मशहूर चिश्ती पीरों की परंपरा में शेख निजामुद्दीन चौथे थे। पहले मुईनुद्दीन चिश्ती, दूसरे कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, तीसरे शेख फरीदुद्दीन मसूद शकरगंज थे। शेख निजामुद्दीन, मसूदगंज के चेले थे। शेख निजामुद्दीन के पूर्वज मध्य एशियाई शहर बुखारा से भारत आए थे। उनके पिता का नाम ख्वाजा अहमद और मां का नाम बीबी जुलैखा था। कम उम्र में पिता के देहांत के कारण उनका लालन-पालन उनकी मां ने ही किया।
उन्होंने जवान होने के बाद दिल्ली के ख्वाजा शम्सुद्दीन, जो कि बाद में गुलाम वंश के बादशाह बलबन के वजीर भी बने, मौलाना अमीनुद्दीन और कमालुद्दीन की देखरेख में हुई। लगभग बीस वर्ष की उम्र में शेख निजामुद्दीन पाकपटन गए और शेख फरीदुद्दीन मसूद शकरगंज के शिष्य बन गए। पाकपटन में कुछ समय रहने के बाद वे वापस दिल्ली लौट आए और इबादत में अपना सरल जीवन बिताने लगे। कुछ समय बाद उनकी शोहरत फैलने लगी और उनके श्रद्धालु प्रशंसक बड़ी संख्या में आने लगे। कई बादशाह, दरबारी, और शाही खानदान के सदस्य उनके अनुयायी थे। यह इस बात से साफ होता है कि दिल्ली के शाही खानदान के कई सदस्य उनकी दरगाह के अहाते में दफनाए गए।
89 वर्ष की उम्र में वे बीमार पड़े और वर्ष 1325 को उनका इंतकाल हुआ। उनके प्रमुख शिष्य अमीर खुसरो ने शेख निजामुद्दीन औलिया को दिलों का हकीम कहा है। जबकि इकबाल ने उनके बारे में लिखा है कि
तेरे लहद की जियारत है जिंदगी दिल की,
मसीह व खिज्र से ऊंचा मकाम है तेरा।
उनकी लोकप्रियता का अनुमान समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी के "तारीख फीरोजशाही" में इस कथन से लगाया जा सकता है कि उस युग में (यानी अलाउद्दीन खिलजी के युग में) शेखुल-इस्लाम निजामुद्दीन ने दीक्षा के द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिए थे-पापों से तौबा, प्रायश्चित कराते और उनको कंधा, गुदड़ी देते थे और अपना शिष्य बनाते थे। श्रद्वालुओं ने नगर से ग्यासपुर तक विभिन्न गांवों के चबूतरे बनवाकर उन पर छप्पर डाल दिए थे और कुएं खुदवाकर वहां मटके, कटोरे, और मिट्टी के लोटे रख दिए थे। शेख निजामुद्दीन औलिया उस युग में जुनैद व शेख बायजीद के समान थे।
अमीर खुसरो ने उनके संबंध में यह लिखकर सब कुछ कह दिया-
मिसाले आस्मां बर दुश्मन व दोस्त
कि शेख मन मुबारक नुस्ख-ए ओस्त
(आकाश की भांति मेरे शेख का साया मित्र और शत्रु दोनों पर है)
No comments:
Post a Comment