Monday, November 26, 2018

Life of 18 century Delhi _१८ वी सदी की दिल्ली का जनजीवन

२४/११/२०१८, दैनिक जागरण 



दिल्ली एक समृद्ध ऐतिहासिक पंरपरा के साथ सघन आबादी वाला शहर था जहां महजब, जाति और मोहल्ले का जुड़ाव जगजाहिर था। "कटरा" एक तरह से बाजार का वह केंद्र था, जहां थोक का कारोबार होता था। आज की पुरानी दिल्ली, मुगलों की शाहजहांनाबाद, में अलग-अलग कटरे ऐसे केन्द्रों के आस-पास विकसित हुए, जिनके नाम किसी सूबे के रहने वाले समूहों या वस्तुओं (कश्मीरी कटरा, कटरा नील, कटरा गोकुलशाह) पर आधारित थे। जबकि कूचों के नाम, वहां बिकने वाली वस्तुओं अथवा वहां रहने वाले किन्हीं प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम (मोहल्ला इमली, कूचा नवाब वजीर, कूचा घासीराम) पर रखे गए थे।


जबकि अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मराठा आधिपत्य के समय में मालीवाड़ा, चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा जैसे मोहल्ले अस्तित्व में आएं। यह बात मराठी प्रत्यय "वाडा" से इंगित होती है। मराठी में वाडा का अर्थ रहने की जगह होता है।  


उल्लेखनीय है कि अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल बादशाह शाह आलम II को वर्ष 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेनाएं अपने संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। तब लगभग सभी अधिकार मराठों के पास आ गए थे। गौरतलब है कि अंग्रेजों ने पटपटगंज की लड़ाई (वर्ष 1803) में मराठाओं को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया था। मुगल बादशाह तो बस नाम का ही शाह था, जिसके लिए "शाह आलम, दिल्ली से पालम" की कहावत मशहूर थी।


जबकि एक संप्रभु विदेशी ताकत के रूप में अंग्रेजों के सामने दिल्ली में अनेक समस्याएं थी। फिर भी अपने शासन को अलग दिखाने की गरज से वर्ष 1815 के गजट में दावा किया गया कि "अंग्रेजों के शांतिकाल" के पहले दस साल में शहर में जमीन का भाव दोगुना हो गया था।


तब दिल्ली को खाद्द्यान्नों की आपूर्ति दोआब क्षेत्र से होती थी। दोआब यानी दो नदियों- गंगा और यमुना-के बीच का इलाका। यह "दो" और "आब" (यानि पानी) शब्दों के जोड़ से बना है। जिसमें करीब आज के उत्तर प्रदेश के पांच जिले पूरे और करीब नौ जिले आंशिक रूप से आते हैं।

यमुना नदी के पूरब यानि शाहदरा, गाजियाबाद और पटपटगंज में अनाज मंडियां थी। ये मंडियां पुरानी दिल्ली के परकोटे भीतर बनी फतेहपुरी मस्जिद के नजदीक बाजार से जुड़ी हुई थी। दिल्ली के उत्तर-पश्चिम से सब्जियों और फलों की आपूर्ति होती थी, जो कि शहर के परकोटे से बाहर लाहौर जाने वाली जीटी रोड पर स्थित मुगलपुरा की सब्जी मंडी वाले थोक बाजार में बिकते थे। गौरतलब है कि वर्ष 1780 के दशक के अंत में ही दिल्ली शहर में साठ बाजार थे और अनाज की भरपूर मात्रा में आपूर्ति होती थी। 


वर्ष 1850 के बाद शहर में नागरिक आबादी के दबाव के कारण, चांदनी चौक और फैज बाजार की दो मुख्य सड़कों, जिसके बीच म शहर की दो प्रमुख नहरें बहती थी, की लंबाई के साथ-साथ घरों का निर्माण हुआ। एक मुगल माफीदार की संपत्ति मुगलपुरा स्थित सब्जी मंडी में ऊंची दीवारों, बगीचों वाले घर बने थे।

नारायणी गुप्ता की पुस्तक "दिल्ली बिटवीन टू एंपायर्स" के अनुसार, इन घरों के दक्षिण दिशा में दरगाह नबी करीम (कदम शरीफ के करीब), तेलीवाड़ा और सिदीपुरा (जिसे वर्ष 1773 में मेहर अली सिदी को दिया गया था) थे। ये सभी जहांनुमा गांव की राजस्व संपत्ति का हिस्सा थे।


