Saturday, May 25, 2019

Today's city and cinema through Delhi_आज का शहर और सिनेमा वाया दिल्ली



देश काल से परे देखने वाली एक खोजी आंख और उसे दर्ज करने वाले एक कैमरे के फ्रेम के लिए दिल्ली एक मुफीद शहर है। इतिहास और संस्कृति में रचे-बसे अनेक शानदार स्थानों और बसावटों वाले इस शहर को भला सिनेमा कैसे नजरअंदाज कर सकता है? दिल्ली, निस्संदेह एक सिनेमाई जादू की अनुभूति करवाने वाला महानगर है।


उल्लेखनीय है कि दिल्ली पर्यटन ने वर्ष 2018 में एक कैलेंडर छापा था, जिसमें राजधानी के लोकप्रिय सिनेमाई शूटिंग स्थलों को प्रदर्शित किया गया था। इस कैलेंडर में इंडिया गेट, जंतर मंतर, हुमायूं मकबरा, निजामुदीन दरगाह, कुतुब मीनार, जामा मस्जिद, अग्रसेन की बावली, लालकिला, नाॅर्थ ब्लाॅक, ग्यारह मूर्ति, गुरूद्वारा बंगला साहिब और कनाट प्लेस के रंगीन चित्रों सहित इन स्थानों पर फिल्माई गई फिल्मों क्रमशः बैंड बाजा बारात, अब होगा धरना अनलिमिटेड, कुर्बान, राॅकस्टार, फना, बजरंगी भाईजान, सुल्तान, दिल्ली 6, पीके, चांदनी, विक्की डोनर, बेवकूफियां का वर्णन था। इतना ही नहीं, दिल्ली पर्यटन ने दिल्ली में फिल्म शूटिंग के लिए एक मैन्यूल भी बनाया है। जिसमें राजधानी की 31 प्रकार के स्थानों का विवरण देते हुए यहां फिल्म बनाने के फायदों और सुविधाओं का विवरण है। शायद इसी का परिणाम था कि पिछले साल प्रदर्शित दो फिल्में "सुई धागाः मेड इन इंडिया" और "जलेबीः द ऐवरलास्टिंग टेल ऑफ लव" में दिल्ली की उल्लेखनीय उपस्थिति थी। इन फिल्मों में राजधानी के कुछ अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाली गई।शाहजहांनाबाद के समय के बसे चांदनी चौक के छोटे-छोटे बाजारों, जो कि कटरा कहलाते हैं, की खास बात यह है, वहां मिलने वाले विशेष उत्पाद। फतेहपुरी का बाजार कपड़ों के लिए लोकप्रिय है, जहां के कटरे विभिन्न वस्त्रों की बिक्री के लिए जाने जाते हैं। यहां कपड़े की खरीद थोक में होती है। चांदनी चौक में सूती से लेकर जॉर्जेट, शिफॉन, और महीन कपड़ा मिलता है। जबकि किनारी बाजार अपने कपड़ों के लेस सहित दूसरे सजावटी सामान के लिए मशहूर है। यहां जरी और किनारी की सामग्री और डिजाइन बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है।

वही, दिल्ली के रहने वाले पुष्पदीप भारद्धाज निर्देशित और वरुण मित्र और रिया चक्रवर्ती अभिनीत "जलेबी" फिल्म, जो कि एक प्रेम कहानी है, में पुरानी दिल्ली के दशकों पुराने कबूतरबाजी के शौक को दिखाया गया है। इसमें वरुण ने पुरानी दिल्ली की गलियों से सैलानियों को परिचित करवाने वाले एक व्यक्ति देव की भूमिका निभाई है। देव के मुख्य किरदार के बहाने राजधानी के खान-पान और गलियों के इतिहास को एक लड़की के प्यार भरी कहानी से पिरोते हुए पर्यटन के खांचे के इतर एक दूसरी ही दिल्ली को दिखाने की कोशिश है। वह बात अलग है कि यह फिल्म रेल के डिब्बे की खिड़की से युगल जोड़े के आलिंगन की तस्वीर के पोस्टर को लेकर भी चर्चा में रही थी। रिया चक्रवर्ती ने फिल्म की पुरानी दिल्ली में शूटिंग के दौरान जोश में इतनी जलेबियां खाई कि वह बाद में बीमार हो गईं।

