Saturday, May 18, 2019

Khan Market in English Literature_खान मार्किट की कहानी, किताबों की जुबानी

Dainik Jagran, 18.05.2019



देश के ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे महंगे बाजारों में गिने जाने वाले नई दिल्ली के खान मार्किट के शायद ही कोई व्यक्ति अजनान हो। पर जितना मशहूर उसका नाम है उतना ही कम जानी है उसकी बसने की कहानी। इस बाजार के बारे में अनेक प्रसिद्व व्यक्तियों ने अपनी-अपनी कलम चलाई हैं और अपनी जुबानी उसकी कहानी बयान की है। 

"परपेचुअल सिटी" पुस्तक में मालविका सिंह लिखती है कि जहां लुटियन दिल्ली खत्म होती थी, वहीं साउथ एंड लेन थी, उसके बगल में लेडी विलिंगडन गार्डन, जो अब लोधी गार्डन है, था। सुजान सिंह पार्क सहित खान अब्दुल गफ्फार खान मार्किट, आज खान मार्किट, को शहर के दूसरे छोर पर बसा हुआ माना जाता था।  जबकि इतिहासकार स्वप्ना लिडल अपनी पुस्तक "कनॉट प्लेस" में खान मार्किट के बसने पर रोशनी डालते हुए लिखती है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लोदी एस्टेट में बनी बैरकों में सामान की आपूर्ति के लिए जहां रसद स्टोर बनाए गए थे, वहीं खान मार्किट में एक खरीद का एक नया केंद्र बनाया गया था। इतना ही नहीं, आवास उपलब्ध करवाने के लिए नई दिल्ली के पूर्वी हिस्से में निर्जन पड़ी जमीन के हिस्सों में आबादी को बसाया गया। आवासीय काॅलोनियों को बनाया गया, जिसके तहत काका नगर, बापा नगर, पंडारा पाॅर्क में सरकारी अधिकारियों के लिए और सुंदर नगर तथा गोल्ड लिंक में निजी स्वामित्व वालों के लिए घर बनें। 

उल्लेखनीय है कि राजधानी के समन्वित विकास के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण के "दिल्ली के मास्टर प्लाॅन 1962" के अनुसार, जिला केंद्रों (डिस्ट्रिक सेंटरों) के अलावा 13 उप-जिला केंद्र (सब-डिस्ट्रिक सेंटर) की योजना है। इनमें से कुछ पहले से मौजूद है जैसे गोल मार्किट, खान मार्किट इत्यादि। इन अधिकांश बाजारों का स्वरूप खुदरा है जो कि लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते हैं। इस दस्तावेज के अनुसार, 13 उप-जिला केंद्रों के लिए कुल 180 एकड़ जमीन की गयी थी जबकि खान मार्किट के विकास के लिए 10 एकड़ जमीन चिन्हित की गई थी। 
दिल्ली पर अनेक किताबें लिखने वाले खुशवंत सिंह ने बिग "बुक ऑफ़ मैलिस" पुस्तक में खान मार्किट सहित वहां पर बनी किताबों की दुकानों के बारे में विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार, मैं दिल्ली में कई किताबों की दुकानों में जाता था। लेकिन उम्र के साथ मेरी सक्रियता कम हो गई है और मैं अब अपने घर से कुछ कदमों की दूरी पर खान मार्किट तक ही जाता हूं। इस छोटे से बाजार में छह किताबों की दुकानें हैं, जिनमें से सबसे बड़ी और बाजार के ठीक-बीच में बनी दुकान है बाहरी एंड संस। यहां पाठकों के लिए किताबें देखने के लिए सबसे अधिक प्रदर्शन खिड़कियां हैं, यह सुविधा दूसरी दुकानों में उपलब्ध नहीं है। इस दुकान की सबसे खास बात इसके मालिक बलराज बाहरी है, जिन्होंने इसे एक सफल व्यापारिक प्रतिष्ठान बनाया है। बाहरी, एक शरणार्थी के रूप में मलकवाल (पाकिस्तान) से आए थे। वे एक सीमित साधनों और शिक्षा प्राप्त आदमी थे। उन्हें किताबें खरीदने या बेचने का दूर-दूर तक कोई ज्ञान नहीं था। पर उन्होंने पूरी लगन से काम करते हुए इस काम में महारत हासिल करते हुए अपने ग्राहकों से घनिष्ठ संबंध बनाए। इस साल (1997) फैडरेशन ऑफ़ इंडियन पब्लिशर्स ने उन्हें प्रतिष्ठित बुकसेलर पुरस्कार से सम्मानित किया। वे इस सम्मान के लिए पूरी तरह योग्य है।  

वही दूसरी तरफ, "बाहरी संस, ए क्रानिकल ऑफ़ बुक शॉप" नामक पुस्तक में बलराज बाहरी ने हिंदुस्तान के विभाजन के बाद एक शरणार्थी के रूप में दिल्ली में एक राजनीतिक की सहायता से खान मार्किट में अपनी खुद की दुकान हासिल करने की कहानी बयान की है। तब यह मार्किट, रिफ्यूजी मार्किट कहलाती थी। तीन दुकानों को एक करके बनी आज की बाहरी संस की दुकान, तब के बने चार ब्लाॅक का भाग थी। यह मार्किट की सबसे छोटा परिसर था, जिसे बलराज ने पैसों को ध्यान में रखते हुए चुना था। गौरतलब है कि उन्हें खान मार्किट में इस दुकान के लिए पट्टे सहित जमानत के दो सौ रूपए का इंतजाम करने के लिए अपनी मां की सोने की चूडियां बेचनी पड़ी। उन्हें उस समय इस बात का आभास नहीं था कि शरणार्थियों के लाभ के लिए बनी खान मार्किट की यह योजना इस कदर सफल होगी।


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