Saturday, December 15, 2018

Cinematic voyage of Old Delhi Theaters_जगत से मोती तक का सिनेमाई सफर

15122018_दैनिक जागरण 





राजधानी के सिनेमाई इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि चांदनी चौक में दिल्ली के सबसे पुराने सिनेमा हॉल हैं। इनमें से अधिकतर 1930 के आरंभिक दशक में अस्तित्व में आए तो कुछ-एक उससे भी पुराने हैं। उस दौर में हर सिनेमाघर के अपने वफादार दर्शक थे जैसे मुसलमानों का पसंदीदा जामा मस्जिद के करीब “जगत” था तो हिंदू चांदनी चौक की तंग गलियों में बने “मोती” को पसंद करते थे। उस जमाने में विक्टोरियाई और मुगल वास्तुकला के मिश्रण में बना अर्धगुम्बज मोती की पहचान था।


मोती को थिएटर से सिनेमा बनाने का श्रेय फिल्म वितरक सी. बी. देसाई को जाता है। जिन्होंने 1938 में इसे खरीदकर नया स्वरूप देते हुए जर्मनी से आयातित प्रोजेक्शन यंत्र लगवाया। साथ ही चार से सात आने में मिलने वाले टिकट का दाम एक रूपए कर दिया। तब मोती को पत्थरवालों का टाकीज भी कहा जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मोती लालकिले के सामने बने पत्थर तराशों का बाजार के करीब था।


यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि आजादी से पहले मोती में हॉलीवुड की फिल्में प्रदर्शित होती थी। यह सिलसिला 50 के शुरूआती वर्षों तक बना रहा जब रविवार को दोपहर में हॉलीवुड फिल्में दिखाई जाती थी। मोती में आरके बैनर की सभी फिल्में-"आवारा", "जागते रहो", "बरसात", "जिस देश में गंगा बहती है", "संगम" और "मेरा नाम जोकर"-नियमित रूप से प्रदर्शित हुई। यह राजकपूर का पसंदीदा सिनेमाघर था, जहां वे हमेशा अपनी फिल्मों के प्रीमियर पर उपस्थित होते थे।

ऐेसे ही सोहराब मोदी-मेहताब की "झांसी की रानी" (1956) के प्रदर्शन के समय फिल्म के प्रचार के लिए नायाब तरीका अपनाया गया था। तब हर रोज चांदनी चौक में चूड़ीदार पाजामा पहने और हाथ में तलवार लिए सिपाहियों का एक जुलूस निकलता था जो कि भारतीय वीरांगना के जीवन पर आधारित फिल्म के महत्व को दर्शाता था। बाद में 70 और 80 के दशकों में यह मनमोहन देसाई की बड़ी बजट की फिल्मों का केन्द्र बना। अमिताभ बच्चन अभितीत "देश प्रेमी" (1982) "कुली" (1983) और "मर्द" (1985) ऐसी ही फिल्में थीं, जिन्हें देखने के लिए भारी संख्या में दर्शक जुटे।

जामा मस्जिद इलाके में मछली बाजार के नजदीक होने के कारण जगत सिनेमा मछलीवालों का टॉकीज कहलाता था। तीस के आरंभिक दशक में मूक फिल्मों की समाप्ति के साथ जगत ने भी थिएटर से सिनेमा होने का सफर तय किया। पहले इसका नाम “निशत” था जो कि 1938 में बदलकर जगत हो गया।

जगत में अधिकतर मुस्लिम समाज के कथानक पर आधारित फिल्में प्रदर्शित होती थीं। जामा मस्जिद से नजदीकी के कारण यहां फिल्मों के चयन-प्रदर्शन पर खास ध्यान रखा जाता था। देह प्रदर्शन वाली फिल्मों का तो सवाल ही नहीं था।  

आजादी से पहले यहां पर "आलमआरा" (1931) "तानसेन" (1943) "जीनत" (1945) और बाद में "अनारकली" (1953) और "नागिन" (1954) जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई। यहां तक कि "नागिन" फिल्म में लता मंगेशकर के गाए और वैजयंती माला पर फिल्माए मन डोले मेरा तन डोले पर दर्शकों ने पर्दे पर सिक्के फेंके। इस फिल्म की यहां पर सिल्वर जुबली होने पर वैजयंती माला को छोड़कर पूरे फिल्मी कलाकार यहां आए थे।

1966 में यहां पर प्रदर्शित "फूल और पत्थर" की सिल्वर जुबली के मौके पर मीना कुमारी और धर्मेंद्र एक समारोह में यहां आए थे। इस फिल्मी जोड़ी के स्वागत के लिए दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ी थी। हालत यह हुई कि उन्हें अपनी कार को दरियागंज ही छोड़कर पैदल जगत तक आना पड़ा था। इसी तरह, 1976 में लैला मजनूं के प्रदर्शन के समय ऋशि कपूर-रंजीता की जोड़ी का खास स्वागत हुआ था। इस प्रेम कहानी वाली फिल्म ने भी जगत में गोल्डन जुबली मनाई थी। 


जगत में 1975 में प्रदर्शित “दयार ए मदीना” बेहद सफल रही थी। इस फिल्म को देखने के लिए दाढ़ी वाले मौलनाओं और बुर्काधारी औरतों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। यहां तक कि जगत सिनेमा के प्रबंधन ने स्थानीय मौलवियों के अनुरोध पर फिल्म के प्रदर्शन की अवधि को दो सप्ताह के लिए बढ़ा दिया था। 1981 में प्रदर्शित “शमां” नामक फिल्म के पहले सप्ताह में उसके निर्माता कादर खान यहां पहुंचे थे, जिनका दर्शकों खासकर महिलाओं ने जोरदार स्वागत किया था।   

फिल्म देखने के लिए सिनेमा आने वाले दर्शक बाहर रखे एक दराज में अपने जूतों उतारने के बाद ही फिल्म देखते थे। यहां तक कि कुछ तो अपने साथ अगरबत्ती भी लाते थे। तब यहां पर सामने वाली सीट का दाम एक कोला से भी कम होता था। तब कोला एक रूपए में आता था जबकि टिकट 75 पैसे में।


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