Saturday, December 29, 2018

Hazrat Nizamuddin Aulia_दोस्त-दुश्मन के हमसाया, हजरत निजामुद्दीन औलिया





हर साल नवंबर महीने में देश भर के विभिन्न स्थानों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु दिल्ली आते हैं। इन सभी का उद्देश्य 14 वीं सदी के चिश्ती हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करना होता है। उनके नाम से ही दिल्ली का एक इलाका निजामुद्दीन के नाम से जाना जाता हैं। वे इस मकबरे में सालाना उर्स मनाने के लिए जमा होते हैं। 

पिछली सदियों में हुए अनेक परिवर्तनों के बावजूद निजामुद्दीन दरगाह आज भी दिल्ली की वास्तुकला शिल्प के हिसाब से बेहद उम्दा इमारतों में से एक है। संसद भवन से करीब पांच मील दक्षिण की ओर दिल्ली-मथुरा रोड पर हजरत के नाम से पुकारे जाने वाले इलाके में अनेक ऐतिहासिक इमारतों के बीच यह दरगाह मौजूद है। 

मशहूर चिश्ती पीरों की परंपरा में शेख निजामुद्दीन चौथे थे। पहले मुईनुद्दीन चिश्ती, दूसरे कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, तीसरे शेख फरीदुद्दीन मसूद शकरगंज थे। शेख निजामुद्दीन, मसूदगंज के चेले थे। शेख निजामुद्दीन के पूर्वज मध्य एशियाई शहर बुखारा से भारत आए थे। उनके पिता का नाम ख्वाजा अहमद और मां का नाम बीबी जुलैखा था। कम उम्र में पिता के देहांत के कारण उनका लालन-पालन उनकी मां ने ही किया। 

उन्होंने जवान होने के बाद दिल्ली के ख्वाजा शम्सुद्दीन, जो कि बाद में गुलाम वंश के बादशाह बलबन के वजीर भी बने, मौलाना अमीनुद्दीन और कमालुद्दीन की देखरेख में हुई। लगभग बीस वर्ष की उम्र में शेख निजामुद्दीन पाकपटन गए और शेख फरीदुद्दीन मसूद शकरगंज के शिष्य बन गए। पाकपटन में कुछ समय रहने के बाद वे वापस दिल्ली लौट आए और इबादत में अपना सरल जीवन बिताने लगे। कुछ समय बाद उनकी शोहरत फैलने लगी और उनके श्रद्धालु प्रशंसक बड़ी संख्या में आने लगे। कई बादशाह, दरबारी, और शाही खानदान के सदस्य उनके अनुयायी थे। यह इस बात से साफ होता है कि दिल्ली के शाही खानदान के कई सदस्य उनकी दरगाह के अहाते में दफनाए गए। 

89 वर्ष की उम्र में वे बीमार पड़े और वर्ष 1325 को उनका इंतकाल हुआ। उनके प्रमुख शिष्य अमीर खुसरो ने शेख निजामुद्दीन औलिया को दिलों का हकीम कहा है। जबकि इकबाल ने उनके बारे में लिखा है कि 
तेरे लहद की जियारत है जिंदगी दिल की, 
मसीह व खिज्र से ऊंचा मकाम है तेरा।

उनकी लोकप्रियता का अनुमान समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी के "तारीख फीरोजशाही" में इस कथन से लगाया जा सकता है कि उस युग में (यानी अलाउद्दीन खिलजी के युग में) शेखुल-इस्लाम निजामुद्दीन ने दीक्षा के द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिए थे-पापों से तौबा, प्रायश्चित कराते और उनको कंधा, गुदड़ी देते थे और अपना शिष्य बनाते थे। श्रद्वालुओं ने नगर से ग्यासपुर तक विभिन्न गांवों के चबूतरे बनवाकर उन पर छप्पर डाल दिए थे और कुएं खुदवाकर वहां मटके, कटोरे, और मिट्टी के लोटे रख दिए थे। शेख निजामुद्दीन औलिया उस युग में जुनैद व शेख बायजीद के समान थे।

अमीर खुसरो ने उनके संबंध में यह लिखकर सब कुछ कह दिया-
मिसाले आस्मां बर दुश्मन व दोस्त
कि शेख मन मुबारक नुस्ख-ए ओस्त
(आकाश की भांति मेरे शेख का साया मित्र और शत्रु दोनों पर है)