जबकि राष्ट्रीय अभिलेखागार का वर्ष 1872 के "दिल्ली क्षेत्र में जागीर और छोटे देसी प्रमुखों की संपत्ति" शीर्षक वाला मानचित्र, दिल्ली के आसपास विशाल भूसम्पतियों को दर्शाता है। किसी नाम से पहले नवाब या राजा का उपयोग एक शासक के सम्मान में लिए जाने वाली उपाधि थी। यह बात समझने वाली है कि मुगल बादशाह जमीन के अलावा व्यक्तियों को उनकी सेवाओं और उपलब्धियों के लिए खिताब भी देते थे।

दिल्ली की संस्कृति उसकी परकोटे की दीवारों के भीतर निहित थी। प्रकृति के नजदीक होने की इच्छा एक व्यक्ति को शहर के बाहर नहीं देती थी क्योंकि ऐसा माना जाता था कि प्रकृति खुद बागों और शहर की आबोहवा में मौजूद थी। "अकबर-ए-रंगीन" किताब में सैयद मोइनुल हक ने लिखा है कि दिल्ली खास तौर अपनी आदमियत और नफासत भरे शहरी जीवन के लिए तारीफ-ए-काबिल जगह है।

Saturday, November 17, 2018

Begum Samru Kothi_बेगम समरू की कोठी




पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक  में एक इलाका आज भी कोठी बेगम समरू के नाम से प्रसिद्ध है। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया के पीछे एक विशाल भवन बना हुआ है, जिसे 19वीं शताब्दी की शुरुआत में बेगम समरू (1750-1836)  ने अपने रहने के लिए बनवाया था।

एक साधारण सी नाचने वाली के घर में जन्मी यह बेहद खूबसूरत मुसलमान लड़की फरजाना कैर्से इंसाई बनी, कैसे एक रियासत की बेगम बनी, यह भारत के इतिहास की एक दिलचस्प कहानी है। 1765 में फरजाना की दिल्ली में वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे से आंखे चार हुई और वह उसकी हो गई। सौम्ब्रे भाड़े पर लड़ने वाला यूरोपीय सैनिक था। जिसने अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जाट और बाद में मुगलों की ओर से अनेक लड़ाईयां लड़ी।

1776 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय  ने सौम्ब्रे को शाही सनद देते हुए सरधना की जागीर दी। सौम्ब्रे के साथ रहने के कारण फरजाना को लोग सौम्ब्रे के अपभ्रंश "सुमरू" से बुलाने लगे। बेगम तो उसके नाम के साथ था ही।

1778 में वाॅल्टर रिन्हाॅर्ड की मौत के बाद फरजाना ने बेगम समरू के रूप में सौम्ब्रे की सम्पन्न जागीर सरधना का 58 साल तक इंतजाम अपने हाथ में रखा। इस तरह बेगम समरू ने सरधना में एक लंबा और रंगभरा जीवन व्यतीत किया। सरधना में उसका बनवाया वास्तुकला की दृष्टि से बना एक बेजोड़ गिरजाघर उसकी याद दिलाता है। उल्लेखनीय है कि सरधना की जागीरदार बनने के बाद बेगम समरू ने कैथोलिक ईसाई मत अपनाते हुए अपना नाम जोआना (योहाना) रख लिया था।

मुगल बादशाह शाह आलम II ने 1806 में पुरानी दिल्ली में जहांआरा के बेगम का बाग के पूर्वी छोर का हिस्सा बेगम समरु को कोठी (हवेली) बनवाने के लिए दिया था। एक मोहल्ला इस स्थान को शेष बाग से अलग करता था। तब यह कोठी बाग के ठीक बीच में स्थित थी, जहां पर फूल और फलों के पेड़ लगे हुए थे। थॉमस मेटकाफ की "शाही दिल्ली के संस्मरण" नामक पुस्तक में कोठी के चित्रों को देखने से पता चलता है कि कोठी के साथ बनी इमारतों में बेगम के नौकरों के लिए घर, सैनिकों के लिए बैरकों के साथ एक अहाता, एक बड़ा कुआं और एक हम्माम बना हुआ था। अंग्रेजों की दिल्ली में बेगम समरू की कोठी अपने भव्य आयोजनों के लिए प्रसिद्ध थी। यही कारण है कि तब के ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े से बड़े पदाधिकारी बेगम का आतिथ्य स्वीकार करने में अपार आनन्द की अनुभूति अनुभव करते थे। 