लेखक-निर्देशक शरत कटारिया की वरुण धवन और अनुष्का शर्मा अभिनीत फिल्म सुई धागा की शूटिंग गाजियाबाद जिले के मोदी नगर में हुई। वही राजधानी में कपड़े के थोक बाजार चांदनी चौक सहित कनाॅट प्लेस से सटे शंकर मार्किट में भी इसके दृश्य फिल्माए गए। उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में वरुण ने मौजी नामक एक दर्जी और उसकी पत्नी ममता के किरदार में अनुष्का ने एक कढ़ाई करने वाली महिला की भूमिका की है। इस फिल्म के लिए निर्माता ने शंकर मार्किट में एक दुकान किराए ली थी और फिल्म की कहानी के अनुरूप दुकान के भीतर लकड़ी का काम करवाया था। इतना ही नहीं, शूटिंग के लिहाज से दुकान के बाहर गलियारों के कुछ खंभों की भी दोबारा पुताई की गईं।

उल्लेखनीय है कि दिल्ली के सबसे पुराने बाजारों में से एक चांदनी चौक कढ़ाई में काम आने वाली विभिन्न प्रकार के कच्चे माल का सबसे अच्छा ठिकाना है। जो कि दूसरे शहरों में आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है। चांदनी चौक में मिलने वाले सामान में जरी, चिकन और रेशम की साड़ियाँ भी शामिल हैं। इस फिल्म की कहानी के मुख्य पात्रों के दर्जी होने और इस व्यवसाय से जुड़े होने के कारण फिल्म की शूटिंग के लिए चांदनी चौक से बेहतर कोई विकल्प संभव ही नहीं था।

आज दिल्ली के इतिहास को जानने-समझने के लिए पुरानी दिल्ली की गलियों को खंगालने का शगल एक पेशेवर रूप अख्तियार कर चुका है। ऐसी सैरों और उससे जुड़ने वालों की बढ़ती संख्या के लिए, मौजूदा दौर की दिल्ली विषयक फिल्मों का योगदान भी कमतर नहीं है।

Saturday, May 18, 2019

Khan Market in English Literature_खान मार्किट की कहानी, किताबों की जुबानी

Dainik Jagran, 18.05.2019



देश के ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे महंगे बाजारों में गिने जाने वाले नई दिल्ली के खान मार्किट के शायद ही कोई व्यक्ति अजनान हो। पर जितना मशहूर उसका नाम है उतना ही कम जानी है उसकी बसने की कहानी। इस बाजार के बारे में अनेक प्रसिद्व व्यक्तियों ने अपनी-अपनी कलम चलाई हैं और अपनी जुबानी उसकी कहानी बयान की है। 

"परपेचुअल सिटी" पुस्तक में मालविका सिंह लिखती है कि जहां लुटियन दिल्ली खत्म होती थी, वहीं साउथ एंड लेन थी, उसके बगल में लेडी विलिंगडन गार्डन, जो अब लोधी गार्डन है, था। सुजान सिंह पार्क सहित खान अब्दुल गफ्फार खान मार्किट, आज खान मार्किट, को शहर के दूसरे छोर पर बसा हुआ माना जाता था।  जबकि इतिहासकार स्वप्ना लिडल अपनी पुस्तक "कनॉट प्लेस" में खान मार्किट के बसने पर रोशनी डालते हुए लिखती है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लोदी एस्टेट में बनी बैरकों में सामान की आपूर्ति के लिए जहां रसद स्टोर बनाए गए थे, वहीं खान मार्किट में एक खरीद का एक नया केंद्र बनाया गया था। इतना ही नहीं, आवास उपलब्ध करवाने के लिए नई दिल्ली के पूर्वी हिस्से में निर्जन पड़ी जमीन के हिस्सों में आबादी को बसाया गया। आवासीय काॅलोनियों को बनाया गया, जिसके तहत काका नगर, बापा नगर, पंडारा पाॅर्क में सरकारी अधिकारियों के लिए और सुंदर नगर तथा गोल्ड लिंक में निजी स्वामित्व वालों के लिए घर बनें। 