Sunday, December 23, 2018

Saint James Church_Delhi_दिल्ली का सेंट जेम्स चर्च

22122018_Dainik Jagran




1826 में किराए पर लड़ने वाले एक अंग्रेज सैनिक जेम्स स्किनर ने प्रोटेस्टेंट मत को मानने वाले ईसाइयों के लिए पहली बार पुरानी दिल्ली के कश्मीरी गेट के पास सेंट जेम्स गिरजाघर बनवाया था। स्किनर पहले ग्वालियर महाराजा की चाकरी में था। जब महाराजा ग्वालियर अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार हुए तो इसने उनकी नौकरी छोड़ दी और ईस्ट इंडिया कंपनी की मुलाजमत कर ली।


सेंट जेम्स चर्च के निर्माण के लिए नवाब अली मर्दन खान की 17 वीं शताब्दी की हवेली की जद वाली जमीन तय हुई। यह गिरजाघर 1826 से 1836 तक दस वर्ष नब्बे हजार की लागत में बन कर तैयार हुआ। यह इमारत बहुत सुंदर बनी हुई है। गुम्बद कमरखी है। उस पर सुनहरी सलीब लगी हुई है। कमरों में संगमरमर का फर्श है।

1857 की आजादी की पहली लड़ाई में यह जंग का मैदान भी रहा। तब हुई लड़ाई में गोलाबारी से गिरजाघर के गुम्बद को नुकसान पहुंचा था और वह गिर गया था। 1865 में उसे ठीक करवाया गया। तब गिरजा पर एक तांबे का गोला लगा हुआ था, जो 1883 में उतारकर नीचे रख दिया गया। यह एक चबूतरे पर रखा हुआ है।

यह गिरजाघर लाल किले के उत्तर और कश्मीरी गेट के दक्षिण के मध्य में अंग्रेजों की बसावट वाले गलियारे के ठीक बीच में बना था। महत्वपूर्ण बात यह है कि 1911 में जब अंग्रेज भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली घोषित हुई तब यह भारत में अंग्रेज सरकार का आधिकारिक गिरजाघर था। जबकि नई दिल्ली के निर्माण के बाद 1931 में चर्च ऑफ रिडेमशन को यह दर्जा मिला। यह स्थान लालकिले के उत्तर वाले क्षेत्र का हिस्सा था जिसे अंग्रेजों ने अपने उपयोग के लिए चिन्हित किया था। तब यह स्थान अंग्रेजों के गलियारे के केन्द्र में स्थित था, जिसके पास सड़क का एक घेरा था। उसके पड़ोस में महत्वपूर्ण अंग्रेज प्रतिष्ठान थे, जैसे पश्चिम दिशा में स्किनर की जागीर-उत्तर दिशा में कर्नल फॉस्टर का घर और दक्षिण में अंग्रेज रेसिडेंसी बनी हुई थी।

यह गिरजाघर दिल्ली में अंग्रेज आबादी की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ सांकेतिक रूप से दिल्ली के शहरी भूदृश्य में अंग्रेजों की पहचान का भी प्रतीक था। एक तरह से मस्जिदों के गुंबदों और मीनारों की बहुलता वाले शहरी परिदृश्य में सेंट जेम्स गिरजाघर का गुंबद एक प्रमुख तत्व के रूप में उभरकर सामने आया।

एक तरह से, यह गिरजाघर न केवल भारतीयों बल्कि यूरोपीय नागरिकों के लिए भी एक सहज जिज्ञासा का केन्द्र था। इसका कारण यह था कि यह गिरजाघर भारतीय उपमहाद्वीप में बने अधिकतर जेम्स गिब्ब के सेंट मार्टिन-इन-द-फील्ड्स के डिजाइन पर आधारित नहीं था। यह गिरजाघर एक व्यक्ति की पहल का परिणाम था। कुछ लोग इसके डिजाइन का श्रेय स्किनर को तो कुछ कर्नल रॉबर्ट स्मिथ और बंगाल इंजीनियर के कैप्टन डी बुडे को देते हैं।

