ये कहाँ आ गए हम, यूहीं साथ चलते-चलते
रक्त तो हर व्यक्ति का लाल ही होता है फिर पत्रकार का तो और भी गाढ़ा होता है. हो भी क्यों न, समाज की हर बुराई को देखकर उबल जाता है, माथे पर चिंता के रेखा बन जाती है.
बस अगर वह बुराई, पत्रकारिता और पत्रकारों से सम्बंधित हो तो जोश ठंडा पड़ जाता है, आँखों में खून उतरने की बजाए शर्म मर जाती है.
सरकारी कर्मचारियों के वेतन आयोग पर तो आलोचनात्मक नजरिया रखते हैं पर पत्रकारों के वेतन आयोग पर जुबान सिल जाती है.
कुछ पत्रकार नौकरी जाने पर भी सिर पर लाल पट्टा बांधकर मैदान में नए सिरे से मोर्चा खोल लेते हैं तो कुछ उंगली कटा कर शहीद होने का दावा करते हुए दुनिया भर को दुहाई देने में जुट जाते हैं कुछ इस अंदाज में कि मानो दुनिया भर के मजदूर एक हो जाओ का नारा बुलंद कर रहे हो !
दिन में लाला की नौकरी और रात में प्रेस क्लब में सब लाल.एक ऐसे लाल-दीवाने ने प्रेस क्लब में ब्रह्मोस मिसाइल के मॉडल को तोड़कर अपनी प्रगतिशीलता का नमूना पेश किया था.
तिस पर किसी बौद्धिक चैनल को कुछ गलत नहीं लगा था, शायद पता भी न लगा हो.
कभी संवाद के गुण के लिए जानी जाने वाली पत्रकारिता, पहले वाद में बंटी और अब विवाद में जुटी.
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