उल्लेखनीय है कि राजधानी के समन्वित विकास के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण के "दिल्ली के मास्टर प्लाॅन 1962" के अनुसार, जिला केंद्रों (डिस्ट्रिक सेंटरों) के अलावा 13 उप-जिला केंद्र (सब-डिस्ट्रिक सेंटर) की योजना है। इनमें से कुछ पहले से मौजूद है जैसे गोल मार्किट, खान मार्किट इत्यादि। इन अधिकांश बाजारों का स्वरूप खुदरा है जो कि लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते हैं। इस दस्तावेज के अनुसार, 13 उप-जिला केंद्रों के लिए कुल 180 एकड़ जमीन की गयी थी जबकि खान मार्किट के विकास के लिए 10 एकड़ जमीन चिन्हित की गई थी। 
दिल्ली पर अनेक किताबें लिखने वाले खुशवंत सिंह ने बिग "बुक ऑफ़ मैलिस" पुस्तक में खान मार्किट सहित वहां पर बनी किताबों की दुकानों के बारे में विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार, मैं दिल्ली में कई किताबों की दुकानों में जाता था। लेकिन उम्र के साथ मेरी सक्रियता कम हो गई है और मैं अब अपने घर से कुछ कदमों की दूरी पर खान मार्किट तक ही जाता हूं। इस छोटे से बाजार में छह किताबों की दुकानें हैं, जिनमें से सबसे बड़ी और बाजार के ठीक-बीच में बनी दुकान है बाहरी एंड संस। यहां पाठकों के लिए किताबें देखने के लिए सबसे अधिक प्रदर्शन खिड़कियां हैं, यह सुविधा दूसरी दुकानों में उपलब्ध नहीं है। इस दुकान की सबसे खास बात इसके मालिक बलराज बाहरी है, जिन्होंने इसे एक सफल व्यापारिक प्रतिष्ठान बनाया है। बाहरी, एक शरणार्थी के रूप में मलकवाल (पाकिस्तान) से आए थे। वे एक सीमित साधनों और शिक्षा प्राप्त आदमी थे। उन्हें किताबें खरीदने या बेचने का दूर-दूर तक कोई ज्ञान नहीं था। पर उन्होंने पूरी लगन से काम करते हुए इस काम में महारत हासिल करते हुए अपने ग्राहकों से घनिष्ठ संबंध बनाए। इस साल (1997) फैडरेशन ऑफ़ इंडियन पब्लिशर्स ने उन्हें प्रतिष्ठित बुकसेलर पुरस्कार से सम्मानित किया। वे इस सम्मान के लिए पूरी तरह योग्य है।  

वही दूसरी तरफ, "बाहरी संस, ए क्रानिकल ऑफ़ बुक शॉप" नामक पुस्तक में बलराज बाहरी ने हिंदुस्तान के विभाजन के बाद एक शरणार्थी के रूप में दिल्ली में एक राजनीतिक की सहायता से खान मार्किट में अपनी खुद की दुकान हासिल करने की कहानी बयान की है। तब यह मार्किट, रिफ्यूजी मार्किट कहलाती थी। तीन दुकानों को एक करके बनी आज की बाहरी संस की दुकान, तब के बने चार ब्लाॅक का भाग थी। यह मार्किट की सबसे छोटा परिसर था, जिसे बलराज ने पैसों को ध्यान में रखते हुए चुना था। गौरतलब है कि उन्हें खान मार्किट में इस दुकान के लिए पट्टे सहित जमानत के दो सौ रूपए का इंतजाम करने के लिए अपनी मां की सोने की चूडियां बेचनी पड़ी। उन्हें उस समय इस बात का आभास नहीं था कि शरणार्थियों के लाभ के लिए बनी खान मार्किट की यह योजना इस कदर सफल होगी।


Saturday, May 11, 2019

Jansangh emerged real winner in General Elections 1967 in Delhi_1967 लोकसभा चुनावों में फहरा था जनसंघ का परचम





