Sunday, December 24, 2017

poem_door_द्वार





आज घर में रहते हुए
बच्चों के साथ
मैं द्वार नहीं खोलूँगा
न घर के
न मन के

प्रेमिका का पता नहीं
पत्नी है नहीं
एक मन से
एक तन से
दूर है

बीता कल,
आज-प्रतिपल
संतान है, आने वाला कल

बाहर के संघर्ष,
मन की दुविधा से ज्यादा मुश्किल हैं,

संबंधों का ज्ञान
अपरिचितों का अज्ञान
अपना भान
जितना जल्दी हो
उतना बेह्तर!

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