Sunday, December 31, 2017

China War_henderson report_१९६२ चीन युद्ध




दफ़न "हेन्डरसन रिपोर्ट" को सार्वजनिक करने की मांग का सबको बेसब्री इंतज़ार है!

१९६२ के युद्ध में भारत की हार का दोषी कौन था? 


इस हार की वैचारिकी और मीमांसा करने की बजाए इस हार के कारण की जांच के लिए बनी "रिपोर्ट" को "गुप्त" का दर्जा देकर "ठंडे बस्ते" में डाल दिया गया!

अब हिन्दू होने की विस्मृति दूर होने पर आशा की जा सकती है कि आज की पीढ़ी अपनी पुरखों की गलती का भी तर्पण करेगी.





Life:togetherness_स्मरण-बोध




जीवन में हम सब, दूसरे को चाहे-अनचाहे कुछ याद दिला देते हैं, कुछ भुलाने में भी मदद कर देते हैं.


आखिर स्मरण-बोध को पाथेय-कण बनने देना चाहिए!

Sunday, December 24, 2017

poem_door_द्वार





आज घर में रहते हुए
बच्चों के साथ
मैं द्वार नहीं खोलूँगा
न घर के
न मन के

प्रेमिका का पता नहीं
पत्नी है नहीं
एक मन से
एक तन से
दूर है

बीता कल,
आज-प्रतिपल
संतान है, आने वाला कल

बाहर के संघर्ष,
मन की दुविधा से ज्यादा मुश्किल हैं,

संबंधों का ज्ञान
अपरिचितों का अज्ञान
अपना भान
जितना जल्दी हो
उतना बेह्तर!

Love_प्रेम






प्रेम खोल ही लेता है
हर द्वार


चाहे सांकल


कैसी भी हो!

Saturday, December 23, 2017

Arrival of Christianity in Delhi_दिल्ली में अंग्रेजों के साथ आई ईसाइयत!






दिल्ली में ईसाइयत का आगमन देर से हुआ और उसे यहां जमने में भी खासा वक्त लगा। मुगल दरबार में जेसुइट मिशन के पादरी आने-जाने तक ही सीमित रहे और यहां पर स्थायी रूप से अनुयायी नहीं बना पाए। 19 वीं शताब्दी के आरंभ में यहां गिनती के बाहरी ईसाइयों में, मराठा सेनाओं में भर्ती फिरंग सैनिक या किराए पर लड़ने वाले भगोड़े सैनिक थे। 1803 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली पर कब्जा करके मुगल बादशाह को अपने संरक्षण में लेने के बाद 1818 में बैपटिस्ट मिशनरी सोसाइटी के जेम्स थॉम्पसन ने दिल्ली पहुंचकर चर्च बनाया। उसके ईसाइयत को फैलाने के प्रयास में शहर में कुछ ही लोग ईसाई बने।

1852 में दिल्ली के कुछ अंग्रेज नागरिकों की पहल पर सोसाइटी फाॅर द प्रोपोगेशन आॅफ द गाॅस्पल (एसपीजी) का काम शुरू हुआ। बैपटिस्ट मिशन और एसपीजी की धर्मांतरण गतिविधियों के कारण दिल्ली के समाज का रूढ़िवादी तबका विमुख हुआ। दो प्रतिष्ठित हिंदुओं मास्टर रामचंद्र और डॉक्टर चिमन लाल को ईसाई बनाने से के कारण अंग्रेज अधिकारियों को शहर में दंगा होने का भी डर हुआ।

