Tuesday, August 28, 2018

संस्कृति_आनंदकुमार स्वामी_Sanskriti_anand kumarswami

आनंदकुमार स्वामी



किसी संस्कृति के लुप्त हो चुके ज्ञान का पुनरूद्वार पोथियों से नहीं, बल्कि लोक-विश्वासों, लोक रीतियों के एकाग्र अध्ययन-मनन से किया जा सकता है।

-आनंदकुमार स्वामी



Sunday, August 26, 2018

P.V Narasimha Rao_Sonia Gandhi_Babri Masjid






पीवी नरसिम्हा राव के दिल्ली में अंतिम संस्कार न होने का राज!

विनय सीतापति अपनी किताब 'द हाफ लायन' में लिखते हैं कि जब राव के एक दोस्त ने एक कांग्रेस नेता से गेट खोलने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, 'गेट नहीं खुलता है'.

वहीं मनमोहन सिंह ने कहा कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं है.

विनय सीतापति लिखते हैं, राव के बेटे प्रभाकरा कहते हैं कि हमें महसूस हुआ कि सोनिया (गाँधी) जी नहीं चाहती थीं कि हमारे पिता का अंतिम संस्कार दिल्ली में. वह (सोनिया गाँधी) यह भी नहीं चाहती थीं कि यहां उनका मेमोरियल बने.

Saturday, August 25, 2018

Partition city of Delhi_kuldeep nayyar remembers _कुलदीप नैय्यर की बंटवारे वाली दिल्ली

दैनिक जागरण, २४ अगस्त २०१८ 


इस सप्ताह दिवंगत हुए वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर का दिल्ली से अटूट संबंध था। 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ हुए बंटवारे का खामियाजा उनके परिवार को भी भुगतना पड़ा। नैय्यर अपनी मां से 120 रूपए लेकर स्यालकोट से दिल्ली पहुंचने वाले अपने परिवार के पहले सदस्य थे। वे दरियागंज में अपनी कुन्तो मौसी के पास पहुंचे, जिनके पति केन्द्रीय सचिवालय में हेड क्लर्क थे।


लेकिन यह बिलकुल साफ था कि 1940 के दशक के मध्य तक हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो चुकी थी कि बंटवारे जैसी कोई चीज लगभग एक अनिवार्यता बन गई थी। इतना ही नहीं वे मानते हैं कि पाकिस्तान की मांग को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित यूपी, बिहार और दिल्ली के उर्दूभाषी क्षेत्र थे-हालांकि लोगों को अच्छी तरह मालूम था कि अगर पाकिस्तान बन भी गया तो भी ये क्षेत्र उसमें शामिल नहीं हो सकेंगे। लेकिन उनकी मानसिकता को समझना इतना मुश्किल नहीं था।

नैय्यर के शब्दों वे अपने-आपको एक एक ऐसी कौम के रूप में देखते थे जो हजारों वर्षों तक हिन्दुस्तान पर राज कर चुकी थी। अंग्रेजों के जाने के बाद वे किसी ऐसी व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे जिसमें गिनती, ताकत या रूतबे के हिसाब से वे दबदबे की स्थिति में न हो। हिन्दुस्तान पर राज कर चुकने की भावना ने उनकी आंखों पर पर्दा डाल दिया था। वे यह नहीं देख पा रहे थे कि एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सत्ता की बागडोर बहुसंख्यकों के हाथ में रहना स्वाभाविक था।

उन्होंने अपनी आत्मकथा "एक जिन्दगी काफी नहीं" में इस बात का उल्लेख किया है। बकौल नैय्यर, 15 सितंबर (1947) को मैं दिल्ली पहुंचा तो शहर दंगों की चपेट में था। इसी कारण हमारी ट्रेन का रास्ता बदल दिया गया था और वह 24 घंटों तक मेरठ में रूकी रही थी। वे दिल्ली पहुंचने के तुरंत बाद सीधे बिड़ला हाउस गए थे जहां महात्मा गांधी रहा करते थे। गांधी जब भी दिल्ली में होते थे तो बिड़ला हाउस के बगीचे में प्रतिदिन एक प्रार्थना सभा को सम्बोधित किया करते थे। इन प्रार्थना सभाओं में पाकिस्तान से आए पंजाबी ज्यादा होते थे। नैय्यर ने लिखा है कि मेरी जिन्दगी पर जितना असर बंटवारे का पड़ा है उतना किसी और चीज का नहीं। बंटवारे ने मुझे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया। मुझे एक नए माहौल में नए सिरे से जिन्दगी शुरू करनी पड़ी।

