२४/११/२०१८, दैनिक जागरण |
Monday, November 26, 2018
Saturday, November 17, 2018
Begum Samru Kothi_बेगम समरू की कोठी
पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में एक इलाका आज भी कोठी बेगम समरू के नाम से प्रसिद्ध है। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया के पीछे एक विशाल भवन बना हुआ है, जिसे 19वीं शताब्दी की शुरुआत में बेगम समरू (1750-1836) ने अपने रहने के लिए बनवाया था।
एक साधारण सी नाचने वाली के घर में जन्मी यह बेहद खूबसूरत मुसलमान लड़की फरजाना कैर्से इंसाई बनी, कैसे एक रियासत की बेगम बनी, यह भारत के इतिहास की एक दिलचस्प कहानी है। 1765 में फरजाना की दिल्ली में वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे से आंखे चार हुई और वह उसकी हो गई। सौम्ब्रे भाड़े पर लड़ने वाला यूरोपीय सैनिक था। जिसने अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जाट और बाद में मुगलों की ओर से अनेक लड़ाईयां लड़ी।
1776 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने सौम्ब्रे को शाही सनद देते हुए सरधना की जागीर दी। सौम्ब्रे के साथ रहने के कारण फरजाना को लोग सौम्ब्रे के अपभ्रंश "सुमरू" से बुलाने लगे। बेगम तो उसके नाम के साथ था ही।
1778 में वाॅल्टर रिन्हाॅर्ड की मौत के बाद फरजाना ने बेगम समरू के रूप में सौम्ब्रे की सम्पन्न जागीर सरधना का 58 साल तक इंतजाम अपने हाथ में रखा। इस तरह बेगम समरू ने सरधना में एक लंबा और रंगभरा जीवन व्यतीत किया। सरधना में उसका बनवाया वास्तुकला की दृष्टि से बना एक बेजोड़ गिरजाघर उसकी याद दिलाता है। उल्लेखनीय है कि सरधना की जागीरदार बनने के बाद बेगम समरू ने कैथोलिक ईसाई मत अपनाते हुए अपना नाम जोआना (योहाना) रख लिया था।
मुगल बादशाह शाह आलम II ने 1806 में पुरानी दिल्ली में जहांआरा के बेगम का बाग के पूर्वी छोर का हिस्सा बेगम समरु को कोठी (हवेली) बनवाने के लिए दिया था। एक मोहल्ला इस स्थान को शेष बाग से अलग करता था। तब यह कोठी बाग के ठीक बीच में स्थित थी, जहां पर फूल और फलों के पेड़ लगे हुए थे। थॉमस मेटकाफ की "शाही दिल्ली के संस्मरण" नामक पुस्तक में कोठी के चित्रों को देखने से पता चलता है कि कोठी के साथ बनी इमारतों में बेगम के नौकरों के लिए घर, सैनिकों के लिए बैरकों के साथ एक अहाता, एक बड़ा कुआं और एक हम्माम बना हुआ था। अंग्रेजों की दिल्ली में बेगम समरू की कोठी अपने भव्य आयोजनों के लिए प्रसिद्ध थी। यही कारण है कि तब के ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े से बड़े पदाधिकारी बेगम का आतिथ्य स्वीकार करने में अपार आनन्द की अनुभूति अनुभव करते थे।
बेगम समरू की मौत के बाद कोठी का मालिक उनका गोद लिया बेटा डाइस सौम्ब्रे बना। वह यहां कुछ समय रहने के बाद स्थायी रूप से इंगलैंड चला गया।
1847 में कोतवाली के करीब होने के कारण इस खाली कोठी का प्रशासनिक सुविधा के लिए बतौर कचहरी उपयोग होने लगा। उसके बाद तब के दिल्ली बैंक के मालिक और धनी हिंदू बैंकर लाला चूनामल ने इस कोठी को खरीदा। इस तरह यह आवासीय कोठी से एक बैंक में तब्दील हो गई। तब इसके अंग्रेज बैंक मैनेजर बेर्सफोर्ड इसके परिसर में ही अपने परिवार के साथ रहते थे।
1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई में बैंक होने के कारण यह कोठी स्वतंत्रता सेनानियों के निशाने पर थी। इसी कारण यह कोठी लूट-आगजनी का शिकार हुई। जब अंग्रेज सेना ने सिंतबर 1857 में दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो मुगल बादशाह को लालकिले में ले जाने से पहले कुछ समय यहां कैद रखा गया। 1859 के बाद इस कोठी में दोबारा बैकिंग का कामकाज शुरू हुआ पर इस बार लाॅयड बैंक के नाम से। साथ ही बैंक तक पहुंचने के लिए एक गली का रास्ता बनाया गया और दुकानें खुलीं, जहां कोठी के सामने बाग हुआ करता था। इतना ही नहीं, 1883-84 के दिल्ली के गजट में यहां के बाग को देखने लायक स्थानों में से एक बताया गया। 1922 में लॅायड बैंक ने यह संपत्ति तब की दिल्ली के नामी वकील मुंशी शिवनारायण को बेच दी। 1940 में मुंशी ने इसे एक व्यापारी लाला भगीरथ को बेच दिया। आज का भागीरथ प्लेस इन्हीं लाला भगीरथ के नाम पर है जहां दिल्ली का सबसे बड़ा बिजली उपकरणों का बाजार है।
Thursday, November 15, 2018
Mahtama Gandhi_Young India
"To be true to my faith, I may not write in anger or malice. I may not write idly. I may not write merely to excite passion. The reader can have no idea of the restraint I have to exercise from week to week in the choice of topics and my vocabulary. It is training for me. It enables me to peek into myself and to make discoveries of my weaknesses. Often my vanity dictates a smart expression or my anger a harsh adjective. It is a terrible ordeal but a fine exercise to remove these weeds."