दिल्ली में 1967 के आम चुनावों की एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यहां की सात सीटों में से छह सीटों पर जनसंघ की जीत थी। इतना ही नहीं, जनसंघ दिल्ली महानगर परिषद के साथ-साथ दिल्ली नगर निगम में भी सत्तारूढ़ दल के रूप में उभरकर सामने आया। लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा "मेरा देश, मेरा जीवन" में लिखते हैं कि पांच महीनों के अंदर दिल्ली में लगभग एक साथ तीन चुनाव हुए-लोकसभा, दिल्ली नगर निगम और दिल्ली मेट्रोपोलिटन काउंसिल के लिए। जनसंघ तीनों में जीता। हमारी पार्टी ने 7 लोकसभा सीटों में से 6, नगर निगम की 100 सीटों में से 52 और परिषद की 56 सीटों में 33 पर विजय प्राप्त की। राष्ट्रीय राजधानी में इस शानदार जीत के साथ ही वर्ष 1962 की 14 लोकसभा सीटों की तुलना में 1967 में कुल 35 सीटों पर कब्जा करके जनसंघस भारतीय राजनीति की एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभरा।


1967 के लोकसभा चुनावों में जनसंघ ने 520 लोकसभा क्षेत्रों में दिल्ली के सात क्षेत्रों सहित कुल 249 क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। जनसंघ के लिए न केवल दिल्ली बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर परिणाम उत्साहवर्धक थे। 1962 के लोकसभा चुनावों की तुलना में उसे 1967 में 35 सीटों पर विजय मिली। इतना ही नहीं उसका वोट प्रतिशत, 6.45 प्रतिशत से बढ़कर 9.3 प्रतिशत  हो गया। यह पहले चुनाव थे जब दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत में जनसंघ कांग्रेस के समक्ष एक समर्थ वैकल्पिक विचारधारा वाले दल के रूप में उभरा।


दिल्ली में 15 फरवरी 1967 में हुए आम चुनावों में जनसंघ की ओर से जीतने वाले उम्मीदवारों में नई दिल्ली से मनोहर लाल सोंधी, दक्षिणी दिल्ली से बलराज मधोक, पूर्वी दिल्ली से एच. देवगण, चांदनी चैक से आर. गोपाल, दिल्ली सदर से के.एल. गुप्ता, करोलबाग (अनुसूचित जाति सुरक्षित क्षेत्र) से आर. एल. विद्यार्थी थे जबकि बाहरी दिल्ली से एम. सिंह को कांग्रेस के बी. प्रकाश ने हराया। जबकि बाकी सीटों पर दूसरे स्थान पर रहने वाले उम्मीदवारों में नई दिल्ली से कांग्रेस के एम. सी. खन्ना, दक्षिणी दिल्ली से कांग्रेस के. आर. सिंह, पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस के बी. मोहन, चांदनी चौक से कांग्रेस एस. नाथ, दिल्ली सदर से कांग्रेस ए. एन. चावला और करोलबाग से कांग्रेस एन. प्रभाकर थे। इस तरह, छहों सीटों पर हारने वाले उम्मीदवार कांग्रेस के थे।


जनसंघ के प्रत्याशियों में बलराज मधोक ने सबसे अधिक मत (105611) प्राप्त किए और उनके जीत का अंतर भी सर्वाधिक (36321) था। जनसंघ के दो प्रत्याशियों  को अपने-अपने क्षेत्र में पचास प्रतिशत से अधिक मत हासिल हुए, जिनमें मनोहर लाल सोंधी को नई दिल्ली में 55.39 प्रतिशत वोट और मधोक को 54.52 प्रतिशत मिले थे। इन लोकसभा चुनावों में जनसंघ को राजधानी में कुल 523860 (46.72 प्रतिशत) मत तो कांग्रेस को कुल 434937 (38.79 प्रतिशत) मत और कुल 24 निर्दलीय उम्मीदवार 96393 (8.6 प्रतिशत) मत मिले। 


इन चुनावों में आरपीआइ की के. मौर्य दिल्ली सदर लोकसभा क्षेत्र से एकमात्र महिला उम्मीदवार थी, जो कि अपनी जमानत बचाने में विफल रही। उन्हें मात्र 8.22 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। तब दिल्ली में लोकसभा के लिए कुल 16.8 लाख मतदाता थे। तब के लोकसभा चुनावों में पूरी दिल्ली में कुल 1918 पोलिंग स्टेशनों में मतदान हुआ, जिनमें कुल 69.49 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने वोट डाले। 1967 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात सीटों के लिए कुल 46 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे। जिनमें 16 राष्ट्रीय दलों के, 6 राज्य स्तरीय दलों के, 6 पंजीकृत (गैर मान्यता प्राप्त) दलों के प्रत्याशी थे। इनमें कुल 32 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुईं, जिनमें 2 राष्ट्रीय दलों के, 6 राज्य स्तरीय दलों के और 24 निर्दलीय उम्मीदवार थे। इस तरह, जनसंघ ने पहली बार दिल्ली में सात में से छह सीटें जीतकर राजधानी में अपने जीत का परचम फहराया जबकि कांग्रेस को दिल्ली में पहली बार एक ही सीट से संतोष करना पड़ा था।


