Arrival of Christianity in Delhi_दिल्ली में अंग्रेजों के साथ आई ईसाइयत!
दिल्ली में ईसाइयत का आगमन देर से हुआ और उसे यहां जमने में भी खासा वक्त लगा। मुगल दरबार में जेसुइट मिशन के पादरी आने-जाने तक ही सीमित रहे और यहां पर स्थायी रूप से अनुयायी नहीं बना पाए। 19 वीं शताब्दी के आरंभ में यहां गिनती के बाहरी ईसाइयों में, मराठा सेनाओं में भर्ती फिरंग सैनिक या किराए पर लड़ने वाले भगोड़े सैनिक थे। 1803 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली पर कब्जा करके मुगल बादशाह को अपने संरक्षण में लेने के बाद 1818 में बैपटिस्ट मिशनरी सोसाइटी के जेम्स थॉम्पसन ने दिल्ली पहुंचकर चर्च बनाया। उसके ईसाइयत को फैलाने के प्रयास में शहर में कुछ ही लोग ईसाई बने।
1852 में दिल्ली के कुछ अंग्रेज नागरिकों की पहल पर सोसाइटी फाॅर द प्रोपोगेशन आॅफ द गाॅस्पल (एसपीजी) का काम शुरू हुआ। बैपटिस्ट मिशन और एसपीजी की धर्मांतरण गतिविधियों के कारण दिल्ली के समाज का रूढ़िवादी तबका विमुख हुआ। दो प्रतिष्ठित हिंदुओं मास्टर रामचंद्र और डॉक्टर चिमन लाल को ईसाई बनाने से के कारण अंग्रेज अधिकारियों को शहर में दंगा होने का भी डर हुआ।
"दिल्ली बिटवीन टू एम्पायर्स 1803-1931, सोशल, गवर्नमेंट एंड अर्बन ग्रोथ" में नारायणी गुप्ता लिखती है कि शहर की सीमा पर स्थित क्षेत्रों जैसे मोरी गेट, फर्राशखाना, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट और दिल्ली गेट में गरीब रहते थे। यह क्षेत्र, दिल्ली गेट-अजमेरी गेट के इलाके मिशनरी गतिविधि का मुख्य केन्द्र बन गए। ऐसा इसलिए था क्योंकि यहां रहने वाला गरीब तबका किसी भी तरह की ईसाइयत और बस्तियों में उसके सामाजिक संगठन को अपनाने के लिए तैयार थे। पुस्तक आगे बताती है कि ईसाई मिशनरियों के लिए अकाल का समय किसी तोहफे से कम नहीं था। नीची जाति के मुसलमान और गरीब मुगल दोनों ही एसपीजी और बैपटिस्ट मिशन के धर्मांतरण के नए जोश का पहला शिकार बने। सन् 1860 के दशक में पहाड़गंज, सदर बाजार, मोरी गेट और दिल्ली गेट में कुकुरमुत्ते की तरह ईसाई बस्तियां बनीं। उन धर्मांतरितों में से एक ने कई साल बाद उस घटना को याद करते हुए कहा कि यह पादरी विंटर के समय की बात थी। तब एक अकाल पड़ा था, उसने (पादरी) हमें रिश्वत दी और हम सब ईसाई बन गए। रेवरेंड विंटर ने दिल्ली की ईसाई आबादी का विश्लेषण किया, इनमें जुलाहा और चमार जाति के 82 व्यक्ति, 13 मध्य-वर्गीय मुस्लिम, और 27 उच्च जाति के हिंदू थे जिनका ईसाइयत में धर्मांतरण किया गया था। ईसाई मिशनरी गुप्त रूप से (हिंदू) मध्यम वर्ग के ईसाइयत में धर्मांतरित न होने की बात से चिढ़े हुए थे। कैनन क्रॉफुट का इस बारे (धर्मांतरण) में मानना था कि दिल्ली में कठिनाई धार्मिक नहीं सामाजिक है।
1875 में भारत आए सर बार्टले फ्रेर ने एसपीजी के दिल्ली मिशन के बारे में इंगलैंड अपने घर को भेजे पत्र में लिखा कि आपके यहां दिल्ली में कुछ वर्षों में तिनेवेली (तमिलनाडु में एंग्लिकन चर्च का सबसे पुराना केंद्र) से भी बड़ा केंद्र होगा लेकिन इसके लिए उन्हें अधिक पैसे और आदमियों की जरूरत होगी। इसके जवाब में कैंब्रिज में एसपीजी की मदद के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से एक समिति का गठन किया गया। इस समिति के संकल्प पत्र में धर्मांतरण कार्य के अलावा युवा देसी ईसाइयों की उच्च शिक्षा के लिए पैसा खर्च किए जाने की बात कही गई। इस बात का भी उल्लेख था कि देसी (धर्मांतरित) भारतीयों के बेटों के लिए पूरे भारत में कोई भी ईसाई स्कूल नहीं है।
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