इस स्थान पर गिरजाघर परिसर के साथ एक दीवार का परकोटा भी था। एक बगीचे के रूप में विकसित इस स्थान में एक कब्रिस्तान भी था। जहां विलियम फ्रेजर की कब्र है, जो 1835 में कत्ल हुआ था। गिरजे के उत्तर-पूर्वी कोने में थॉमस मेटकॉफ की कब्र है। वह आजादी की पहली लड़ाई के समय में मजिस्ट्रेट था। इसी ने मेटकॉफ हॉउस बनवाया था। इसके अलावा स्किनर खानदान वालों की कई कब्रें इस गिरजे के चारदीवारी में बनी हुई है।

Wednesday, December 19, 2018

Rahi Masoom Raza_Katra bi arjoo_राही मासूम रजा_कटरा बी आर्जू



रोशनाई के लिए अपने को बेचा किये हम,ताकि सिर्फ इसलिए कुछ लिखने से बाकी न रहे,कि कलम खुश्क थे और लिखने से मजबूर थे हम,

-राही मासूम रजा
(कटरा बी आर्जू: आपातकाल की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास )

Saturday, December 15, 2018

Cinematic voyage of Old Delhi Theaters_जगत से मोती तक का सिनेमाई सफर

15122018_दैनिक जागरण 





राजधानी के सिनेमाई इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि चांदनी चौक में दिल्ली के सबसे पुराने सिनेमा हॉल हैं। इनमें से अधिकतर 1930 के आरंभिक दशक में अस्तित्व में आए तो कुछ-एक उससे भी पुराने हैं। उस दौर में हर सिनेमाघर के अपने वफादार दर्शक थे जैसे मुसलमानों का पसंदीदा जामा मस्जिद के करीब “जगत” था तो हिंदू चांदनी चौक की तंग गलियों में बने “मोती” को पसंद करते थे। उस जमाने में विक्टोरियाई और मुगल वास्तुकला के मिश्रण में बना अर्धगुम्बज मोती की पहचान था।


मोती को थिएटर से सिनेमा बनाने का श्रेय फिल्म वितरक सी. बी. देसाई को जाता है। जिन्होंने 1938 में इसे खरीदकर नया स्वरूप देते हुए जर्मनी से आयातित प्रोजेक्शन यंत्र लगवाया। साथ ही चार से सात आने में मिलने वाले टिकट का दाम एक रूपए कर दिया। तब मोती को पत्थरवालों का टाकीज भी कहा जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मोती लालकिले के सामने बने पत्थर तराशों का बाजार के करीब था।


यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि आजादी से पहले मोती में हॉलीवुड की फिल्में प्रदर्शित होती थी। यह सिलसिला 50 के शुरूआती वर्षों तक बना रहा जब रविवार को दोपहर में हॉलीवुड फिल्में दिखाई जाती थी। मोती में आरके बैनर की सभी फिल्में-"आवारा", "जागते रहो", "बरसात", "जिस देश में गंगा बहती है", "संगम" और "मेरा नाम जोकर"-नियमित रूप से प्रदर्शित हुई। यह राजकपूर का पसंदीदा सिनेमाघर था, जहां वे हमेशा अपनी फिल्मों के प्रीमियर पर उपस्थित होते थे।

ऐेसे ही सोहराब मोदी-मेहताब की "झांसी की रानी" (1956) के प्रदर्शन के समय फिल्म के प्रचार के लिए नायाब तरीका अपनाया गया था। तब हर रोज चांदनी चौक में चूड़ीदार पाजामा पहने और हाथ में तलवार लिए सिपाहियों का एक जुलूस निकलता था जो कि भारतीय वीरांगना के जीवन पर आधारित फिल्म के महत्व को दर्शाता था। बाद में 70 और 80 के दशकों में यह मनमोहन देसाई की बड़ी बजट की फिल्मों का केन्द्र बना। अमिताभ बच्चन अभितीत "देश प्रेमी" (1982) "कुली" (1983) और "मर्द" (1985) ऐसी ही फिल्में थीं, जिन्हें देखने के लिए भारी संख्या में दर्शक जुटे।

जामा मस्जिद इलाके में मछली बाजार के नजदीक होने के कारण जगत सिनेमा मछलीवालों का टॉकीज कहलाता था। तीस के आरंभिक दशक में मूक फिल्मों की समाप्ति के साथ जगत ने भी थिएटर से सिनेमा होने का सफर तय किया। पहले इसका नाम “निशत” था जो कि 1938 में बदलकर जगत हो गया।

