें, प्रिय।
(हरी घास पर क्षण भर)
मैं आस्था हूँ तो मैं निरंतर उठते रहने की शक्ति हूँ?
मैं व्यथा हूँ, तो मैं मुक्ति का श्वास हूँ
मैं गाथा हूँ तो मैं मानव का अलिखित इतिहास हूँ
मैं साधना हूँ तो मैं प्रयत्न में कभी शिथिल न होने का निश्चय हूँ
मैं संघर्ष हूँ जिसे विश्राम नहीं,
जो है मैं उसे बदलता हूँ, जो मेरा कर्म है, उसमें मुझे संशय का नाम नहीं,
वह मेरा अपनी साँस-सा पहचाना है,
लेकिन घृणा/घृणा से मुझे काम नहीं
क्योंकि मैंने डर नहीं जाना...
मैं व्यथा हूँ, तो मैं मुक्ति का श्वास हूँ
मैं गाथा हूँ तो मैं मानव का अलिखित इतिहास हूँ
मैं साधना हूँ तो मैं प्रयत्न में कभी शिथिल न होने का निश्चय हूँ
मैं संघर्ष हूँ जिसे विश्राम नहीं,
जो है मैं उसे बदलता हूँ, जो मेरा कर्म है, उसमें मुझे संशय का नाम नहीं,
वह मेरा अपनी साँस-सा पहचाना है,
लेकिन घृणा/घृणा से मुझे काम नहीं
क्योंकि मैंने डर नहीं जाना...
है।
मैं अभय हूँ,
मैं भक्ति हूँ,
मैं जय हूँ।
(मैं वहाँ हू)
''सांप! तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पुछूँ-(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना-विष कहाँ पाया।''
(सांप)
मैं अभय हूँ,
मैं भक्ति हूँ,
मैं जय हूँ।
(मैं वहाँ हू)
''सांप! तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पुछूँ-(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना-विष कहाँ पाया।''
(सांप)
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