-Mahtama Gandhi, in Young India
Sunday, November 11, 2018
Saturday, November 10, 2018
Delhi Famine in Tuglagh Era_तुगलककालीन दिल्ली का अकाल
10/11/2018, दैनिक जागरण |
दिल्ली का मध्यकालीन बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) अपने अनेक प्रयोगधर्मी निर्णयों के कारण चर्चित रहा। उसके व्यक्तित्व की जल्दबाजी और बेसब्री की प्रवृति के कारण उसे "बुद्धिमान मूर्ख राजा" कहा जाता था। अंग्रेज इतिहासकार एम. एम्फिस्टन के अनुसार मुहम्म्द बिन तुगलक में पागलपन का कुछ अंश था जबकि आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के अनुसार उसमें "विरोधी तत्वों का मिश्रण" था।
उल्लेखनीय है कि मुहम्मद तुगलक के समय दिल्ली में (सन् 1344) भयंकर अकाल पड़ा था। 1912 के "दिल्ली डिस्ट्रिक्ट गजेटियर" के अनुसार, दिल्ली में अकाल का इतिहास मुहम्मद तुगलक के समय तक पहुंचता है जिसकी फिजूलखर्ची के कारण 1344 ईस्वी का अकाल पड़ा, जिसमें, कहा जाता है कि मनुष्यों ने एक दूसरे को खाया।
इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौहदवीं शताब्दी का भारत पुस्तक के अनुसार, भारत वर्ष और सिंधु प्रांत में दुर्भिश पड़ने के कारण जब एक मन गेहूं छह दीनार में बिकने लगे। फ़रिश्ता तथा बदाऊंनी के अनुसार हिजरी सन् 742 में सैयद अहमदशाह गवर्नर (माअवर-कनार्टक) का विद्रोह शांत करने के लिए, बादशाह के दक्षिण ओर कुछ एक पड़ाव पर पहुँचते ही यह दुर्भिश प्रारंभ हो गया था। बादशाह के दक्षिण से लौटते समय तक जनता इस कराल-अकाल के चंगुल में जकड़ी हुई थी। उल्लेखनीय है कि उत्तरी अफ्रीका का निवासी इब्न-बतूता चौहदवीं सदी में भारत आया और आठ वर्षों तक मुहम्मद तुगलक के दरबार में रहा। तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया और अपना दूत बनाकर चीन भेजा।
तुगलक के शासनकाल के आरंभ में ही गंगा के दोआब में एक गंभीर किसान विद्रोह हो चुका था। किसान गांवों से भाग खड़े हुए थे तथा तुगलक ने उनको पकड़कर सजा देने के लिए कठोर कदम उठाए थे। गौरतलब है कि दिल्ली के तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद तुगलक ने दोआब क्षेत्र में भू राजस्व कर में वृद्वि की। इतिहासकार बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों की भूमि कर के अतिरिक्त घरी, अर्थात गृहकर तथा चरही अर्थात चरागाह कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ।
दुर्भाग्य से इन्हीं दिनों अकाल पड़ा और चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोहियों को कठोर दंड दिए। इस पर लोग खेती छोड़कर जंगलों में भाग गए। खेत वीरान हो गए और गांवों में सन्नाटा छा गया। शाही सेना ने लोगों को जंगलों से पकड़कर उन्हें कठोर यातनाएं दीं। इन यातनाओं से बहुत से लोग मर गए। यह मुहम्मद की अंतिम असफल योजना थी। तुगलक के बारे में इब्नेबतूता ने लिखा कि उसके दो प्रिय शौक थे, खुशफहमी में उपहार देना और क्रोध में खून बहाना।
जाॅन डाउसन की पुस्तक "हिस्ट्री आॅफ इंडिया बाॅएं इट्स ओन हिस्टोरियंस" के अनुसार, माना जाता है कि कम या अधिक समूचा हिंदुस्तान (1344-45 का भारत) अकाल की चपेट में था, खासकर दक्कन में उसकी मार ज्यादा तकलीफदेह थी।
"मध्यकालीन भारत" पुस्तक के लेखक-इतिहासकार सतीशचन्द्र के अनुसार, एक भयानक अकाल ने, जिसने इस क्षेत्र को छह वर्षों तक तबाह रखा, स्थिति को और बिगाड़ा। दिल्ली में इतने लोग मरे कि हवा भी महामारक हो उठी। यहां तक कि सुल्तान दिल्ली छोड़कर करीब 1337-40 तक स्वर्गद्वारी नामक शिविर में रहा जो दिल्ली से 100 मील दूर कन्नौज के पास गंगा के किनारे स्थित था।
Thursday, November 8, 2018
Saturday, November 3, 2018
Reality of Lakshmi gold coin of muhammad ghori_मोहम्मद गोरी के लक्ष्मी के सिक्के का सच
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...