Saturday, December 2, 2017

Arrival of Rail in Delhi_दिल्ली में रेल आने की कहानी





देश की राजधानी के नागरिकों को आज यह बात जानकार अचरज होगा कि शहर में पर रेलवे लाइन कुछ हद तक एक अकाल राहत योजना के तहत बनी थी। जब दिल्ली में रेल पटरी बिछी तब अकाल के बाद कारोबार मंदा था और कुछ व्यापारी दूसरे शहरों को पलायन कर चुके थे। यहां के स्थानीय कारोबारियों में इस बात को लेकर निराशा थी कि आखिकार क्या उन्हें रेलवे से फायदा होगा? 



दिल्ली में ईस्ट इंडिया रेलवे के बनने से कारोबार में नए सिरे से जान आई थी। दिल्ली के समृद्ध खत्री, बनिया, जैन और शेख, जिनके हाथों में शहर की अर्थव्यवस्था और खुदरा व्यापार था, और हस्तकला उद्योग के कर्ता-धर्ताओं की स्वाभाविक रूप से पंजाब-कलकत्ता रेलवे के कारण उपजी सकारात्मक संभावनाओं में रुचि थी।

इस प्रस्ताव पर पहली बार वर्ष 1852 में विचार किया गया था। देश की 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेजी भारत सरकार ने रेलवे लाइन के दिल्ली की बजाय मेरठ से निकलने का सुझाव दिया। इससे ब्रिटेन और दिल्ली में निराशा का माहौल बना। अंग्रेज दिल्ली में रेलवे के पक्ष में इस वजह से नहीं थे क्योंकि वे दिल्लीवालों को आजादी के पहले आंदोलन में भाग लेने की सजा देना चाहते थे।

ऐसा इसलिए भी था क्योंकि मूल निर्णय न केवल दिल्ली के सैन्य और राजनीतिक महत्व बल्कि पंजाब जाने वाली दूसरी रेलवे लाइन से भी संबंधित था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के अंग्रेज़ निदेशकों ने इसका विरोध किया, लेकिन तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी का मानना था कि यह रेलवे लाइन पूरी तरह से एक शाही और राजनीतिक महत्व वाली रेललाइन है जो कि एक व्यापारिक रेलवे लाइन से अलग है।

दिल्ली में वर्ष 1863 में एक बैठक हुई, जिसमें यह आग्रह किया गया कि शहर को उसकी रेलवे लाइन से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इस बैठक में कुछ अधिकारियों और सैकड़ों सम्मानित भारतीयों ने हिस्सा लिया। आजादी की पहली लड़ाई के पांच साल बाद जुटी यह एक बड़ी संख्या थी। इन लोगों में मुखर सदस्यों में हिंदू और जैन साहूकार, एक हिंदू, एक मुस्लिम और एक पारसी व्यापारी और पांच मुस्लिम कुलीन शामिल थे।उन्होंने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को दी एक याचिका में कहा कि रेलवे लाइन को हटाने से न केवल शहर का व्यापार प्रभावित होगा बल्कि यह रेलवे के शेयर खरीदने वालों के साथ अन्याय होगा। यह एक महत्वपूर्ण बात थी क्योंकि आमतौर पर चुनींदा भारतीयों ने ही ब्रिटिश भारतीय रेलवे कंपनियों के उद्यमों में निवेश किया था लेकिन यह वर्ष 1863 की बात थी जब यह कहा गया था कि दिल्ली के कुछ पूंजीपतियों ने शेयर खरीदे हैं।


इन व्यापारियों और पंजाब रेलवे कंपनी (जो कि ईस्ट इंडिया रेलवे के साथ दिल्ली में एक जंक्शन बनाना चाहती थी क्योंकि मेरठ अधिक दूरी पर था) के दबाव के नतीजन चार्ल्स वुड ने अंग्रेज वाइसराय के फैसले को पलट दिया। वर्ष 1867 में नए साल की पूर्व संध्या की अर्धरात्रि को रेल की सीटी बजी और दिल्ली में पहली रेल दाखिल हुई। दिल्ली के उर्दू शायर मिर्जा गालिब की जिज्ञासा का सबब इस लोहे की सड़क से दिल्ली शहर की जिंदगी बदलने वाली थी। 



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