(1861ई, मीर मेहँदी हुसेन ‘मजरूह' के नाम)
जाने ग़ालिब,
तुम्हारा ख़त पहुँचा. ग़ज़ल इस्लाह के बाद पहुँचती है-
‘हरेक से पूछता हूं- वो कहां है ?'
मिसरा बदल देने से ये शेर किस रुतबे का हो गया !
ऐ मीर मेहँदी तुझे शर्म नहीं आती-
‘मियाँ, ये अहले देहली की ज़बां है.'
अरे !अब अहले देहली या हिन्दू हैं या अहले हुर्फ़ा हैं या ख़ाकी हैं या पंजाबी हैं या गोरे हैं. इनमें से तू किसकी ज़बान की तारीफ़ करता है. लखनऊ की आबादी में कुछ फ़र्क़ नहीं आया. रियासत तो जाती रही बाक़ी हर फ़न के कामिल लोग मौजूद हैं.
खस की टट्टी, पुरवा हवा, अब कहाँ ? लुत्फ़, वो तो उसी मकान में था. अब मीर खैराती की हवेली में वो जहत और सिम्त बदली हुई है. बहरहाल मी गुज़रद. मुसीबते अजीम ये है के क़ारी का कुआँ बन्द हो गया. लालडिग्गी के कुएँ यकक़लम खारी हो गए. ख़ैर, खारी ही पानी पीते. गर्म पानी निकलता है. परसों मैं सवार होकर कुओं का हाल दरयाफ़्त करने गया था. मस्जिदे जामा होता हुआ राजघाट दरवाजे को चला. मस्जिदे जामा से राजघाट दरवाजे तक बेमुबालग़ा एक सेहरा लक़ व दक़ है. ईंटों के ढेर जो पड़े हैं वो अगर उठ जाएँ तो हू का मकान हो जाए. याद करो, मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के इस ज़ानिब को कई बांस नशेब था, अब वो बाग़ीचे के सेहन के बराबर हो गया, यहाँ तक के राजघाट का दरवाजा बन्द हो गया. फ़सील के कंगूरे खुल रहे हैं, बाक़ी सब अट गया. कश्मीरी दरवाज़े का हाल तुम देख गए हो. अब आहनी सड़क के वास्ते कलकत्ता दरवाजे से काबली दरवाजे तक मैदान हो गया. पंजाबी कटरा, धोबी वाड़ा, रामजी गंज, सआदतखां का कटरा, जरनेल की बीबी की हवेली, रामजीदास गोदाम वाले के मकानात, साहबराम का बाग़-हवेली इनमें से किसी का पता नहीं मिलता. क़िस्सा मुख़्तसर, शहर सहरा हो गया था, अब जो कुएँ जाते रहे और पानी गौहरे नायाब हो गया, तो यह सहरा सेहरा-ए-कर्बला हो जाएगा.
अल्लाह !अल्लाह !
दिल्ली न रही और दिल्ली वाले अब तक यहाँ की जबान को अच्छा कहे जाते हैं.
वाह रे हुस्न ऐतक़ाद !
अरे, बन्दे खुदा उर्दू बाज़ार न रहा उर्दू कहाँ ?
दिल्ली, वल्लाह, अब शहर नहीं है, कैंप है, छावनी है,
न क़िला न शहर, न बाज़ार न नहर.
अलवर का हाल कुछ और है. मुझे और इन्क़लाब से क्या काम. अलेक्जेंडर हैडरले का कोई ख़त नहीं आया. जाहिरा उनकी मुसाहिबत नहीं, वरना मुझको जरूर ख़त लिखता रहता.
मीर सरफ़राज़ हुसैन और मीरन साहब और नसीरुद्दीन को दुआ.
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जहत=दिशा, मी गुज़रद=किसी तरह गुज़रती है, सहरा=उजाड़ बियाबान, हू का=सन्नाटा, नशेब=ढाल, गौहरे=दुर्लभ मोती, सहरा=रेगिस्तान.
(ग़ालिब के पत्र, संस्करण - 1958, हिन्दुस्तानी एकेडमी, उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद से साभार)
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