40 के दशक में जामा मस्जिद के सामने कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्यालय था। इसी पार्टी के दिल्ली इकाई के सचिव मुहम्मद फारूकी उनकी पहली नौकरी का कारण बने। वैसे उससे पहले, उन्होंने "पीपुल्ज एज" नामक एक कम्युनिस्ट साप्ताहिक अखबार को सदर के एक चौराहे पर खड़ा होकर बेचने का काम भी किया।

फारसी में ग्रेज्युएट नैय्यर ने दिल्ली के एक उर्दू अखबार अंजाम में पत्रकारिता की पहली नौकरी की। उन्हीं के शब्दों में मेरे सहाफात (पत्रकारिता) का आगाज अन्जाम से हुआ। इस अखबार का मालिक मुहम्मद यासिन एक अच्छे रूतबे और पैसे वाला आदमी था।
नैय्यर के शब्दों में उनका अखबार मुस्लिम लीग और पाकिस्तान का खुलकर समर्थन करता रहा था और हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगलता रहा थां लेकिन अब बंटवारे के बाद अखबार के तेवर ढीले पड़ गए थे। उर्दू प्रेस ने नई सच्चाइयों का साथ समझौता करते हुए रातोरात अपना रूख बदल लिया था और कांग्रेस पार्टी का राग अलापना शुरू कर दिया था-हालांकि पिछले कई वर्षों से उर्दू प्रेस कांग्रेस को एक मुस्लिम विरोधी हिन्दू संस्था कहकर उसकी कड़ी भर्त्सना करती रही थी।

तत्कालीन दिल्ली में मुस्लिम समाज के मानस को रेखांकित करते हुए नैय्यर बताते हैं कि अखबार का दफ्तर बल्लीमारान नामक मुस्लिम इलाके में था, जो उजड़ा-उजड़ा सा दिखाई देता था। माहौल में एक भारीपन-सा था, जिसमें जाती हादसों की टीस बिलकुल साफ महसूस की जा सकती थी-एक ऐसे समुदाय का दर्द जिसकी हर उम्मीद मिट्टी में मिल चुकी थी।

मुसलमान ठगे हुए महसूस कर रहे थे। उन्होंने कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें बंटवारे की यह कीमत चुकानी पड़ेगी-उनके खिलाफ पूर्वाग्रहों भरा माहौल और हिन्दुओं की मांग कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। उन्हें शायद ही इस बात का अहसास था कि पाकिस्तान एक ऐसी सलीब थी जो आनेवाली कई पीढ़ियों तक उनके गले में झूलती रहेगी।


Saturday, August 18, 2018

Atali Bihari Vajpayee and his guru Shivmangal singh suman_अटल का साहित्यिक-गुरुतर नाता

शिवमंगल सिंह सुमन

यह एक कम जानी बात है कि हिन्दी के सुप्रसिद्व कवि डाॅक्टर शिवमंगल सिंह सुमन कभी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अध्यापक रहे थे। सन् 1999 की जनवरी में शिवमंगल सिंह को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। सम्मान समारोह परम्परा के अनुसार राष्ट्रपति भवन के अशोक हाल में आयोजित था। अलंकृत किए जाने वाले लोगों के साथ ही विशिष्ट दर्शकों की पहली पंक्ति में उपस्थित थे पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल, शीला गुजराल, सोनिया गांधी, लाल कृष्ण आडवाणी, उप राष्ट्रपति कृष्णकांत, प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी तथा अन्य अनेक विशिष्ट जन। आने पर आडवाणी भी अलंकृत होने वाले अपने परिचित लोगों से मिलने आए और प्रधानमंत्री भी। 


