Saturday, February 9, 2019

connaught place in English literature_साहित्य की जुबानी, कनाट प्लेस बसने की कहानी

09022019_दैनिक जागरण 






छह साल की उम्र से दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में पढ़ाई शुरू करने वाले अंग्रेजी लेखक-पत्रकार खुशवंत सिंह के अनुसार, मार्च 1913 तक नई दिल्ली को बनाने की प्राथमिक योजना बन गई थी। वे अपनी आत्मकथा "सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत" में लिखते हैं कि उन दिनों हम जहां रहते थे, उसे आजकल ओल्ड हिल कहते हैं, जहां आज का रफी मार्ग है। एक कतार में वहां ठेकेदारों के अपने अपने झोंपड़ीनुमा घर थे। घरों के सामने से एक नैरो गैज रेलवे लाइन जाती थी, जिस पर इम्पीरियल दिल्ली रेलवेज नाम की रेलगाड़ी चला करती थी, जो बदरपुर से कनाट प्लेस तक पत्थर-रोड़ी-बालू भरकर लाया करती थी।

उनके मुताबिक, कनॉट प्लेस तो 1919 में ही बनना शुरू हुआ और सबसे पहले वेंगर्स की दुकान बनी थी। ऊपर वेंगर्स रेस्तरां और डांस फ्लोर था जबकि वेंगर्स के नीचे वाली दुकान एक पारसी किराएदार के पास थी जो अंग्रेज साहब लोगों को चॉकलेट और शराब बेचा करता था। कनॉट प्लेस और कनॉट सर्कस का मास्टर प्लान सर हर्बर्ट बेकर के साथ मिलकर सर एडविन लेंडसियर लुटियन ने बनाया था। उनकी माने तो राजधानी में सरकारी भवन बनते जा रहे थे, पर कोई भी यहां, कनाट प्लेस, जमीन नहीं खरीद रहा था क्योंकि था तो इलाका बियाबान ही। तिस पर उनके पिता ने ही पहल करते हुए दो रूपए प्रति वर्ग गज से हिसाब से कनॉट सर्कस में फ्री-होल्ड जमीन खरीदी।

उनके ठेकेदार पिता सुजान सिंह ने अपने लिए वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनॉट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लॉक बनवाया। उन दिनों यह सुजान सिंह (खुशवंत सिंह के दादा) ब्लॉक कहलाता था। इतना ही नहीं, उन्होंने ही रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं। 

अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड “सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ“ पुस्तक में 40 के दशक की दिल्ली में अपने पिता घर के बारे में लिखते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे। सड़क के ठीक सामने एक नया मिल्क बार (दूध की दुकान) था। जब मेरे पिता अपने दफ्तर गए होते थे तो मैं कभी-कभी वहां स्ट्राबेरी, चॉकलेट या वेनिला का मिल्कशेक पीकर आता था। वही एक अखबार की दुकान से घर के लिए एक कॉमिक पेपर भी खरीदता था। रस्किन लिखते हैं कि उन दिनों में आपको नई दिल्ली से बाहर जाने और आसपास के खेतों में या झाड़ वाले जंगल तक पहुंचने के लिए थोड़ा-बहुत ही चलना पड़ता था। हुमायूँ का मकबरा बबूल और कीकर के पेड़ों से घिरा हुआ था। 

1940 के शुरूआती दशक में अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस के कई थिएटरों में मंचित अनेक नाटकों में अपने अभिनय का जलवा बिखेरा था। “थिएटर के सरताजःपृथ्वीराज“ पुस्तक के अनुसार, “पृथ्वीराज अपना थिएटर लेकर दिल्ली आए। उनके तीन बहुचर्चित नाटकों-“शकुन्तला”, “दीवार” और “पठान” का रीगल में प्रदर्शन हुआ। तब रीगल अकेला ऐसा सिनेमाघर था जिसमें नाटक-फिल्में दोनों का प्रदर्शन होता था। रीगल का स्वरूप रंगमंच और सिनेमा को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था और इसमें स्टेंडर्ड नामक एक रेस्तरां भी था जो बाद में गेलॉर्ड बन गया। पहले रीगल में फिल्म देखना एक सांस्कृतिक कर्म माना जाता था। उस समय फिल्म देखने का मतलब तक के डेविकोस और आज के स्टैंडर्ड रेस्तरां तथा गेलार्ड में भोजन करना भी होता था। रीगल का डिजाइन नई दिल्ली के वास्तुकार एडविन लुटियंस के दल के साथी वॉल्टर स्काइज़ जॉर्ज ने तैयार किया था।

खुशवंत सिंह ने “सेलिब्रेटिंग दिल्ली” पुस्तक में लिखा है कि उनके पिता (सरदार शोभा सिंह) नए शहर में एक सिनेमा-रीगल का निर्माण करने वाले पहले व्यक्ति थे। शुरू में उन्होंने खुद सिनेमाघर को चलाने की कोशिश की। मुझे याद है कि कई बार सिनेमाघर में केवल दस दर्शक होते थे और उन्हें दर्शकों को टिकट के उनके पैसे वापस लेने के लिए गुहार करनी पड़ती थी, जिससे उन्हें फिल्म को दिखाने पर पैसा बर्बाद नहीं करना पड़े। 

यहां तक कि सन् 1952 से जब दिल्ली में बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम आरंभ हुआ, तब इसका एक समारोह रीगल सिनेमा के सामने मैदान में और दूसरा लालकिले में हुआ था। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वर्ष 1956 में रीगल में “चलो दिल्ली” फिल्म देखी थी। इसी साल सोवियत संघ नेता ख्रुशचेव और बुल्गानिन भारत की यात्रा पर आए थे। उनके साथ एक सांस्कृतिक दल भी था, जिसने उस समय के दिल्ली के सबसे बड़े थिएटर रीगल सिनेमा में प्रदर्शन किया था।






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