Saturday, February 16, 2019

Connection of New British Capital of India and Jaipur State_अंग्रेजों की नयी राजधानी और जयपुर राज





1911 में दिल्ली के तीसरे दरबार में अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम ने ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली बनाने की घोषणा की। उसके बाद अंग्रेज दिल्ली में राजधानी योग्य भूमि की तलाश में जुट गए। ऐसे में जयपुर के राजा ने अंग्रेजों की नई दिल्ली के लिए भूमि (जयसिंहपुरा और रायसीना) उपलब्ध करवाई। पर यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ। इसके लिए जयपुर के तत्कालीन कछवाह नरेश माधो सिंह द्वितीय (1861-1922) के वकीलों और अंग्रेज अधिकारियों के मध्य काफी लिखत-पढ़त हुई।


महाराजा जयपुर ने दिल्ली के जयसिंहपुरा और माधोगंज (आज की नई दिल्ली नगर पालिका परिषद का इलाका) में स्थित उनकी इमारतों और भूमियों का नई शाही (अंग्रेज) राजधानी के लिए अधिग्रहण न किया जाए, इस आशय की याचिकाएं दी थी।


18 जून 1912 को महाराजा जयपुर के वकील शारदा राम ने दिल्ली के डिप्टी कमिशनर को दी याचिका में लिखा कि राज जयपुर के पास दिल्ली तहसील मेंजयसिंह पुरा और माधोगंज में माफी (की जमीन) है, और ब्रिटिश हुकूमत ने राजधानी के लिए इसके अधिग्रहण का नोटिस भेजा है। राज की यह माफी बहुत पुरानी है और उनमें से एक की स्थापना महाराजा जयसिंह ने और दूसरे की महाराजा माधोसिंह ने की थी, जैसा कि मौजों के नाम से स्पष्ट है। राज जयपुर की स्मृति में छत्र, मंदिर, गुरूद्वारे, शिवाले और बाजार जैसे कई स्मारक हैं और राजने माफी की जमीन का आवंटन इन तमाम संस्थाओं के खर्च निकालने के लिए किया है। मुगल सम्राटों के समय में जब दिल्ली राजधानी हुआ करती थी तो, राजा का एक बहुत बड़ा मकान था जो अब बर्बादी की हालत में है और राजा का यह दृढ़ संकल्प है कि दिल्ली को एक बार फिर ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बनाए जाने के सम्मान में इसे बहुत शानदार और सुंदर बनाया जाए। इसलिए, विनती है कि इन संस्थाओं और पुराने अवशेषों को उनके साथ की जमीनों सहित अधिग्रहित न किया जाए और उन्हें राज के नियंत्रण और देख-रेख में छोड़ दिया जाए। उसे (जयपुर महाराज को), (अंग्रेज) सरकार की योजनाओं के अनुसार राज की कीमत पर सरकार की इच्छानुसार मकान, कोठियां, सड़कें आदि बनाने पर कोई ऐतराज नहीं है और राज ऐसी कोई जमीन मुफ्त में देने में तैयार है, जिसकी जरूरत सरकार को अपनी खुद की सड़कें खोलने या बनाने के लिए हो सकती है।


इसके जवाब में, अंग्रेज सरकार के विदेश विभाग के उपसचिव ने राजपूताना मेंगर्वनर जनरल के एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल डब्ल्यू.सी.आर. स्टैटन को 19 अगस्त 1912 को भेजे एक पत्र में लिखा कि हालांकि दिल्ली टाउन प्लानिंग कमेटी ने उस क्षेत्र के अधिग्रहण की सिफारिश की है जिसमें याचिकाओं में उल्लेखित जमीनें और इमारतें आती हैं, फिर भी गर्वनर-जनरल-इन-कौंसिल की राय नहीं हैकि जिन मंदिरों आदि का उल्लेख याचिकाओं में हुआ है और जिनका संरक्षण वे उन मकसदों के लिए करना चाहते हैं जिनको वे समर्पित हैं, जब तक उनका रखरखाव मुनासिब तरीके से नहीं होता है और उनके आसपास की गंदी इमारतों को भद्दे माहौल को हटा दिया जाता है, तब तक उन्हें लेने की जरूरत नहीं है। जहां तक महाराजा की उन जमीनों के अधिग्रहण का सवाल है जिनमें पुराने मुगल अनुदान आते हैं तो, इसे संभव हुआ तो, तब तक टाला जाए जब तक यह समझा जाएगा कि महाराज किसी भी सूरत में सरकार की योजनाओं के साथ होने को सहमत हो जाएंगे, चाहे जो भी इमारतें या सड़कें बनें या चाहे जिस भी तरीके से संबंधित जमीनों का निपटारा किया जाए, और यह भी कि इन योजनाओं के निष्पादन में कोई बाधा खड़ी नहीं की जाएगी।

एक अन्य याचिका के उत्तर में 20 अगस्त 1912 को दिल्ली के विशेष भूमि अधिग्रहण अफसर मेजर एच.सी. बीडन ने गृह विभाग के सचिव एच. व्हीलर को लिखा था कि जैसा कि नक़्शे में दिखाया गया है, जयसिंहपुरा और माधोगंज केपरिवार मौजा नरहौला की सीमाओं के भीतर हैं, और इमारतों के दोनों ब्लाॅक उस क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं जिन्हें दिल्ली कमेटी ने स्थायी अधिग्रहण करना है, और इसलिए इन याचिकाओं पर अभी किसी कार्रवाई की जरूरत नहीं है। साधारणतया इस किस्म की याचिका को सरकारी आदेश मिलने पर डिप्टी कमिशनर निपटाते हैं, लेकिन महाराजा (जयपुर) के ओहदे को देखते हुए, अधिक उपयुक्त तो यह होगा कि सरकार के जवाब को सीधे बता दिया जाए। 


उल्लेखनीय है कि माधो सिंह द्वितीय 1902 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में इंगलैंड गए थे। अंग्रेजों की विशेष कृपादृष्टि के कारण ही उन्हें 1903 में जीसीवीओ, 1911 में जीवीआई की सैन्य उपाधि दी गई। इतना ही नहीं, 1904 में माधोसिंह को अंग्रेज भारतीय सेना में 13 राजपूत टुकड़ी का कर्नल और 1911 में मेजर जनरल का पद दिया गया।

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