"क्या खोया, क्या पाया" पुस्तक में कन्हैयालाल नंदन, इस घटना का आंखो देखा हाल बताते हुए लिखा है कि सुमनजी मेरे ठीक आगे की कुर्सी पर विराजमान थे। अटलजी ने भीमसेन जोशी, लता मंगेशकर, जस्टिस अययर और सतीश गुजराल से मिलते हुए ज्यों ही आगे नजर दौड़ाई तो उनकी नजर सुमनजी पर पड़ गयी। अटलजी क्रम को भूल, हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुए पहले सुमनजी से मिले, उनकी कुशलक्षेम पूछी और तब अन्य लोगों से मुलाकात ही। अपने गुरूवर के प्रति उनका आंतरिक आदर-भाव उनकी आंखों में सहज उतरा हुआ देखा जा सकता था। उन्होंने कही स्वीकार भी किया है कि मुझे शिक्षकों का मान-सम्मान करने में गर्व की अनुभूति होती है।

यह अनायास नहीं था कि यह सुमन ही थे जिनका नाम संसद में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिया था। जिनकी कविता वाजपेयी ने तेरह दिन की सरकार के पतन के दिन संसद में पढ़कर सुनाई थी।
संघर्ष पथ पर जो मिले
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।


ये था गुरू के प्रति शिष्य का सम्मान, जिसने अपने गुरू की कविता पढ़ उसे पाठ्य पुस्तकों से निकाल जन सामान्य के बीच चर्चित कर दिया। इससे गुरू का मान सम्मान बढ़ा या नहीं, लेकिन शिष्य (अटलजी) के प्रति उज्जैनवासियों के मन में जो आदर भाव जागृत हुआ वह अनुभव ही किया जा सकता है, शब्दों में व्यक्त नहीं। 40 के दशक में ग्वालियर के विक्टोरिया काॅलेज में सुमन ने हिंदी पढ़ाई। वाजपेयी भी इसी काॅलेज के प्रसिद्ध छात्र नेता, कवि और लोकप्रिय वक्ता थे। 


जबकि 13 अक्तूबर 1995 को दिल्ली के सप्रू हाउस में अटलजी के काव्य संग्रह "मेरी इक्यावन कविताएं" के कार्यक्रम का औपचारिक शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने तो लोर्कापण विद्यानिवास मिश्र ने किया था। तब उन्होंने कहा था कि मुझे डाक्टर सुमनजी का आर्शीवाद मिला है। एक विद्यार्थी के रूप में मैंने उनसे प्रेरणा पाई है। मेरी अमर आग कविता उन्हीं की प्रेरणा से लिखी गई। 


उल्लेखनीय है कि अटलजी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी सुमन के गुरू थे। संस्कृत के विद्वान होने के साथ उनका ब्रज और खड़ी बोली पर अधिकार था। वे स्वयं कवि थे और उनकी प्रेरणा से ही सुमन काव्य लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। ऐसे पिता के पुत्र में कई विशेषताएं आ जाना स्वाभाविक बात है। कहते है कि 

होनहार बिरवान के होत चीकने पात।

नवीं कक्षा में पहली कविता "ताजमहल" लिखने वाले वाजपेयी के स्वभाव में उदारता और सामने वाले के लिए सहज सम्मान उनके कवि होने के कारण है तो इसलिए कि कविता ने उनकी मानवीय संवदेनशीलता को बनाए रखा है।


Saturday, August 11, 2018

Story of flag of three colours_tiranga_15 August_1947_तीन रंगों के झंडे की कहानी



सन् 1947 के आरंभ में ही स्पष्ट हो गया था कि भारत को अपनी रक्षा के लिए विभाजन स्वीकार करना ही होगा। अंग्रेज सरकार ने तो भारत की समस्या से पिंड छुड़ाने का निश्चय कर ही लिया था। फरवरी 1947 में प्रधानमंत्री एटली ने हाॅउस आॅफ कामंस में यह घोषणा की कि उनकी सरकार ने जून 1948 से पहले-पहले सत्ता भारत को सौंप देने का निश्चय कर लिया था। 14 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने नई दिल्ली के अधिवेशन में विभाजन को स्वीकार कर लिया। अंग्रेज सरकार ने भारतीय स्वाधीनता बिल का मसविदा तैयार किया और 12 जुलाई को वह स्वीकृत भी हो गया। भारत की अंतरिम सरकार ने विभाजन समिति नियुक्त की, और 15 अगस्त 1947 तक कुछ ही बातों का फैसला बाकी रह गया।

