सुधार की संभावना तो चिता पर पहुँचने तक होती है और आलोचना कभी समाप्त नहीं होती, सो घबराना कैसा!
जब तक जीवन है, जीने का संघर्ष है.स्वप्न का साकार होना ही कसौटी है, कितनों को अपनी कल्पना को साकार देखने का सौभाग्य मिलता है, ऐसे सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से एक होना तो उत्सव मनाने की बात है.
वैसे, सार्वजनिक होने से भी सत्य परिवर्तित नहीं हो जाता हालांकि कम व्यक्ति ही उसे पचा पाते हैं.
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