"दिल्ली बिटवीन टू एम्पायर्स 1803-1931, सोशल, गवर्नमेंट एंड अर्बन ग्रोथ" में नारायणी गुप्ता लिखती है कि शहर की सीमा पर स्थित क्षेत्रों जैसे मोरी गेट, फर्राशखाना, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट और दिल्ली गेट में गरीब रहते थे। यह क्षेत्र, दिल्ली गेट-अजमेरी गेट के इलाके मिशनरी गतिविधि का मुख्य केन्द्र बन गए। ऐसा इसलिए था क्योंकि यहां रहने वाला गरीब तबका किसी भी तरह की ईसाइयत और बस्तियों में उसके सामाजिक संगठन को अपनाने के लिए तैयार थे।
पुस्तक आगे बताती है कि ईसाई मिशनरियों के लिए अकाल का समय किसी तोहफे से कम नहीं था। नीची जाति के मुसलमान और गरीब मुगल दोनों ही एसपीजी और बैपटिस्ट मिशन के धर्मांतरण के नए जोश का पहला शिकार बने। सन् 1860 के दशक में पहाड़गंज, सदर बाजार, मोरी गेट और दिल्ली गेट में कुकुरमुत्ते की तरह ईसाई बस्तियां बनीं। उन धर्मांतरितों में से एक ने कई साल बाद उस घटना को याद करते हुए कहा कि यह पादरी विंटर के समय की बात थी। तब एक अकाल पड़ा था, उसने (पादरी) हमें रिश्वत दी और हम सब ईसाई बन गए। रेवरेंड विंटर ने दिल्ली की ईसाई आबादी का विश्लेषण किया, इनमें जुलाहा और चमार जाति के 82 व्यक्ति, 13 मध्य-वर्गीय मुस्लिम, और 27 उच्च जाति के हिंदू थे जिनका ईसाइयत में धर्मांतरण किया गया था। ईसाई मिशनरी गुप्त रूप से (हिंदू) मध्यम वर्ग के ईसाइयत में धर्मांतरित न होने की बात से चिढ़े हुए थे। कैनन क्रॉफुट का इस बारे (धर्मांतरण) में मानना था कि दिल्ली में कठिनाई धार्मिक नहीं सामाजिक है।

1875 में भारत आए सर बार्टले फ्रेर ने एसपीजी के दिल्ली मिशन के बारे में इंगलैंड अपने घर को भेजे पत्र में लिखा कि आपके यहां दिल्ली में कुछ वर्षों में तिनेवेली (तमिलनाडु में एंग्लिकन चर्च का सबसे पुराना केंद्र) से भी बड़ा केंद्र होगा लेकिन इसके लिए उन्हें अधिक पैसे और आदमियों की जरूरत होगी। इसके जवाब में कैंब्रिज में एसपीजी की मदद के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से एक समिति का गठन किया गया। इस समिति के संकल्प पत्र में धर्मांतरण कार्य के अलावा युवा देसी ईसाइयों की उच्च शिक्षा के लिए पैसा खर्च किए जाने की बात कही गई। इस बात का भी उल्लेख था कि देसी (धर्मांतरित) भारतीयों के बेटों के लिए पूरे भारत में कोई भी ईसाई स्कूल नहीं है।



Saturday, December 16, 2017

history of local body of new delhi_दिल्ली के आठवें शहर के स्थानीय प्रशासन का इतिहास






वर्ष 1911 में अंग्रेज सरकार ने ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने निर्णय किया। यहां आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में सम्राट जाॅर्ज पंचम ने 12 दिसंबर 1911 को इस आशय की घोषणा की कि अब दिल्ली अंग्रेज वाइसराय के आवास और नए प्रशासनिक केंद्र का स्थान होगी। नई राजधानी के स्थान का चयन करने के लिए एक समिति गठित की गई। इस कार्य के लिए अनेक स्थानों को देखा गया और आखिरकार रायसीना पहाड़ी के स्थान को अंग्रेज भारत की नई राजधानी बनाने के लिए चुना गया। एडविन लुटियंस-हर्बर्ट बेकर के नेतृत्व में दूसरे अंग्रेज वास्तुकारों ने आज की नई दिल्ली को बनाया। इस नई दिल्ली का वाइसराय पैलेस (अब राष्ट्रपति भवन), सर्कुलर पिलर पैलेस, जो कि संसद सचिवालय भवन कहलाता था, सहित हरियाली के लिए छोड़े गए खुले स्थान, पार्क, बाग और चौड़ी सड़कें थीं। 

नई राजधानी के निर्माण कार्य की विशालता की बड़ी चुनौती को ध्यान में रखते हुए राजधानी के निर्माण कार्य और प्रबंधन की जिम्मेदारी स्थानीय स्तर पर न देते हुए इस कार्य की जिम्मेदारी एक केन्द्रीय प्राधिकरण को देने का निर्णय हुआ। इसी कारण 25 मार्च 1913 को इंपीरियल दिल्ली कमेटी का गठन हुआ जो कि नई दिल्ली नगरपालिका की शुरुआत थी।