इन्हीं सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में नई दिल्ली स्थित भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 29 जुलाई 1947 को एक परिपत्र जारी किया। गृह मंत्रालय में उपसचिव जी. वी. बेडेकर की ओर से हस्ताक्षरित इस परिपत्र का विषय "भारतीय राष्ट्रीय ध्वज-15 अगस्त 1947 समारोह" था। यह पत्र सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत सूबा और बलूचिस्तान को छोड़कर सभी प्रांतीय सरकारों और चीफ कमीशनरों को भेजा गया था। पत्र में कहा गया था कि "भारत सरकार के संविधान सभा की ओर से स्वीकृत नए राष्ट्रीय ध्वज को अपनाया है। संविधान सभा के 22 जुलाई को अपनाए गए प्रस्ताव के अनुसार, यह प्रस्ताव पारित किया जाता है कि राष्ट्रीय ध्वज क्षैतिज आकार का तिरंगा होगा, जिसमें गहरा भगवा (केसरी), सफेद और गहरा हरा रंग समान अनुपात में होंगे। ध्वज के मध्य में सफेद पट्टी होगी,जिसमें गहरे नीले रंग का एक चक्र बना होगा जो कि चरखे का प्रतीक होगा। चक्र का आकल्पन (डिजाइन) सारनाथ की अशोक लाट पर बने सिंहचतुर्मुख के समान होना चाहिए। इस चक्र का व्यास, ध्वज की पट्टी की चौड़ाई के अनुपात में होगा। सामान्य रूप से ध्वज की चौड़ाई से उसकी लंबाई का अनुपात 2ः3 होना चाहिए।"

अगर इतिहास में झांके तो पता चलता है कि संविधान सभा के इस प्रस्ताव तक पहुंचने की कहानी इतनी सीधी नहीं है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यकारी समिति की कराची में 2 अप्रैल 1931 को हुई एक बैठक में सात सदस्यों की एक समिति गठित हुई। इस समिति के गठन का उद्देश्य आज के राष्ट्रीय ध्वज को लेकर उठी आपत्तियों सहित तिरंगे झंडे के सांप्रदायिक होने के आरोप को खारिज करने की जांच करना था। साथ ही, इसे कांग्रेस की स्वीकृति के लिए एक ध्वज की सिफारिश भी करनी थी।

इस समिति के सदस्यों में सरदार वल्लभाई पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मास्टर तारा सिंह, जवाहरलाल नेहरू, डी.बी. कालेलकर, डॉ एन. एस. हार्डिकर और डॉ पट्टाभी सीतारम्मैया शामिल थे। इस समिति को आवश्यक साक्ष्य एकत्र करने और 31 जुलाई 1931 से पहले कांग्रेस कार्य समिति को उसकी रिपोर्ट देने के लिए अधिकृत किया गया।

डॉ पट्टाभि सीतारमैया ने 4 अप्रैल 1931 को मछलीपट्टनम से समिति की ओर से विभिन्न प्रांतीय कांग्रेस समितियों और जन साधारण को अखबारों के माध्यम से एक प्रश्नावली वितरित की। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय ध्वज के आकल्पन (डिजाइन) को लेकर प्रांतों में रहने वाले विभिन्न समुदायों की विचारों को जानना और इस विषय में उनके सुझावों को आमंत्रित करना था। इस प्रश्नावली के उत्तर में, कांग्रेस की आठ प्रांतीय समितियों, पचास व्यक्तियों और केंद्रीय सिख लीग की कार्यकारी समिति ने अपने ज्ञापन भेजे। मुंबई में 7 जुलाई को हुई ध्वज समिति की बैठक में सरदार पटेल की उपस्थिति महत्वपूर्ण थी। ध्वज के संबंध में मूल रूप से यह माना गया था कि लाल और हरे रंग क्रमशः हिंदुओं और मुसलमानों तथा सफेद रंग अन्य समुदायों का प्रतीक है।

