चित्र: देवेंद्र सत्यार्थी दिल्ली में आयोजित पंजाबी कवि दरबार में कविता पढ़ते हुए (1957) |
लोक साहित्य मानव जाति की वह धरोहर है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती हुई निरंतर परिवर्द्ममान्ध होती हुई अक्षुण्ण बनी रहती है। लोक-साहित्य का रूपाकार अवश्य किसी देश या जाति की भौगोलिक सीमा में आबद्व रहता है। पर उसकी आत्मा सार्वभौम और शाश्वत है, उसकी स्थिति व परिस्थिति, आशा-निराशा, कुंठा और विवशताएं एक सी है।
लोक साहित्य की छाप जिसके मन पर एक बार लग गई फिर कभी मिटाए नहीं मिटती। सच तो यह है कि लोक-मानस की सौंदयप्रियता कहीं स्मृति की करूणा बन गई है। तो कहीं आशा की उमंग या फिर कहीं स्नेह की पवित्र ज्वाला। भाषा कितनी भी अलग हो मानव की आवाज तो वही है।
-देवेंद्र सत्यार्थी (मोहनलाल बाबुलकर-गढ़वाली लोक साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन की भूमिका में)
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