Saturday, May 4, 2019

Short film on first general elections in delhi_Role of media in Loksabha polls_पहले लोकसभा चुनाव की झलक दिखलाती फिल्म_ मीडिया की ऐतिहासिक भूमिका





देश भर के साथ दिल्ली में 1952 में हुए आम चुनावों को लेकर एक फिल्म बनाई गई थी। आजाद हिंदुस्तान के पहले लोकसभा चुनावों के समय बनी इस श्वेत-श्याम फिल्म को देखने से राजधानी की चुनावी गतिविधियों के बारे में पता चलता है। जिसमें सरकारी अमले, मतदान की व्यवस्था में लगे अधिकारियों से लेकर कानून व्यवस्था की देखरेख कर रहे पुलिसकर्मियों तक, के कामकाज सहित मतदान केंद्रों में मतदान के पंक्तियों में खड़े नागरिकों के दृश्य हैं। करीब छह मिनट की यह फिल्म ब्रिटिश पाथे की वेबसाइट (www-britishpathe-com) पर सार्वजनिक रूप से देखी जा सकती है।


जवाहरलाल नेहरू दिल्ली की एक चुनावी सभा में ऊंचाई पर बने मंच पर सीढ़ी से चढ़कर वहां जुटे नागरिकों को भाषण देते हुए नजर आते हैं। तो उस सभा में सफेद कमीज-टोपी और काली पतलून पहने उनकी अवगानी करते कांग्रेस सेवादल के कार्यकर्त्ता भी दिखते हैं। सभा में नेहरू के भाषण को नागरिक आराम से जमीन पर बैठकर सुनते हुए दिखते हैं जबकि मंच चारों तरफ से कांग्रेसी झंडे के कपड़े में लिपटा हुआ दिखता है। ऐसे ही, कांग्रेस के चुनावी पोस्टर में बाई ओर नेहरू का चित्र तो दाई ओर कांग्रेस के दो बैलों की जोड़ी दिखती है। जिसमें "स्थायी असाम्प्रदायिक प्रगतिशील राष्ट्र" के लिए कांग्रेस को वोट देने की अपील भी नजर आती है। उल्लेखनीय है कि देश में लगे आपातकाल (1977) में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन करके “धर्मनिरपेक्षता“ शब्द जोड़ा था।

दिल्ली के पहले लोकसभा चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ता साइकिल, तांगा, इक्का और जीपों में अपना-अपना प्रचार करते थे। इस फिल्म में कनाट प्लेस के भीतरी सर्किल में कोट-पतलून, धोती-कुर्ता और शर्ट-पैंट पहने साइकिल सवार कार्यकर्त्ता अपने हाथों में झंडे-बैनर लिए नजर आते हैं। इतना ही नहीं, तब के भीड़भाड़ रहित कनाट प्लेस और उसकी दुकानें भी पृष्ठभूमि में दिखाई देती है।

सन् 1952 में चुनाव संचालित करने में आने वाली कठिनाइयों के बारे में अधिकांश लोग आज कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि पहले कभी चुनाव नहीं हुए थे, यहां तक कि निर्चाचन आयोग भी अनुभवहीन था। इस फिल्म में चुनावी प्रक्रिया में पूरी तत्परता लगे सरकारी अधिकारियों, पुरूष-महिलाएं दोनों ही, के समूह दिखते हैं। जो कि तब की निरक्षर और पहली बार मतदान कर रहे पगड़ीधारी राजस्थानी मजदूरों और घूघंट वाली महिला श्रमिकों को वोट डालने के बारे में समझाते नजर आते हैं। उन दिनों तो किसी ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का तो नाम भी नहीं सुना था, बल्कि पूरी मतदान प्रक्रिया ही बिलकुल अलग थी। मतपत्र पर न तो उम्मीदवारों के नाम होते थे, न चुनाव में भाग ले रही पार्टियों के चुनाव चिन्ह। मतपत्रों पर ठप्पा तक नहीं लगाया जाता था। इसकी बजाय पोलिंग बूथ पर हर उम्मीदवार के लिए एक अलग बक्सा होता था, जिस पर उसका नाम और राजनीतिक दल का चुनाव चिन्ह अंकित होता था। मतदाताओं को मतपत्र-कागज का एक टुकड़ा, जो आकार में एक रुपए के नोट (अब एक और दुर्लभ वस्तु!) से बड़ा नहीं था-को अपनी पसंद के उम्मीदवार के बक्से में डालना होता था।

