कभी किसी मोड़ पर
दुबकी मिली
हरी घास की ओट में
कभी भीड़ भरे चौराहे पर
खड़ी दिखी
इंतज़ार भरे चेहरों में
कभी किसी नदी के घाट पर
बैठी दिखी
हिचकोले लेती लहरों में
कभी चाय के दुकान पर
बर्तन धोते
बचपन के हाथों में
कभी सड़क-किनारे पर
इंतज़ार करती
देहजीविकाओं की बेबसी में
कभी श्मशान के भीतर
पसरी मिली
निर्जीव मानव देह में
कितने रूप,
कितने ठिकाने
कहाँ-कहाँ
नहीं मिली,
जिंदगी
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