महाराजा सूरजमल अठारहवीं सदी के भारत का निर्माण करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। उनके जन्म ऐसे समय में हुआ जब दिल्ली की राजनीति में भारी उथल-पुथल हो रही थी तो देश विनाशकारी शक्तियों की जकड़न में था। विदेशी लुटेरों नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने उत्तर भारत में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मार डालने के साथ उनके तीर्थों-मंदिरों को भी नष्ट कर दिया था। इन बर्बर आक्रांताओं को रोकने वाला कोई नहीं था। श्रीविहीन हो चुके मुगल, न तो दिल्ली का तख्त छोड़ते थे और न अफगानिस्तान से आने वाले आक्रांताओं को रोक पाते थे। ऐसे अंधकार में महाराजा सूरजमल का जन्म उत्तर भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी।
दिल्ली के यमुना पार क्षेत्र शाहदरा के एक पार्क में सूरजमल की छोटी समाधि बनी हुई है। सूरजमल सोसाइटी ने दिल्ली सरकार की मदद से इस समाधि को अच्छा स्वरूप देते हुए पत्थरों से सुसज्जित किया। यह पार्क उस क्षेत्र में स्थित है, जहां कभी युद्ध क्षेत्र हुआ करता था। आज भी यहां नाले के अवशेष देखे जा सकते हैं। यहां कांटेदार झाड़ियां भी दिखती हैं जो कि सूरजमल के समय भी थी। इस क्षेत्र की भूआकृति आज भी जस की तस है, केवल इसके आसपास कुछ निर्माण हुआ है। यह समाधि भरतपुर राज्य के खजाने में सुरक्षित रखे सूरजमल के दांत पर बनाई गई। मथुरा के नजदीक गोवर्धन में कुसुम सरोवर में भी सूरजमल की स्मृति में एक सुंदर छत्तरी बनी हुई है।
बदनसिंह के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सूरजमल (1756-63) जाट शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए तथा उनके शासनकाल में जाट समुदाय, जो कि किसान होने के साथ ही वीर और सदैव युद्ध के लिए तैयार थे, की शक्ति अपने चरम पर पहुँच गई। महाराजा सूरजमल का राज्य आर्यावर्त के केन्द्र में था। एक योग्य कूटनीतिज्ञ व सेनापति होने के साथ-साथ वह अपने समय का महान निर्माता भी थे। उनके राज्य का प्रशासनिक मुख्यालय भरतपुर था तो डीग दूसरी राजधानी। सूरजमल ने 1730 में डीग में सुदृढ़ दुर्ग और ऊंचे रक्षा प्राचीर सहित बुर्जों का निर्माण करवाया। डीग में सुन्दर एवं विशाल बगीचों से शहर का सौन्दर्यीकरण किया जाना, सूरजमल की सबसे महत्वपूर्ण कलात्मक देन थी, जो आज भी जाटों के इस महानायक की गौरवपूर्ण स्मृति के रूप में जीवित है।
सूरजमल ने दिल्ली के एक बर्खास्त वजीर इमाद-उल-मुल्क से धन प्राप्त किया था, जो कि अब इस जाट प्रमुख का सहयोगी बन गया था। उल्लेखनीय है कि युवराज के रूप में सूरजमल की वैधता जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने अपने अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर प्रदान की थी।
वर्ष 1761 में पानीपत में अफ़ग़ान लुटेरे अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुए युद्ध से पूर्व महाराजा सूरजमल ने सैनिक तथा आर्थिक साधन मराठा सेनापति भाऊ की सेवा में प्रस्तुत किए थे, परन्तु उन्हें ग्रहण करने के बजाय उसने उनके प्रति अप्रच्छन्न तिरस्कार दिखाया। इससे ज्यों ही सूरजमल दिल्ली से चले गए, त्यों ही वास्तविकता भाऊ के सामने आ गई। अब्दाली को रसद रूहेला प्रदेश से प्राप्त हो रही थी और भाऊ की सेना के लिए भोजन सामग्री सूरजमल देते रहे थे। भाऊ की नासमझी के कारण यह अक्षय स्त्रोत अब सूख गया। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि मराठों को पानीपत में खाली पेट रहकर लड़ना पड़ा।
14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों की पूरी पराजय थी और युद्व से बचे हुए एक लाख मराठे बिना शस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य-क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने प्रेम और उत्साह से उन्हें ठहराया और उनका आतिथ्य किया। हर मराठे सैनिक या अनुचर को मुफ्त खाद्य सामग्री दी गई। घायलों की तब तक शुश्रूषा की गई, जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य न हो गए।
"हिस्ट्री आॅफ मराठा" में अंग्रेज़ इतिहासकार ग्रांट डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बरताव के बारे में इस प्रकार लिखा है-जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए, उनके साथ सूरजमल ने अत्यंत दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए जाटों का व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं। नाना फड़नवीस ने एक पत्र में लिखा है कि सूरजमल के व्यवहार से पेशवा के चित्त को बड़ी सान्त्वना मिली।
विदेशी यात्री फादर फ्रांस्वा ग्जाविए वैंदेल ने अपनी पुस्तक "मेम्वार द ल इंदोस्तान" (हिंदुस्तान के संस्मरण) में लिखा है कि यह तब जब कि उनकी शक्ति सचमुच इतनी थी कि यदि सूरजमल चाहता, तो एक भी मराठा लौटकर दक्षिण नहीं जा सकता था। जब हिन्दुस्तान के नवाब तथा अन्य शक्तिशाली मुस्लिम शासक उनके अपने ही इलाकों को लूटने और उजाड़ने के लिए अब्दाली के मनमौजी संग्रामों (अपने खर्च पर) सम्मिलित होने को विवश हुए थे, तब भी सूरजमल को अपने घर में बैठे यह पता था कि ऐसे प्रचंड शत्रु से अपने राज्य-क्षेत्र की रक्षा कैसे करनी करनी है।
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