इस फिल्म में एक ऐसी ही महिला मतदाता हाथ में पर्चा लिए मतदान केंद्र के भीतर वोट देती हुई दिखती है। यहां तक कि मतदान केंद्रों के बाहर वोट डालने वालों की लंबी-लंबी कतारों को देखकर पहले लोकसभा चुनावों में भाग लेने का नागरिकों का उत्साह देखते ही बनता है। ऐसे ही एक दृश्य में, मतदान केंद्र के बाहर वोट डालने की अपनी बारी का इंतजार करती हुई महिलाएं अपने बच्चों के साथ डेरा डाले दिखती हैं। इस तरह, आम चुनावों में पढ़े-लिखे तबके से लेकर गरीब-अनपढ़ महिलाओं की सक्रिय भागीदारी की बात साफ नजर आती है। यह बात उल्लेखनीय है कि राजधानी में महिलाएं केवल वोट देने में नहीं आगे नहीं थी बल्कि एक सशक्त उम्मीदवार के रूप में सुचेता कृपलानी नई दिल्ली से लोकसभा से 47 फीसदी मत प्राप्त करके चुनाव जीतने वाली पहली महिला सांसद भी बनी। इसी तरह, लोकसभा चुनावी सुरक्षा प्रबंधन में लगे पुलिस के हाथ में डंडा लिए पगड़ीधारी जवान, गश्त लगाते घुड़सवार पुलिसकर्मियों से उस समय कानून व्यवस्था बनाए रखने के विभिन्न प्रयासों का पता चलता है।

इस फिल्म में एक विशेष बात देखने को मिली और वह थी, दिल्ली के राजपथ पर बंद जीप और साइकिल पर सवार कार्यकत्ताओं के जत्थों का दल विशेष के लिए प्रचार। उसमें भी हैरतअंगेज बात यह थी कि वे सब इंडिया गेट के बीच में से होकर निकल रहे थे। इतना ही नहीं, तब इंडिया गेट पर बनी "छतरी में अंग्रेज राजा की लगी प्रतिमा" भी साफ नजर आती है। आज की पीढ़ी के लिए यह दोनों बातें किसी अचरज से कम नहीं है। उल्लेखनीय है कि इंडिया गेट पर बनी छतरी में लगे अंग्रेज राजा की मूर्ति को समाजवादी दल के नेता राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में हुए व्यापक जनविरोध के परिणामस्वरूप् वर्ष 1958 में हटाया गया था। जबकि पाकिस्तान के साथ हुए बांग्लादेश युद्ध के उपरांत “अमर जवान ज्योति“ का निर्माण दिसंबर, 1971 में हुआ था। अमर जवान के प्रतीक स्वरूप यहां नियमित रूप से एक ज्योति जलती रहती है। इसलिए अब तो इस सड़क और इंडिया गेट के बीच से होकर निकलना प्रतिबंधित है।

तब की दिल्ली में एक चुनावी बैनर को खुली मोटर गाड़ी में ले जाते हुए के दृश्य से चुनावी प्रचार की गतिविधियों का पता चलता है। उस बैनर में अंग्रेजी में लिखा था, "विल आफ द पीपुल शैल बी द लॉ आफ द स्टेट"। जबकि चुनावी रैली में कांग्रेस पार्टी के पोस्टर में हिंदी और उर्दू भाषा का इस्तेमाल था। नई दिल्ली से होकर गुजरने वाले चुनावी प्रचार के जुलूस में लोगों को लेकर चलने वाले खुले तांगे, बंद तांगे, इक्के के साथ उस दौर की "दिल्ली ट्रांसपोर्ट सर्विस" की ट्रकनुमा बंद बसें भी नजर आती है, जिससे तब की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का पता चलता है।