इस आशय पर आपत्ति जताते हुए सिखों का एक प्रतिनिधिमंडल दिसंबर 1929 में गांधी से मिला था। उसकी मांग थी कि ध्वज में उनके लिए एक रंग शामिल किया हो अथवा एक गैर-सांप्रदायिक ध्वज तैयार हो। जबकि समिति का मानना था कि वैसे तो ध्वज के इन रंगों के लिए विभिन्न व्याख्याएं दी गई हैं पर जनसाधारण के मन की भावनाएं मौजूदा ध्वज के लिए असहयोग आंदोलन, नागपुर में कांग्रेस के झंडा आंदोलन और 1930-31 के अहिंसक आंदोलन के कारण जुड़ गई हैं, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।

राष्ट्रीय ध्वज के रंगों और रचना (डिजाइन) के प्रश्नों पर एक सर्वसम्मति थी। इस बात को लेकर एकमत था कि राष्ट्रीय ध्वज में उसकी रचना के मूल रंग से अलग एक ही रंग का होना चाहिए। भारतीयों की प्राचीन परंपरा के अनुरूप अगर कोई एक रंग पूरी तरह से स्वीकार्य हो सकता है तो वह केसरी रंग है। इसलिए यह माना जा सकता है कि ध्वज केसरी रंग का होना चाहिए और उसमें रचना के अनुरूप नीले रंग का चरखा का होना चाहिए। यह समिति, राष्ट्रीय ध्वज के लिए केसरी या केसरिया रंग की सिफारिश करती है, जिसमें शीर्ष पर बाएं ओर नीला चरखा और ध्वज दंड की तरह चक्र।

प्रांतीय समितियों और अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्यों की राय को ध्यान में रखते हुए समिति ने केसरिया रंग के शीर्ष पर कोने में चरखा के चिन्ह वाले राष्ट्रीय ध्वज की अपनी सिफारिश को कार्यकारी समिति को सौंप दिया। लेकिन कार्यकारी समिति को यह अस्वीकार्य था और जो कि चर्चा के बाद अपने निष्कर्ष पर पहुंची। इस निष्कर्ष को अगस्त 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के समक्ष रखा गया, जहां गहन चर्चा के बाद तिरंगे को गहरे नीले रंग के साथ स्वीकार किया गया। साहस और बलिदान के लिए भगवा, सत्य और शांति के लिए सफेद और वफादारी और बहादुरी के लिए हरे रंग की सिफारिश की गई। इस तरह, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने एक प्रस्ताव के माध्यम से राष्ट्रीय ध्वज को आधिकारिक मान्यता प्रदान की।

Saturday, August 4, 2018

Delhi at the time of partition 1947_बंटवारे के दौर की दिल्ली_1947

04082018, दैनिक जागरण 







स्वतंत्रता और विभाजन दोनों की घोषणा 15 अगस्त 1947 को एक साथ हुई। बंटवारे पर असीम कटुता तथा दुख का अनुभव किया गया। जैसे-जैसे पाकिस्तान से धकेले हुए आतंकित हिंदू-सिख दिल्ली में आने लगे वैसे-वैसे राजधानी में उदासी और डर का वातावरण बैठता गया।

प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा, "एक जिन्दगी काफी नहीं" में उस समय का वर्णन करते हुए लिखते है कि 15 सितंबर को मैं दिल्ली पहुंचा तो शहर दंगों की चपेट में था। मुसलमान शहर से भाग रहे थे, उसी तरह जैसे हिन्दू और सिख पश्चिम पंजाब से भाग रहे थे। मुसलमान दिल्ली की गलियों में सुरक्षित नहीं थे, इसलिए उनमें से ज्यादा ने पुराने किले में शरण ले रखी थी। सरदार पटेल और संविधान परिषद के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद दोनों ने ही नेहरू के इस प्रस्ताव का विरोध किया था कि दिल्ली के कुछ रिहायशी इलाके मुसलमानों के लिए आरक्षित कर देने चाहिए।

