Dhaka village of British Raj_दिल्ली में अंग्रेजी राज का गवाह ढका गांव
08122018_दैनिक जागरण
दिल्ली विधानसभा से किंग्सवे कैंप चौराहे से दाई तरफ मुड़ने पर रास्ता, वर्ष 1911 में अंग्रेज भारत में हुए तीसरे दिल्ली दरबार के स्मारक की तरफ जाता है। उल्लेखनीय है कि 12 दिसंबर 1911 को दिल्ली में हुए दरबार में अंग्रेज सम्राट जार्ज पंचम ने घोषणा की कि देश की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली हो गई है। शहर के उत्तर में पुरानी सिविल लाइन में अस्थायी भवनों का निर्माण किया गया और वाइसराय को रिज के दूसरी ओर के भवन में ठहराया गया, जहां 1857 में घेरा डालने वाली अंग्रेज सेना ने एक बार शिविर लगाया था। आज यहां परमानंद कॉलोनी के रूप में एक भरी-पूरी आबादी बस गई है, जहां मकान-दुकान से लेकर सदाबहार बाजार हैं। यह बानगी सरसरी तौर पर देखने में बेहद अच्छी लगती है पर इसके मूल में कम व्यक्तियों की ही दृष्टि जाती है। और वह है एक छोटा-सा गांव जो कि आज भी अपने मूल नाम ढका के साथ महानगरीय चकाचौंध में अपना अस्तित्व बनाए हुए है।
1920 के दशक में ढका गांव भी, देश के दूसरे हजारों गांवों की तरह एक गांव था। जो कि इम्पीरियल सेक्रेटेरियट के कनिष्ठ कर्मचारियों, छोटा साहब लोग, के टेंट वाली बसावट के नजदीक होने के बावजूद अपने स्वरूप को बनाए हुए था। उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली के बनने से पहले अंग्रेज कर्मचारी इसी क्षेत्र में रहे थे। तब यहां के खुले खेतों में बबूल के पेड़ और कांटेदारें नागकनी की मेडे होती थीं।
“दिल्ली तेरा इतिहास निराला” पुस्तक में वेद प्रकाश गुप्ता ने दिल्ली सर्कल के ढका गांव के विषय में विस्तार से लिखा है। पुस्तक के अनुसार, “अरसा तखमीनन 70 साल हुआ कि पहले रकबा देह हजा वीरान पड़ा था और मालकान मौजा वजीराबाद उसमें मवेशी चराते थे। जनबा मिस्टर वजीर साहब बहादुर ने मससियान ठाकर दास व धनी व छज्जन व किशना हर चार मारूसियान हम मालकान को खेरखवाही व खिदमतगुजारी (सेवकाई) कि वो हमेश साहब के साथ रहते थे, हक बिसवेदारी बीस बिसवा रकबा हजा बसीसनाथ 287 बीघे 11 बिस्बे हकीयत सरकार मवाफ हस्व तफसील जेल, ठाकुर दास को साढ़े 7 बिस्वे धन्नी को ढाई बीसवा छज्जन को पांच बिस्बे, किशना को पांच बिस्वे देकर अमल करा दिया। जनाब मिस्टर वजीर साहब बहादुर ने हर चार मारूसियान मजकूर को रकबा देह हजा का दिया था, को उस वक्त एक टीला बन्द रकबा देह हजा में बाका था और नीज उस पर दरखत ढाक कसरत से थे वो दरखत मारूसियान ने काट कर उस पर बसर्फ लागत खुद आबादी तैयार करी। बासवव maujudमौजुदगी दरखतान ढाक के नाम से ढाका आबाद मौसूम हुआ। मगर बबायस कसरत गलत इस्तेमाली ढका मारूफ (मशहूर) हो गया जब से आबादी कभी वीरान नहीं हुई और सिवाए आबादी देह और कोई खेड़ा कुनाह के रकबा देह हजा में नहीं है।”
अंग्रेजी पत्रकार राज चटर्जी अपनी पुस्तक “द बॉक्सवाला एंड द मिडलमैन” में संकलित “द इबोनी बॉक्स” नामक लेख (1965 में स्टेटसमैन में प्रकाशित) में लिखते हैं कि यह (ढका गांव) करीब 300 निवासियों, जिसमें जाट, गुर्जर और जाटव थे, का एक गांव था। यहां पर केवल एक मुस्लिम जलालुद्दीन का परिवार था जो कि पेशे से बुनकर था। तब गांववालों की निगाह में पटवारी या लंबरदार से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति 70 साल का जाट किसान प्रताप सिंह था। वह सबसे ज्यादा जोत वाली जमीन के साथ पूरे गांव में एकलौते पक्के मकान का मालिक था।
प्रताप सिंह के पास एक दस्तावेज था, जिसमें लिखा था कि यह बताया जाता है कि ढका गांव के जमीदार शमशेर सिंह ने मुझे और मेरे दो बच्चों को रिज पर अंग्रेज छावनी में पहुंचने तक शरण देने के साथ भोजन दिया। एजिलाबेथ कोर्टनी, 89 वीं नेटिव इन्फैन्ट्री के कैप्टन जॉन कोर्टनी की पत्नी, जून 1857। उल्लेखनीय है कि शमशेर सिंह, प्रताप सिंह के पिता थे और यह चिट्ठी परिवार की सबसे मूल्यवान थाती थी।
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