जगत में अधिकतर मुस्लिम समाज के कथानक पर आधारित फिल्में प्रदर्शित होती थीं। जामा मस्जिद से नजदीकी के कारण यहां फिल्मों के चयन-प्रदर्शन पर खास ध्यान रखा जाता था। देह प्रदर्शन वाली फिल्मों का तो सवाल ही नहीं था।  

आजादी से पहले यहां पर "आलमआरा" (1931) "तानसेन" (1943) "जीनत" (1945) और बाद में "अनारकली" (1953) और "नागिन" (1954) जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई। यहां तक कि "नागिन" फिल्म में लता मंगेशकर के गाए और वैजयंती माला पर फिल्माए मन डोले मेरा तन डोले पर दर्शकों ने पर्दे पर सिक्के फेंके। इस फिल्म की यहां पर सिल्वर जुबली होने पर वैजयंती माला को छोड़कर पूरे फिल्मी कलाकार यहां आए थे।

1966 में यहां पर प्रदर्शित "फूल और पत्थर" की सिल्वर जुबली के मौके पर मीना कुमारी और धर्मेंद्र एक समारोह में यहां आए थे। इस फिल्मी जोड़ी के स्वागत के लिए दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ी थी। हालत यह हुई कि उन्हें अपनी कार को दरियागंज ही छोड़कर पैदल जगत तक आना पड़ा था। इसी तरह, 1976 में लैला मजनूं के प्रदर्शन के समय ऋशि कपूर-रंजीता की जोड़ी का खास स्वागत हुआ था। इस प्रेम कहानी वाली फिल्म ने भी जगत में गोल्डन जुबली मनाई थी। 


जगत में 1975 में प्रदर्शित “दयार ए मदीना” बेहद सफल रही थी। इस फिल्म को देखने के लिए दाढ़ी वाले मौलनाओं और बुर्काधारी औरतों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। यहां तक कि जगत सिनेमा के प्रबंधन ने स्थानीय मौलवियों के अनुरोध पर फिल्म के प्रदर्शन की अवधि को दो सप्ताह के लिए बढ़ा दिया था। 1981 में प्रदर्शित “शमां” नामक फिल्म के पहले सप्ताह में उसके निर्माता कादर खान यहां पहुंचे थे, जिनका दर्शकों खासकर महिलाओं ने जोरदार स्वागत किया था।   

फिल्म देखने के लिए सिनेमा आने वाले दर्शक बाहर रखे एक दराज में अपने जूतों उतारने के बाद ही फिल्म देखते थे। यहां तक कि कुछ तो अपने साथ अगरबत्ती भी लाते थे। तब यहां पर सामने वाली सीट का दाम एक कोला से भी कम होता था। तब कोला एक रूपए में आता था जबकि टिकट 75 पैसे में।


Saturday, December 8, 2018

Dhaka village of British Raj_दिल्ली में अंग्रेजी राज का गवाह ढका गांव

08122018_दैनिक जागरण 

दिल्ली विधानसभा से किंग्सवे कैंप चौराहे से दाई तरफ मुड़ने पर रास्ता, वर्ष 1911 में अंग्रेज भारत में हुए तीसरे दिल्ली दरबार के स्मारक की तरफ जाता है। उल्लेखनीय है कि 12 दिसंबर 1911 को दिल्ली में हुए दरबार में अंग्रेज सम्राट जार्ज पंचम ने घोषणा की कि देश की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली हो गई है। शहर के उत्तर में पुरानी सिविल लाइन में अस्थायी भवनों का निर्माण किया गया और वाइसराय को रिज के दूसरी ओर के भवन में ठहराया गया, जहां 1857 में घेरा डालने वाली अंग्रेज सेना ने एक बार शिविर लगाया था। आज यहां परमानंद कॉलोनी के रूप में एक भरी-पूरी आबादी बस गई है, जहां मकान-दुकान से लेकर सदाबहार बाजार हैं। यह बानगी सरसरी तौर पर देखने में बेहद अच्छी लगती है पर इसके मूल में कम व्यक्तियों की ही दृष्टि जाती है। और वह है एक छोटा-सा गांव जो कि आज भी अपने मूल नाम ढका के साथ महानगरीय चकाचौंध में अपना अस्तित्व बनाए हुए है।


