Saturday, November 17, 2018

Begum Samru Kothi_बेगम समरू की कोठी




पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक  में एक इलाका आज भी कोठी बेगम समरू के नाम से प्रसिद्ध है। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया के पीछे एक विशाल भवन बना हुआ है, जिसे 19वीं शताब्दी की शुरुआत में बेगम समरू (1750-1836)  ने अपने रहने के लिए बनवाया था।

एक साधारण सी नाचने वाली के घर में जन्मी यह बेहद खूबसूरत मुसलमान लड़की फरजाना कैर्से इंसाई बनी, कैसे एक रियासत की बेगम बनी, यह भारत के इतिहास की एक दिलचस्प कहानी है। 1765 में फरजाना की दिल्ली में वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे से आंखे चार हुई और वह उसकी हो गई। सौम्ब्रे भाड़े पर लड़ने वाला यूरोपीय सैनिक था। जिसने अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जाट और बाद में मुगलों की ओर से अनेक लड़ाईयां लड़ी।

1776 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय  ने सौम्ब्रे को शाही सनद देते हुए सरधना की जागीर दी। सौम्ब्रे के साथ रहने के कारण फरजाना को लोग सौम्ब्रे के अपभ्रंश "सुमरू" से बुलाने लगे। बेगम तो उसके नाम के साथ था ही।

1778 में वाॅल्टर रिन्हाॅर्ड की मौत के बाद फरजाना ने बेगम समरू के रूप में सौम्ब्रे की सम्पन्न जागीर सरधना का 58 साल तक इंतजाम अपने हाथ में रखा। इस तरह बेगम समरू ने सरधना में एक लंबा और रंगभरा जीवन व्यतीत किया। सरधना में उसका बनवाया वास्तुकला की दृष्टि से बना एक बेजोड़ गिरजाघर उसकी याद दिलाता है। उल्लेखनीय है कि सरधना की जागीरदार बनने के बाद बेगम समरू ने कैथोलिक ईसाई मत अपनाते हुए अपना नाम जोआना (योहाना) रख लिया था।

मुगल बादशाह शाह आलम II ने 1806 में पुरानी दिल्ली में जहांआरा के बेगम का बाग के पूर्वी छोर का हिस्सा बेगम समरु को कोठी (हवेली) बनवाने के लिए दिया था। एक मोहल्ला इस स्थान को शेष बाग से अलग करता था। तब यह कोठी बाग के ठीक बीच में स्थित थी, जहां पर फूल और फलों के पेड़ लगे हुए थे। थॉमस मेटकाफ की "शाही दिल्ली के संस्मरण" नामक पुस्तक में कोठी के चित्रों को देखने से पता चलता है कि कोठी के साथ बनी इमारतों में बेगम के नौकरों के लिए घर, सैनिकों के लिए बैरकों के साथ एक अहाता, एक बड़ा कुआं और एक हम्माम बना हुआ था। अंग्रेजों की दिल्ली में बेगम समरू की कोठी अपने भव्य आयोजनों के लिए प्रसिद्ध थी। यही कारण है कि तब के ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े से बड़े पदाधिकारी बेगम का आतिथ्य स्वीकार करने में अपार आनन्द की अनुभूति अनुभव करते थे। 


बेगम समरू की मौत के बाद कोठी का मालिक उनका गोद लिया बेटा डाइस सौम्ब्रे बना। वह यहां कुछ समय रहने के बाद स्थायी रूप से इंगलैंड चला गया।

1847 में कोतवाली के करीब होने के कारण इस खाली कोठी का प्रशासनिक सुविधा के लिए बतौर कचहरी उपयोग होने लगा। उसके बाद तब के दिल्ली बैंक के मालिक और धनी हिंदू बैंकर लाला चूनामल ने इस कोठी को खरीदा। इस तरह यह आवासीय कोठी से एक बैंक में तब्दील हो गई। तब इसके अंग्रेज बैंक मैनेजर बेर्सफोर्ड इसके परिसर में ही अपने परिवार के साथ रहते थे।
1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई में बैंक होने के कारण यह कोठी स्वतंत्रता सेनानियों के निशाने पर थी। इसी कारण यह कोठी लूट-आगजनी का शिकार हुई। जब अंग्रेज सेना ने सिंतबर 1857 में दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो मुगल बादशाह को लालकिले में ले जाने से पहले कुछ समय यहां कैद रखा गया। 1859 के बाद इस कोठी में दोबारा बैकिंग का कामकाज शुरू हुआ पर इस बार लाॅयड बैंक के नाम से। साथ ही बैंक तक पहुंचने के लिए एक गली का रास्ता बनाया गया और दुकानें खुलीं, जहां कोठी के सामने बाग हुआ करता था। इतना ही नहीं, 1883-84 के दिल्ली के गजट में यहां के बाग को देखने लायक स्थानों में से एक बताया गया। 1922 में लॅायड बैंक ने यह संपत्ति तब की दिल्ली के नामी वकील मुंशी शिवनारायण को बेच दी। 1940 में मुंशी ने इसे एक व्यापारी लाला भगीरथ को बेच दिया। आज का भागीरथ प्लेस इन्हीं लाला भगीरथ के नाम पर है जहां दिल्ली का सबसे बड़ा बिजली उपकरणों का बाजार है।


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