फरवरी 1916 में दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने रायसीना म्युनिसिपल कमेटी बनाई। 7 अप्रैल 1925 को पंजाब म्युनिसिपल एक्ट के तहत इसका दर्जा बढ़ाकर दूसरे दर्जे की म्युनिसिपलिटी कर कर दिया गया। इस कमेटी में स्थानीय निकाय की ओर से नाम या पद के आधार पर नियुक्त दस सदस्य होते थे। इस तरह गठित पहली कमेटी में पांच पदेन सदस्य और पांच सदस्य नाम के आधार पर नियुक्त किए गए। पहली बार स्थानीय मामलों और समस्याओं पर विचार-विमर्श के लिए सार्वजनिक जीवन से व्यक्तियों को शामिल किया गया। 9 सितंबर 1925 को इस कमेटी को शहर की इमारतों पर कर लगाने की अनुमति दी गई और इस तरह राजस्व की वसूली का पहला स्रोत बना। मुख्य आयुक्त ने इस नागरिक निकाय को कई प्रशासनिक कार्यों की भी जिम्मेदारी सौंपी, जिससे उसकी आमदनी और खर्चे में बढ़ोत्तरी हुई।

22 फरवरी 1927 को कमेटी ने नई दिल्ली का नाम अपनाया गया, इस आशय का एक प्रस्ताव पारित किया और इस कमेटी को नई दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के रूप में नामित किया गया। 16 मार्च 1927 को मुख्य आयुक्त ने इस निर्णय को अनुमोदित कर दिया। 15 फरवरी 1931 को आधिकारिक तौर पर नई राजधानी का श्रीगणेश कर दिया गया। वर्ष 1932 में, नई दिल्ली नगर पालिका प्रथम श्रेणी की म्युनिसिपलिटी बन गई। उसे दी गई समस्त सेवाओं और गतिविधियों को पूरा करने के लिए निरीक्षणात्मक शक्तियां प्रदान की गई। वर्ष 1916 में, यह नगर पालिका नई राजधानी के निर्माण में लगे मजदूरों की स्वच्छता जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी निभा रही थी।

जबकि वर्ष 1925 के बाद नगरपालिका के कार्यों में कई गुना की बढ़ोत्तरी हुई। वर्ष 1931 में नई राजधानी की इमारतों, सड़कों, नालियों, चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े कार्य भी कमेटी को हस्तांतरित कर दिए गए। फिर इसके बाद, वर्ष 1932 में बिजली वितरण और पानी की आपूर्ति का काम भी इसी नागरिक निकाय को स्थानांतरित कर दिया गया। नई दिल्ली नगर पालिका परिषद अपने अस्तित्व के नब्बे वर्ष में एक ऐसे संगठन के रूप में विकसित हुई है, जिस पर देश की राजधानी को सुंदर बनाए रखने के साथ मूलभूत नागरिक सेवाएं प्रदान करने का दायित्व है।

फरवरी 1980 में कमेटी के स्थान पर प्रशासक के हाथ में इसकी बागडोर दे दी गई। मई 1994 में नए कानून के लागू होने तक प्रशासक के हाथ में इसकी कमान रही। मई 1994 में, पंजाब म्युनिसिपल एक्ट 1911 के स्थान पर एनडीएमसी एक्ट 1994 लागू किया गया और कमेटी का नाम बदलकर नई दिल्ली म्युनिसिपल कांउसिल कर दिया गया। देश की संसद ने इस अधिनियम को पारित किया। केंद्र सरकार ने एनडीएमसी एक्ट 1994 की धारा 418 के तहत सदस्यों के नामांकन तक के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त किया। नई दिल्ली म्युनिसिपल कांउसिल की पहली बैठक 23 दिसंबर 1995 को हुई। एनडीएमसी एक्ट, 1994 के अनुसार, एक अध्यक्ष के नेतृत्व में एक तेरह सदस्यीय परिषद एनडीएमसी के कामकाज को देखती है। इन 13 सदस्यों में से दो विधान सभा के सदस्य, केंद्र सरकार या सरकार या सरकारी उपक्रमों के पांच अधिकारी, जिन्हें केंद्र सरकार नामित करती है, केंद्र सरकार दिल्ली के मुख्यमंत्री के परामर्श से महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से चार सदस्य होते हैं। नई दिल्ली का सांसद भी इसका सदस्य होता है क्योंकि वह इस निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है जो कि आंशिक रूप से या पूरी तरह नई दिल्ली में आता है।


Saturday, December 9, 2017

First colour film_Delhi Durbar_1911_दुनिया की पहली रंगीन फिल्म बनी थी, दिल्ली दरबार में