1920 के दशक में ढका गांव भी, देश के दूसरे हजारों गांवों की तरह एक गांव था। जो कि इम्पीरियल सेक्रेटेरियट के कनिष्ठ कर्मचारियों, छोटा साहब लोग, के टेंट वाली बसावट के नजदीक होने के बावजूद अपने स्वरूप को बनाए हुए था। उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली के बनने से पहले अंग्रेज कर्मचारी इसी क्षेत्र में रहे थे। तब यहां के खुले खेतों में बबूल के पेड़ और कांटेदारें नागकनी की मेडे होती थीं।

“दिल्ली तेरा इतिहास निराला” पुस्तक में वेद प्रकाश गुप्ता ने दिल्ली सर्कल के ढका गांव के विषय में विस्तार से लिखा है। पुस्तक के अनुसार, “अरसा तखमीनन 70 साल हुआ कि पहले रकबा देह हजा वीरान पड़ा था और मालकान मौजा वजीराबाद उसमें मवेशी चराते थे। जनबा मिस्टर वजीर साहब बहादुर ने मससियान ठाकर दास व धनी व छज्जन व किशना हर चार मारूसियान हम मालकान को खेरखवाही व खिदमतगुजारी (सेवकाई) कि वो हमेश साहब के साथ रहते थे, हक बिसवेदारी बीस बिसवा रकबा हजा बसीसनाथ 287 बीघे 11 बिस्बे हकीयत सरकार मवाफ हस्व तफसील जेल, ठाकुर दास को साढ़े 7 बिस्वे धन्नी को ढाई बीसवा छज्जन को पांच बिस्बे, किशना को पांच बिस्वे देकर अमल करा दिया। जनाब मिस्टर वजीर साहब बहादुर ने हर चार मारूसियान मजकूर को रकबा देह हजा का दिया था, को उस वक्त एक टीला बन्द रकबा देह हजा में बाका था और नीज उस पर दरखत ढाक कसरत से थे वो दरखत मारूसियान ने काट कर उस पर बसर्फ लागत खुद आबादी तैयार करी। बासवव maujudमौजुदगी दरखतान ढाक के नाम से ढाका आबाद मौसूम हुआ। मगर बबायस कसरत गलत इस्तेमाली ढका मारूफ (मशहूर) हो गया जब से आबादी कभी वीरान नहीं हुई और सिवाए आबादी देह और कोई खेड़ा कुनाह के रकबा देह हजा में नहीं है।”

अंग्रेजी पत्रकार राज चटर्जी अपनी पुस्तक “द बॉक्सवाला एंड द मिडलमैन” में संकलित “द इबोनी बॉक्स” नामक लेख (1965 में स्टेटसमैन में प्रकाशित) में लिखते हैं कि यह (ढका गांव) करीब 300 निवासियों, जिसमें जाट, गुर्जर और जाटव थे, का एक गांव था। यहां पर केवल एक मुस्लिम जलालुद्दीन का परिवार था जो कि पेशे से बुनकर था। तब गांववालों की निगाह में पटवारी या लंबरदार से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति 70 साल का जाट किसान प्रताप सिंह था। वह सबसे ज्यादा जोत वाली जमीन के साथ पूरे गांव में एकलौते पक्के मकान का मालिक था। 

प्रताप सिंह के पास एक दस्तावेज था, जिसमें लिखा था कि यह बताया जाता है कि ढका गांव के जमीदार शमशेर सिंह ने मुझे और मेरे दो बच्चों को रिज पर अंग्रेज छावनी में पहुंचने तक शरण देने के साथ भोजन दिया। एजिलाबेथ कोर्टनी, 89 वीं नेटिव इन्फैन्ट्री के कैप्टन जॉन कोर्टनी की पत्नी, जून 1857। उल्लेखनीय है कि शमशेर सिंह, प्रताप सिंह के पिता थे और यह चिट्ठी परिवार की सबसे मूल्यवान थाती थी।

Saturday, December 1, 2018

Britishers in 18 century Daryaganj_अंग्रेजों के जमाने का दरियागंज

दैनिक जागरण, 01122018



यह एक कम जानी सच्चाई है कि 1857 से पहले की दिल्ली में अंग्रेज न केवल भारतीय क्षेत्र में रहे और निर्माण भी किया। जबकि भारत के दूसरे अंग्रेज प्रेसीडेंसी वाले कस्बों में इसके विपरीत नस्लीय अलगाव था, जहां अंग्रेज-भारतीय बसावटें अलग अलग थी। जबकि दिल्ली में अंग्रेज अधिकारी दरियागंज और कश्मीरी गेट के भीतर के क्षेत्र में किराए के घरों में रहते थे।