गौरतलब है कि दिल्ली में पहले लोकसभा चुनाव के तीन निर्वाचन क्षेत्रों-नई दिल्ली, बाहरी दिल्ली और दिल्ली शहर-से चार उम्मीदवार चुने गए थे। इन सभी क्षेत्रों में आठ निर्दलीयों सहित कुल 19 उम्मीदवार खड़े हुए थे, जिसमें कांग्रेस के तीन और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का एक उम्मीदवार जीता था। जबकि इस चुनाव में 10 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।


पहले आम चुनावों में मीडिया की ऐतिहासिक भूमिका

देश में व्यापक निरक्षरता के बावजूद प्रेस ने पहले आम चुनावों में मतदाताओं को शिक्षित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इतना ही नहीं, उसने जनमानस में चुनावों को लेकर रूचि जागृत करने की दिशा में सतत कार्य किया। निर्वाचन आयोग की भारत में पहले आम चुनावों की रिपोर्ट (1951-52) के अनुसार, साक्षरता के बढ़ने के साथ शक्तिशाली "चौथे स्तंभ" की जनता में चुनावी विषयों को लेकर रूचि पैदा करने और उसे लगातार बनाए रखने को लेकर भूमिका में निश्चित रूप से बढ़ोतरी होगी। इसके साथ ही प्रेस मतदाताओं को चुनाव से संबंधित मुद्दों के साथ बुद्धिमत्ता और विवेकपूर्ण रूप से अपने मताधिकार के प्रयोग करने में सहायक होगी। इस रिपोर्ट में माना गया कि चुनाव आयोग को हमेशा प्रेस से सहयोग और सहायता मिली है और समूचे चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग के प्रेस के सभी वर्गों से अत्यंत सौहार्दपूर्ण संबंध रहे हैं।
देश के नागरिकों को चुनाव के बारे में जागरूक करने के बारे में रिपोर्ट बताती है कि बड़ी संख्या में अनुभवहीन मतदाताओं को शिक्षित करने की आवश्यकता की इतनी अधिक थी कि केंद्र और राज्य सरकारों ने भी इस उद्देश्य के लिए कदम उठाएं। निर्वाचन आयोग ने इस बात की पूरी सावधानी बरती कि सरकारी प्रचार किसी दल के प्रति झुकाव से पूरी तरह मुक्त हो। मतदाताओं को चुनाव संबंधी विषयों के बारे में शिक्षित करने के एकमेव उद्देश्य से वृतचित्रों की एक श्रृंखला समूचे देश में प्रदर्शित की गई।
50 के दशक में भारत में मीडिया की नागरिकों तक पहुंच को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट बताती है कि हमारी प्रसारण सुविधाओं को देश के पिछड़े क्षेत्रों में पहुंचने में अभी काफी प्रयास करने हैं। तिस पर भी उस समय में चुनाव के विषय में प्रचार के मामले में रेडियो की भूमिका उल्लेखनीय रही थी। रिपोर्ट इस बात को स्वीकार करते हुए कहती है कि ऐसे में रेडियो चुनाव संबंधी प्रचार और व्यापक स्तर पर शिक्षण के मामले में काफी प्रभावी सिद्ध हुआ है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने समय-समय पर अनेक विषयों जैसे आम चुनाव-लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग, परिसीमन प्रस्तावों, चुनाव के आयोजन, सरकारी कर्मचारी और लोकतंत्र, नागरिक मतदाता, महिला मतदाता को शिक्षित करने की आवष्यकता, प्रेस, रेडियो और फिल्मों फिल्मों इत्यादि की भूमिका के बारे में रेडियो पर वार्ताओं की एक श्रृंखला में भाग लिया। अनेक मुख्य चुनाव आयुक्तों ने संबंधित राज्यों में ऐसी समान चर्चाओं के प्रसारण में शामिल हुए। आकाशवाणी ने ग्रामीणों की आवश्यकताओं और रूचि के अनुरूप रोचक गैर दलीय वार्ताओं या बातचीत का प्रसारण किया।

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