यह बात जानकर हर किसी को अचरज होगा कि दुनिया की पहली सफल रंगीन छायांकन, हकीकत में 1911 में दिल्ली में हुए राज्यारोहण दरबार में फिल्मायी गयी थी। वह बात अलग है कि वर्ष 2000 तक इसकी रील गायब हो रखी थी। विश्व फिल्म के इतिहास में आम तौर पर दिल्ली दरबार में चार्ल्स अर्बन की उपस्थिति की अनदेखी की जाती है। अर्बन ने दिल्ली दरबार की घटनाओं, अंग्रेज साम्राज्य के उत्कर्ष की घड़ियों और उसके सबसे बड़े दृश्यमान जमावड़े को फिल्मांकन के लिए अपनी कीनेमाक्लोर प्रक्रिया का इस्तेमाल किया। हिंदुस्तान के माध्यम से अंग्रेज राजा और रानी को पहली बार रंगीन छायांकन या किसी तरह की एक फिल्म का भाग बनने के कारण अधिकतर पश्चिमी दुनिया के दर्शकों ने इसे देखा।

इस फिल्म ने कामकाजी तबके के लिए एक सस्ते रोमांचक पिक्चर शो को दुनिया भर के भद्रलोक के लिए एक उपयुक्त मनोरंजन का स्थान दिला दिया। उल्लेखनीय है इसे देखने वाले भद्रलोक में ब्रिटिश शाही परिवार, पोप और जापान के सम्राट तक थे। इसके बावजूद कुछ वर्षों के भीतर ही इस फिल्म का फुटेज गायब हो गया था। वर्ष 2000 में इसकी एक रील, रूस के एक शहर क्रास्नोगोस्र्क में मिली। प्राकृतिक रंगीन फिल्मों की पहली पीढ़ी में फिल्म उत्पादन के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाली इस भव्य फिल्म के केवल दस मिनट का फुटेज ही शेष बचा है।

कीनेमाक्लोर की अंग्रेज शाही परिवार के आयोजनों में भागीदारी बाॅम्बे के विक्टोरिया मेमोरियल के उद्घाटन से शुरू हुई जो कि बाद में जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण तक चली। जब तत्कालीन अंग्रेज वाइसराॅय लॉर्ड हार्डिंग ने हिंदुस्तान की प्राचीन राजधानी दिल्ली में नए राजा-सम्राट की मेजबानी की तब अर्बन ने इस फिल्म शूटिंग की।

वर्ष 1911 के दिल्ली दरबार में कुल पांच फर्मों को शूटिंग, जिसे अब डाक्यूमेंटरी फुटेज कहा जाता है, करनी की अनुमति दी गई थी। इनमें से रंगीन शूटिंग करने वाली अर्बन की ही टीम थी। इस टीम ने अंग्रेज राजा और रानी के मुंबई में अपोलो बंदर (जहां पर बाद में गेटवे ऑफ इंडिया बना) में उतरने-जाने तक की फुटेज तैयार की। शाही युगल दम्पति ने लाल किला के उत्तर में बने सलीमगढ़ किले के द्वार पर बने प्रस्तर हाथियों के बीच से होते हुए दिल्ली में प्रवेश किया। जबकि हकीकत में दिल्ली दरबार अनेक परेडों और शाही घोषणाओं की एक श्रृंखला थी, जिसका अंत अंग्रेज सम्राट की दो घोषणाओं के साथ हुआ। इनमें से पहली बंगाल विभाजन की समाप्ति और दूसरी अंग्रेज साम्राज्य की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की थी।

अगर दिल्ली दरबार को पूरी तरह फिल्माने के साथ उसकी फोटोग्राफी नहीं की गई होती तो वर्ष 1911 के इस दरबार की विशालता का आकलन करना मुश्किल ही नहीं असंभव होता। यहां एकत्र हुए महाराजाओं, चमकदार पीतल के साथ जुटे 34,000 सैनिकों, अंग्रेज वाइसराॅय के दल सहित शाही अमला, जहां अंग्रेज राजा ने 6,100 हीरे से जड़ित् भारत का शाही ताज पहना, मौजूद था। ऐसे में अर्बन के लिए फिल्म शूटिंग के हिसाब से इससे अधिक रंगदार घटना नहीं हो सकती थी।

वर्ष 1912 में पूरे लंदन में अंग्रेज राजा और रानी के हिंदुस्तान के दौरे का 150 मिनट का कार्यक्रम, जो कि तब तक की सबसे लंबा फिल्म शो था, प्रदर्शित किया गया। इसके साथ 48 वाद्य यंत्रों का एक ऑर्केस्ट्रा, गाने वाले 24 व्यक्तियों के एक दल सहित बांसुरी-ड्रम बजाने वाले थे जो कि फिल्म प्रस्तुति का अभिन्न अंग थे।