बेगम समरू की मौत के बाद कोठी का मालिक उनका गोद लिया बेटा डाइस सौम्ब्रे बना। वह यहां कुछ समय रहने के बाद स्थायी रूप से इंगलैंड चला गया।

1847 में कोतवाली के करीब होने के कारण इस खाली कोठी का प्रशासनिक सुविधा के लिए बतौर कचहरी उपयोग होने लगा। उसके बाद तब के दिल्ली बैंक के मालिक और धनी हिंदू बैंकर लाला चूनामल ने इस कोठी को खरीदा। इस तरह यह आवासीय कोठी से एक बैंक में तब्दील हो गई। तब इसके अंग्रेज बैंक मैनेजर बेर्सफोर्ड इसके परिसर में ही अपने परिवार के साथ रहते थे।
1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई में बैंक होने के कारण यह कोठी स्वतंत्रता सेनानियों के निशाने पर थी। इसी कारण यह कोठी लूट-आगजनी का शिकार हुई। जब अंग्रेज सेना ने सिंतबर 1857 में दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो मुगल बादशाह को लालकिले में ले जाने से पहले कुछ समय यहां कैद रखा गया। 1859 के बाद इस कोठी में दोबारा बैकिंग का कामकाज शुरू हुआ पर इस बार लाॅयड बैंक के नाम से। साथ ही बैंक तक पहुंचने के लिए एक गली का रास्ता बनाया गया और दुकानें खुलीं, जहां कोठी के सामने बाग हुआ करता था। इतना ही नहीं, 1883-84 के दिल्ली के गजट में यहां के बाग को देखने लायक स्थानों में से एक बताया गया। 1922 में लॅायड बैंक ने यह संपत्ति तब की दिल्ली के नामी वकील मुंशी शिवनारायण को बेच दी। 1940 में मुंशी ने इसे एक व्यापारी लाला भगीरथ को बेच दिया। आज का भागीरथ प्लेस इन्हीं लाला भगीरथ के नाम पर है जहां दिल्ली का सबसे बड़ा बिजली उपकरणों का बाजार है।


Thursday, November 15, 2018

Mahtama Gandhi_Young India



"To be true to my faith, I may not write in anger or malice. I may not write idly. I may not write merely to excite passion. The reader can have no idea of the restraint I have to exercise from week to week in the choice of topics and my vocabulary. It is training for me. It enables me to peek into myself and to make discoveries of my weaknesses. Often my vanity dictates a smart expression or my anger a harsh adjective. It is a terrible ordeal but a fine exercise to remove these weeds."

-Mahtama Gandhi, in Young India

Sunday, November 11, 2018

Meer_Delhi_मीर_दिल्ली

मीर





बात की तर्ज़ को देखो, तो कोई जादू था. पर मिली ख़ाक़ में क्या सहर बयानी उसकी.. मर्सिये दिल के, कई कह के दिये लोगों को. शहरे-दिल्ली में है, सब पास निशानी उसकी.
-‘मीर’


Saturday, November 10, 2018

Delhi Famine in Tuglagh Era_तुगलककालीन दिल्ली का अकाल

10/11/2018, दैनिक जागरण 








दिल्ली का मध्यकालीन बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) अपने अनेक प्रयोगधर्मी निर्णयों के कारण चर्चित रहा। उसके व्यक्तित्व की जल्दबाजी और बेसब्री की प्रवृति के कारण उसे "बुद्धिमान मूर्ख राजा" कहा जाता था। अंग्रेज इतिहासकार एम. एम्फिस्टन के अनुसार मुहम्म्द बिन तुगलक में पागलपन का कुछ अंश था जबकि आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के अनुसार उसमें "विरोधी तत्वों का मिश्रण" था।

उल्लेखनीय है कि मुहम्मद तुगलक के समय दिल्ली में (सन् 1344) भयंकर अकाल पड़ा था। 1912 के "दिल्ली डिस्ट्रिक्ट गजेटियर" के अनुसार, दिल्ली में अकाल का इतिहास मुहम्मद तुगलक के समय तक पहुंचता है जिसकी फिजूलखर्ची के कारण 1344 ईस्वी का अकाल पड़ा, जिसमें, कहा जाता है कि मनुष्यों ने एक दूसरे को खाया। 