1844 के साल में कलकत्ता से सफर करते हुए दिल्ली आने वाले एक यूरोपीय सैनिक ने दिल्ली को देखने के बाद उसे भारत का सबसे बड़ा शहर बताया था। तब दरियागंज में महलों की इमारतों और राजाओं के घरों में अतिरिक्त मंजिले नहीं होती थी।

यमुना नदी के रास्ते या नाव के पुल के पार से आने वाले यात्री को आकाश चूमते गुम्बद और मीनारों के साथ पूरी दीवार के साथ लगे खजूर और बबूल के पेड़ दिखाई देते थे। जबकि 1845 में एक यात्री जे. एच. स्टोक्क्लर ने भारत की एक पुस्तिका में टिप्पणी करते हुए कहा दिल्ली में यूरोपीय व्यक्तियों के कार्य एक शानदार नहर, एक शस्त्रागार, एक चर्च, एक कॉलेज और एक प्रिंटिंग प्रेस तक सीमित है।

नारायणी गुप्ता ने अपनी पुस्तक "दिल्ली बिटविन द एंपायर्स" में लिखा है कि 1857 में पहली आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत के बाद (1858-1859) की अवधि में यह निश्चित नहीं था कि दिल्ली के मुसलमानों को जामा मस्जिद में दोबारा नमाज पढ़ने की इजाजत दी जाएगी या नहीं। तत्कालीन अंग्रेज चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस का मानना था कि दिल्ली की किलेबंदी को कायम रखते हुए यहां के निवासियों को अब दंडित नहीं किया जाना चाहिए। लॉरेंस ने पंजाब इन्फैंट्री की सुविधा के लिए जामा मस्जिद को विखंडित करने के प्रस्ताव को खारिज करते हुए इन्फैंट्री को जामा मस्जिद से दरियागंज में मवेशी के तबलों में स्थानांतरित करने का आदेश दिया।

इतना ही नहीं, यह भी तय किया गया कि यूरोपीय सैनिक शहर के परकोटे के भीतर दरियागंज और महल (इसके बाद ही उसे किला कहा जाने लगा) और परकोटे की दीवार से बाहर हिंदूराव के घर में रहेंगे। इस तरह, 1857 से पहले की नागरिक और सैन्य स्थितियों को पूरी तरह उलट दिया गया।

अंग्रेज सेना के दरियागंज और किले को कब्जे में लेने से अचानक तो बदलाव आया पर यह बदलाव मोटे तौर पर राजनीतिक था। जामा मस्जिद, महल और दरियागंज में अंग्रेज सैनिकों के कब्जे, पुरानी दिल्ली में घरों के विध्वंस और अचानक ही रेलवे पुल के निर्माण ने पूरे शहर को मनमाने ढंग से दो फांक में बांट दिया। 1857 के बाद, दिल्ली में अंग्रेजों की जीत और भारतीयों की हार का नतीजा गरीबी और सामाजिक नैतिकता में गिरावट के रूप में सामने आया।

अंग्रेज सेना ने दरियागंज में रहने के साथ यमुना नदी की तरफ की परकोटे की दीवार का एक बड़ा हिस्सा ध्वस्त कर दिया। अंग्रेज सरकार ने भी इस कदम पर कोई आपत्ति नहीं जताई। जबकि दरियागंज में इमारतों और सड़कों का पुराने स्वरूप कायम रहा। सिविल लाइंस वाले अंग्रेजों की बसावट वाले इलाके से अलग भारतीयों की बसावट वाले शहर के हिस्से सहित दरियागंज में इन्फैंट्री (पैदल सेना) के बैरकों, जहां अधिक जनसंख्या रहती थी, की पेयजल व्यवस्था के लिए दिल्ली गेट से एक अलग पानी के नाले की व्यवस्था की गई।

1908 में दरियागंज से छावनी से रिज ले जाने का निर्णय लिया गया। इस योजना के तहत सैनिक छावनी को दरियागंज से रिज के उत्तर में एक स्थान (राजपुर, तिमारपुर और हिंदूराव एस्टेट) में स्थानांतरित करने की बात तय हुई।


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