अगस्त 1947 में देश के विभाजन के दौरान हुए रक्त-रंजित दंगों में दिल्ली के मुसलमानों पर भी संकट आया और वे बड़ी संख्या (लगभग दो लाख) में पाकिस्तान चले गये। मुस्लिम लीग का नेतृत्व भी यहां से विदा हुआ। ऐसे ही दिल्ली में 1951 में लगभग जिन पांच लाख हिंदू-सिख शरणार्थियों की गणना की गई थी उनमें से 95 प्रतिशत दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में ही बस गए।

प्यारेलाल की पुस्तक "महात्मा गांधीःपूर्णाहुति" के अनुसार, जून के अंतिम भाग में और जुलाई भर गांधीजी राजधानी में रहे। गांधी के शब्दों में, मैं नेताओं के बुलाने पर दिल्ली आया था, लेकिन अगर मुझसे पूछा जाय कि मैंने यहां क्या सिद्व किया, तो मुझे कहना पडे़गा कि उपयोगी कुछ नहीं। गांधी को लगा कि ऐसी स्थिति में मेरा सच्चा स्थान राजधानी में नहीं, किन्तु उन आदमियों के साथ है, जो पलटन टूट जाने पर भी मरते दम तक लड़ते रहते हैं। स्वाधीनता दिवस पर गांधीजी रोज से एक घंटे पहले अर्थात् 2 बजे जाग गये। वह महादेव देसाई का पांचवां श्राद्व दिवस था, इसलिए उन्होंने-ऐसे अवसर पर अपनी प्रथा के अनुसार-प्रातःकालीन प्रार्थना के बाद उपवास रखकर और संपूर्ण गीता का पाठ करके यह दिन मनाया।

आजादी की खुशी में बंटवारे का दर्द का बयान करते हुए "तमस" के लेखक भीष्म साहनी अपनी आत्मकथा "आज के अतीत" में लिखते हैं, मैंने साथ-ही-साथ दिल्ली की सड़कों पर शरणार्थियों की भीड़ भी देखी। एक ओर जश्न का-सा समां, दूसरी ओर बेघर लोगों की बदहाली, पर कुल मिलाकर वातावरण में आजादी की लहर का अधिक प्रभाव था। वे सबसे पहले 1947 में देश को आजादी मिलने का गवाह बनने की ललक से दिल्ली आए थे। बकौल साहनी पिताजी से यह कहकर कि मैं सप्ताह भर में लौट आऊंगा, कि मैं दिल्ली में आजादी का जश्न देखने जा रहा हूँ जब लालकिले पर भारत का झंडा लहराया जाएगा। जबकि दिल्ली पहुंचने की देर थी कि पता चल गया कि लौट पाना असम्भव हो गया है, रेलगाड़ियों का आना-जाना बन्द हो गया था। सहसा ही मेरे लिए सारा चित्रपट बदल गया। मेरे लिए ही क्यों, हमारे परिवार के लिए।

भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश) और प्रसिद्ध गांधीवादी सुचेता (मजूमदार) कृपलानी ने अपनी मधुरिम आवाज में संवैधानिक सभा में 14 अगस्त, 1947 की रात को एक विशेष सत्र के दौरान वंदे मातरम और जन-गण-मन गाया था। "गांधी बोध: गांधीवादियों के साथ फ्रेड जे ब्लूम का संवाद" पुस्तक में दिए एक साक्षात्कार में सुचेता के ही शब्दों में, विभाजन के उपरान्त जब शरणार्थी आ रहे थे, मैंने बहुत काम किया। वास्तव में, मैंने सरकार की ओर से उनकी देखरेख की जिम्मेदारी के लिए राजी होने के पूर्व ही पहल करते हुए शरणार्थियों को संगठित किया। सुचेता ने इसके लिए राजेन्द्र बाबू की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। बकौल सुचेता, मैंने सभी चीजें व्यवस्थित की और मैं दिल्ली में सैंकड़ों शरणार्थियों की देखभाल कर रही थी। बाद में, हम दूसरे भागों में भी फैले। शिविरों का संचालन करते हुए दो मास उपरान्त मेरे पास देखरेख में तीस हजार से भी ज्यादा लोग थे।



First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...