पियरे फ्रांस्वा कुइलियर-पेरोन
फ्रांस में एक कपड़ा व्यापारी के रूप में जन्मा पियरे कुइलियर अपने उपनाम जनरल पेरोन के नाम से अधिक प्रसिद्व था। उसे अंग्रेज ग्वालियर के मराठा राज्य और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के साथ प्रगाढ़ संबंधों के कारण अपने साम्राज्य विस्तार के लिए खतरा मानते थे। भारत में वर्ष 1780 में पहुंचे पेरोन ने सबसे पहले गोहद के राणा के यहां नौकरी की। उसने वर्ष 1795 में कर्दला की लड़ाई में हैदराबाद राज्य के खिलाफ मराठा विजय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका परिणाम यह हुआ कि महादजी सिंधिया के उत्तराधिकारी दौलत राव शिंदे ने पेरोन को अपनी 24,000 पैदल सेना, 3,000 घुड़सवार सेना और 120 तोपों की लगाम देते हुए अपना सेनापति बना दिया। यह एक दुर्जेय तालमेल था जबकि पेरोन की विस्तारवादी नीति से अंग्रेज चिंता में आ गए। पेरोन ने धीरे-धीरे शिंदे की सेना में अंग्रेज अधिकारियों को हटाकर उनके स्थान पर फ्रांसिसी अधिकारियों को नियुक्त किया। यहां तक कि उसने यमुना नदी के दक्षिण में एक बड़ी समृद्ध जागीर पर शासन करते हुए विभिन्न पक्षों से संधियां कीं।
एक ऐसी ही संधि जनरल पेरोन ने दिल्ली में सिंधिया के रेसिडेंट के रूप में पटियाला के महाराजा साहिब सिंह से संधि की थी। जिसमें दोनों पक्षों ने आवश्यकता के समय में आपसी सहायता की सहमति पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के कौलनामे की प्रति भी यहां प्रदर्शित है। अंत में शिंदे को धोखा देने के बाद पेरोन की सेनाओं को अंग्रेजों ने पटपड़गंज की लड़ाई (1803) में पराजित किया। फिर अंग्रेजों ने उसे वर्ष 1806 में फ्रांस लौटने से पहले दो साल बंगाल में नजरबंद रखा।
शाह आलम द्वितीय
अली गौहर के रूप में जन्मा शाह आलम द्वितीय का पालन नजरबंदी में ही हुआ था। वर्ष 1759 में अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और फ्रांसीसी सैनिकों की मदद से वह बच निकला। पानीपत की तीसरी लड़ाई (वर्ष 1761) में अफगानों के विजयी गठबंधन का हिस्सा होने के कारण उसे ईनाम के रूप में सोलहवें मुगल सम्राट के रूप में ताज मिला। फिर उसे इलाहाबाद में 12 साल नजरबंदी के रूप में बिताने पड़े। अपनी राजधानी दिल्ली में आने में नाकाबिल निर्वासित मुगल सम्राट को वर्ष 1772 में मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने इलाहाबाद से दिल्ली लाकर दोबारा तख्त पर बिठाया। इस दौरान उसने अपनी सेना को मजबूत करते हुए रोहिल्लों, जाट और सिखों के खिलाफ कई सैनिक सफलताएं हासिल की। वर्ष 1788 में रोहिल्ला नेता गुलाम कादिर ने उसे अंधा करके अपदस्थ कर दिया। फिर दोबारा महादजी ने कादिर को मारकर अंधे शाह आलम को तख्तनषीं किया। शाहआलम ने अपनी सल्तनत को बचाने के लिए अंग्रेजों से मराठों के खिलाफ मदद मांगी। बस यही से असली हुकूमत उसके हाथ से सदा के लिए निकल गई। वर्ष 1803 में हुई पटपड़गंज की लड़ाई के साथ ही दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। फिर तो मुगल सत्ता के लिए कहा जाने लगा, सल्तनत-ए-शाह आलम, दिल्ली से पालम (यानी शाह आलम का राज केवल दिल्ली से पालम तक ही है)।
बेगम समरू
बेगम समरू की पैदाइश को लेकर कयास ही अधिक है। दुश्मनों के लिए वह लड़ाई के मैदान में पांच फुट की एक आफत थी, जिसे अक्सर चुड़ैल समझा जाता था। ऐसा माना जाता है कि वह एक कश्मीरी अनाथ फ़रज़ाना ख़ानक़ी थी। दिल्ली में 14 साल की वह भोली लड़की, तीस साल के वाल्टर रेनहार्ड्ट उर्फ सोम्ब्रे की नजर में चढ़ गई। जिसका नतीजा यह हुआ कि बेगम समरू भरतपुर के राजा के कंमाडर और एक कैथोलिक ईसाई सोम्ब्रे की दूसरी पत्नी बन गई। बेगम समरू केवल देखने भर की चीज नहीं थी, वह स्थानीय रियासतों की राजनीति और आपसी साज़िशों से भली भांति परिचित थी। यही कारण है कि सोम्ब्रे की मौत के बाद समरू ने उसके बेटे को जागीर से बेदखल कर दिया। सोम्ब्रे की जागीर और सेना दोनों पर अधिकार करने के बाद कैथोलिक बनी समरू ने चतुराई से षाह आलम का भी समर्थन हासिल किया। मुगलिया सल्तनत के विद्रोहियों के दिल्ली की घेराबंदी के दौरान से लड़ने में मदद करने के एवज में षाह आलम ने उसे जेब-उन-निसा (स्त्री रत्न) का खिताब दिया। वर्ष 1793 में, बेगम समरू के गुप्त रूप से फ्रांसीसी कप्तान पियरे एंटोइन ले वासल्ट से शादी करने की खबर मिलने पर उसके सैनिकों ने विद्रोह करके उसे बंदी बना लिया। वह आयरिश कमांडर जॉर्ज थॉमस की मदद से रिहा तो हो जाती है पर वासाल्ट आत्महत्या करता है! वर्ष 1803 में दिल्ली पर कब्जा होने के बाद अंग्रेजों ने बेगम समरू को अपनी जागीर रखने की अनुमति दी। इसी का नतीजा था कि उसने कई वर्षों तक दिल्ली में अपना शानदार दरबार लगाया, जिसमें सभी राष्ट्रीयताओं के दरबारी-सैनिक होते थे।
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