Saturday, November 11, 2017

Food habits of kayastha_कायस्थों का खाना-खजाना





किसी समय एक कहावत प्रचलित थी, "दिल्ली की बेटी, हिसार की गाय, करम फूटे से बाहर जाय।" 


इस करम फूटने की आशंका और कारणों में से दिल्ली शहर के खान-पान की अपनी रवायत भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा होगा, इसमें शक की गुंजाइश कम है। दिल्ली के मूल निवासी जितने अपने चटोरपन के लिए मशहूर थे, उतनी ही दिल्ली उन खान पदार्थों के वैशिष्ट्य और विविधता के लिए, जिनकी लज्जत ने खानेवालों में यह कद्रदानी पैदा की।


दिल्ली में कायस्थ घरों में बड़ा उम्दा खाना बनता था। अगर इसके ऐतिहासिक कारण देखें तो शाहजहांबाद में रहने वाले कायस्थ और खत्री समुदायों के मुगल दरबारों में काम करने के कारण उनकी भाषा, संस्कृति और खान-पान में मुस्लिम प्रभाव था। माथुरों में यह विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता जो कि भोजन के बेहद शौकीन थे और नए व्यंजनों को बनाने में अपार खुशी महसूस करते थे। 


"दिल्ली शहर दर शहर" पुस्तक में निर्मला जैन लिखती है कि दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी, इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ। मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी। विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आनेवाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए। सामिष भोजन के ठिकाने मुख्य रूप से कायस्थ और मुस्लिम परिवारों में या जामा मस्जिद के आसपास के गली-बाजारों तक सीमित थे। 


दरअसल खान-पान की संस्कृति का गहरा सम्बन्ध हर समुदाय के इतिहास और भूगोल से होता है। लम्बी आनुभविक प्रक्रिया से गुजरकर मनुष्य अपने खान-पान की रवायतें विकसित करता है जो उसके संस्कार का हिस्सा हो जाती हैं। "दिल्ली जो एक शहर है" पुस्तक में महेश्वर दयाल बताते हैं कि दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी जिसे शबदेग कहा जाता था। गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर विभिन्न पर खास मसाले डालकर घंटो धीमी आंच पर पकाया जाता था। मछली के कोफ्ते (मरगुल), और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे।


"दिल्ली का असली खाना" में प्रीति नारायण बताती है कि माथुरों ने बकरे के मांस या जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार किए। दाल को भीगोकर और फिर पीसकर पीठी तैयार की जाती थी, जिससे दाल की कलेजी और दाल का कीमा बनाया जाता था। किसी भी सब्जी से कोफ्ते तो कच्चे हरे केले से केले का पसंदा बनाया जाता था। 


यहां पर कायस्थ घरों में अरहर, उदड़ और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी। अरहर और उड़द की दाल धुली-मिली मिलवां भी बनाते थे और खिलवा भी। खिलवां अरहर और उड़द की दाल में एक-एक दाना अलग नजर आता था। कायस्थ घरों में बेसन के टके-पीसे भी सब्जी के तौर पर बनाए जाते थे। बेसन का एक गोल रोल-सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल टके पीसे काट कर उसकी रसेदार सब्जी बनाते थे-जो बड़ी स्वादु होती थी। 


इतना ही नहीं, राजधानी में कायस्थ परिवारों में विवाह की तैयारियों का श्रीगणेश परिवार की महिलाओं के मंगोड़ियों बनाकर होता था। मसूल की दाल, कायस्थों में बड़ी उम्दा बनाई जाती थी और उसे स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वह कहावत मशहूर हुई "यह मुंह और मसूर की दाल।"


1 comment:

Unknown said...

जानकारी बहुत अच्छी मिल गई धन्यवाद

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