Saturday, December 2, 2017

Arrival of Rail in Delhi_दिल्ली में रेल आने की कहानी





देश की राजधानी के नागरिकों को आज यह बात जानकार अचरज होगा कि शहर में पर रेलवे लाइन कुछ हद तक एक अकाल राहत योजना के तहत बनी थी। जब दिल्ली में रेल पटरी बिछी तब अकाल के बाद कारोबार मंदा था और कुछ व्यापारी दूसरे शहरों को पलायन कर चुके थे। यहां के स्थानीय कारोबारियों में इस बात को लेकर निराशा थी कि आखिकार क्या उन्हें रेलवे से फायदा होगा? 



दिल्ली में ईस्ट इंडिया रेलवे के बनने से कारोबार में नए सिरे से जान आई थी। दिल्ली के समृद्ध खत्री, बनिया, जैन और शेख, जिनके हाथों में शहर की अर्थव्यवस्था और खुदरा व्यापार था, और हस्तकला उद्योग के कर्ता-धर्ताओं की स्वाभाविक रूप से पंजाब-कलकत्ता रेलवे के कारण उपजी सकारात्मक संभावनाओं में रुचि थी।

इस प्रस्ताव पर पहली बार वर्ष 1852 में विचार किया गया था। देश की 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेजी भारत सरकार ने रेलवे लाइन के दिल्ली की बजाय मेरठ से निकलने का सुझाव दिया। इससे ब्रिटेन और दिल्ली में निराशा का माहौल बना। अंग्रेज दिल्ली में रेलवे के पक्ष में इस वजह से नहीं थे क्योंकि वे दिल्लीवालों को आजादी के पहले आंदोलन में भाग लेने की सजा देना चाहते थे।

ऐसा इसलिए भी था क्योंकि मूल निर्णय न केवल दिल्ली के सैन्य और राजनीतिक महत्व बल्कि पंजाब जाने वाली दूसरी रेलवे लाइन से भी संबंधित था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के अंग्रेज़ निदेशकों ने इसका विरोध किया, लेकिन तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी का मानना था कि यह रेलवे लाइन पूरी तरह से एक शाही और राजनीतिक महत्व वाली रेललाइन है जो कि एक व्यापारिक रेलवे लाइन से अलग है।

दिल्ली में वर्ष 1863 में एक बैठक हुई, जिसमें यह आग्रह किया गया कि शहर को उसकी रेलवे लाइन से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इस बैठक में कुछ अधिकारियों और सैकड़ों सम्मानित भारतीयों ने हिस्सा लिया। आजादी की पहली लड़ाई के पांच साल बाद जुटी यह एक बड़ी संख्या थी। इन लोगों में मुखर सदस्यों में हिंदू और जैन साहूकार, एक हिंदू, एक मुस्लिम और एक पारसी व्यापारी और पांच मुस्लिम कुलीन शामिल थे।उन्होंने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को दी एक याचिका में कहा कि रेलवे लाइन को हटाने से न केवल शहर का व्यापार प्रभावित होगा बल्कि यह रेलवे के शेयर खरीदने वालों के साथ अन्याय होगा। यह एक महत्वपूर्ण बात थी क्योंकि आमतौर पर चुनींदा भारतीयों ने ही ब्रिटिश भारतीय रेलवे कंपनियों के उद्यमों में निवेश किया था लेकिन यह वर्ष 1863 की बात थी जब यह कहा गया था कि दिल्ली के कुछ पूंजीपतियों ने शेयर खरीदे हैं।


इन व्यापारियों और पंजाब रेलवे कंपनी (जो कि ईस्ट इंडिया रेलवे के साथ दिल्ली में एक जंक्शन बनाना चाहती थी क्योंकि मेरठ अधिक दूरी पर था) के दबाव के नतीजन चार्ल्स वुड ने अंग्रेज वाइसराय के फैसले को पलट दिया। वर्ष 1867 में नए साल की पूर्व संध्या की अर्धरात्रि को रेल की सीटी बजी और दिल्ली में पहली रेल दाखिल हुई। दिल्ली के उर्दू शायर मिर्जा गालिब की जिज्ञासा का सबब इस लोहे की सड़क से दिल्ली शहर की जिंदगी बदलने वाली थी। 



First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...