मुसलमानों के शासनकाल में जिन वीरों ने अपने सर्वस्व का बलिदान करके अपनी जाति, धर्म, देश और स्वतंत्रता की रक्षा की, उनमें अधिक संख्या राजपूत वीरों की ही देख पड़ती है, जैसे मुसलमानों की दुर्दम शक्ति का प्रतिरोध करने कि लिए उन वीर राजपूतों की शक्ति-रेखा विधाता ने खींची हो। दैव के काल्पनिक क्रम के भीतर जितनी मात्रा में बहिजंगत को सत्य का प्रकाश मिलता है, उतनी ही मात्रा में आध्यात्मिक गौरव की उज्ज्वलता भी प्रस्फुटित होकर हमारी मानस-दृष्टि को आश्चर्यचकित और स्तब्ध कर देती है।
स्वतंत्रता की सिंहवाहिनी के इंगित मात्र से देश के बचे हुए राजपूत-कुल-तिलक-वीरों की आत्माहुति, जलती हुई चिताग्नि में अगणित राजपूत कुल-ललनाओं द्वारा उज्ज्वल सतीत्व रत्न की रक्षा तथा लगातार कई शताब्दियों तक ऐसे ही रक्तोष्ण शौर्य के प्रात्यहिक उदाहरण, इन सजीवमूर्ति सत्य घटनाओं के अनुशीलन से वर्तमान काल की शिरश्चरणविहान, जल्पना मूर्तियाँ भारत के अशान्त आकाश में तत्काल विलीन हो जाती हैं और उस जगह वह चिरन्तन सत्यमूर्ति ही आकर प्रतिष्ठित होती है। तब हमें मालूम हो जाता है कि जातीय जीवन में साँस किस जगह चल रही है। वास्तव में उन वीरों के अमर आदर्श की जड़ भारतीय आत्माओं के इतने गहन प्रदेश तक पहुँची हुई है कि वहाँ उस जातीय वृक्ष को उन्मूलित कर, इच्छानुसार किसी दूसरे पौधे की जड़ जमाना बिल्कुल असंभव, अदूरदर्शिता की ही परिचायक कहलाती है।
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