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौहदवीं शताब्दी का भारत पुस्तक के अनुसार, भारत वर्ष और सिंधु प्रांत में दुर्भिश पड़ने के कारण जब एक मन गेहूं छह दीनार में बिकने लगे। फ़रिश्ता तथा बदाऊंनी के अनुसार हिजरी सन् 742 में सैयद अहमदशाह गवर्नर (माअवर-कनार्टक) का विद्रोह शांत करने के लिए, बादशाह के दक्षिण ओर कुछ एक पड़ाव पर पहुँचते ही यह  दुर्भिश प्रारंभ हो गया था। बादशाह के दक्षिण से लौटते समय तक जनता इस कराल-अकाल के चंगुल में जकड़ी हुई थी। उल्लेखनीय है कि उत्तरी अफ्रीका का निवासी इब्न-बतूता चौहदवीं सदी में भारत आया और आठ वर्षों तक मुहम्मद तुगलक के दरबार में रहा। तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया और अपना दूत बनाकर चीन भेजा।

तुगलक के शासनकाल के आरंभ में ही गंगा के दोआब में एक गंभीर किसान विद्रोह हो चुका था। किसान गांवों से भाग खड़े हुए थे तथा तुगलक ने उनको पकड़कर सजा देने के लिए कठोर कदम उठाए थे। गौरतलब है कि दिल्ली के तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद तुगलक ने दोआब क्षेत्र में भू राजस्व कर में वृद्वि की। इतिहासकार बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों की भूमि कर के अतिरिक्त घरी, अर्थात गृहकर तथा चरही अर्थात चरागाह कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ। 

दुर्भाग्य से इन्हीं दिनों अकाल पड़ा और चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोहियों को कठोर दंड दिए। इस पर लोग खेती छोड़कर जंगलों में भाग गए। खेत वीरान हो गए और गांवों में सन्नाटा छा गया। शाही सेना ने लोगों को जंगलों से पकड़कर उन्हें कठोर यातनाएं दीं। इन यातनाओं से बहुत से लोग मर गए। यह मुहम्मद की अंतिम असफल योजना थी। तुगलक के बारे में इब्नेबतूता ने लिखा कि उसके दो प्रिय शौक थे, खुशफहमी में उपहार देना और क्रोध में खून बहाना। 

जाॅन डाउसन की पुस्तक "हिस्ट्री आॅफ इंडिया बाॅएं इट्स ओन हिस्टोरियंस" के अनुसार, माना जाता है कि कम या अधिक समूचा हिंदुस्तान (1344-45 का भारत) अकाल की चपेट में था, खासकर दक्कन में उसकी मार ज्यादा तकलीफदेह थी। 

"मध्यकालीन भारत" पुस्तक के लेखक-इतिहासकार सतीशचन्द्र के अनुसार, एक भयानक अकाल ने, जिसने इस क्षेत्र को छह वर्षों तक तबाह रखा, स्थिति को और बिगाड़ा। दिल्ली में इतने लोग मरे कि हवा भी महामारक हो उठी। यहां तक कि सुल्तान दिल्ली छोड़कर करीब 1337-40 तक स्वर्गद्वारी नामक शिविर में रहा जो दिल्ली से 100 मील दूर कन्नौज के पास गंगा के किनारे स्थित था।


Thursday, November 8, 2018

White Lightning_Famine_सफेद बिजली_दुर्भिक्ष




संस्कृत की एक स्मृति में लिखा है कि 

यदि सफेद बिजली चमके तो दुर्भिक्ष आता हैः 


वाताय कपिला विद्युत्, आतपायतिलोहिनी, पीता वर्षाय विज्ञेया, दुर्भिक्षाय सिता भवेत।


Saturday, November 3, 2018

Reality of Lakshmi gold coin of muhammad ghori_मोहम्मद गोरी के लक्ष्मी के सिक्के का सच

दैनिक जागरण, ३ नवम्बर २०१८



भारतीय साहित्य के इतिहास में सिक्कों का एक विशेष स्थान है। इनके द्वारा ही भारतीय इतिहास की अनेकों कड़ियों को जोड़ने में पुरातत्ववेता सफल हुए हैं। यह सिक्के अन्य प्रयोजनों के अतिरिक्त, प्राचीन भारतीयों की उपासना की परम्परा को भी समुचित रूप में दर्शाते हैं।


दिल्ली में विदेशी मुस्लिम शासनकाल तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और अफगान हमलावर मोहम्मद गोरी की जीत के साथ शुरू हुआ। गोरी के निसंतान होने के कारण दिल्ली में राज की जिम्मेदारी गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली।


उल्लेखनीय है कि सिक्का, फरमान और खुतबा (सिक्के, आदेश और प्रार्थना घोषणा) मध्ययुगीन मुस्लिम काल के ऐतिहासिक शोध की दृष्टि से साक्ष्य के आरंभिक बिंदु हैं। अगर इस हिसाब से देखें तो बात ध्यान आती है कि दिल्ली में गोरी काल के सिक्कों पर पृथ्वीराज के शासन वाले हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों और देवनागरी को यथावत रखा। गोरी ने दिल्ली में पाँव जमने तक पृथ्वीराज चौहान के समय में प्रचलित प्रशासकीय मान्यताओं में विशेष परिवर्तन नहीं किया। यही कारण है कि हिंदू सिक्कों में प्रचलित चित्र अंकन परंपरा के अनुरूप, इन सिक्कों में लक्ष्मी और वृषभ-घुड़सवार अंकित थे।

उदाहरण के लिए कुछ सिक्कों के चित में वृषभ और पट में घुड़सवार का अंकन है और पृथ्वी देव के स्थान पर मोहम्मद बिन साम का नाम उकेर दिया गया है। कुछ अन्य सिक्कों पर चित देवनागरी लिपि में चारों ओर ‘श्री हम्मीर’, ‘श्री महमूद साम’ तथा पट पर नन्दी की मूर्ति अंकित है। हम्मीर शब्द का अर्थ 'अमीर' है।

गौरतलब है कि शुरुआत में, अफगान विजेता ने एक तरफ लक्ष्मी और दूसरी तरफ नागरी लिपि में अपने नाम के साथ सोने के सिक्के जारी किए। गोरी का एक सिक्का ऐसा ही सिक्का, जिसके चित में बैठी हुई लक्ष्मी का अंकन है तो पट में देवनागरी में मुहम्मद बिन साम उत्कीर्ण है, दिल्ली में भारतीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस सिक्के का वजन 4.2 ग्राम है।
गोरी ने हिन्दू जनता को नई मुद्रा के चलन को स्वीकार न करने के “रणनीतिक उपाय” के रूप में हिन्दू शासकों,चौहान और तोमर वंशों, के सिक्कों के प्रचलन को जारी रखा। उस समय भी हिन्दी भाषा, जनता की भाषा थी और गोरी अपने शासन की सफलता के लिये भाषा का आश्रय लेना चाहता था। वह हिन्दू जनता को यह भरोसा दिलाना चाहता था कि यह केवल व्यवस्था का स्थानान्तरण मात्र है।

गोरी ने दूसरे चरण में, थोड़े समय के लिए एक तरफ अरबी अक्षर और दूसरी पर नागरी लिपि वाले सिक्के और अंत में दोनों तरफ अरबी अक्षरों वाले सिक्के जारी किए। इस तरह, दिल्ली में विदेशी मुस्लिम शासन की जड़े मजबूत होने के साथ ही सुलेख वाली कुफिक शैली में अरबी भाषा वाले सिक्कों से हिंदू जनता को बता दिया गया कि मोहम्मद गोरी नया हुक्मरान है, जिसका महजब इस्लाम है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने दिल्ली की महरौली में लाल कोट (या किला राय पिथौरा) के खंडहरों की दो बार खुदाई की थी। पहली बार, 1991-92 में और दूसरी बार 1994-95 में। यहां मिले 287 मध्यकालीन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व के अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, इस खुदाई के दौरान जमीन की विभिन्न परतों में चौहान और तोमर शासकों, मामलुक (13 वीं शताब्दी), और खिलजी (1290-1320) और तुगलक (14 वीं शताब्दी) सुल्तानों के समय के सिक्के पाए गए। यह अध्ययन भी इस बात को स्वीकारता है कि नए (विदेशी मुस्लिम) शासकों ने पूर्व प्रचलित सिक्कों का चलन बनाए रखा।







First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...