Friday, September 9, 2016

ऐतिहासिक दिल्ली की गवाह है, राजधानी की रिज_Delhi Ridge_age old witness of historic delhi

हाल में ही केन्द्रीय सूचना आयोग के दिल्ली के रिज क्षेत्र के सीमांकन में देरी के कारण अंधाधुंध अतिक्रमण और अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई पर रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया। इतना ही नहीं, आयोग ने रिज क्षेत्र की सीमा चिन्हित करने में देरी से अतिक्रमण और मानचित्र सहित जानकारी मांगी है। इस तरह, एक बार फिर दिल्ली की रिज चर्चा में है। दुनिया की सबसे ऐतिहासिक राजधानियों में से एक दिल्ली का उल्लेख हिंदुओं के प्राचीन महाकाव्य महाभारत में मिलता है। 

इस शहर की दो प्राकृतिक विशेषताओं-रिज और यमुना नदी ने इसे सदियों से शासकों के लिए एक सुरक्षित और मनपसंद जगह बनाया। यही कारण है कि दिल्ली की हरियाली के फेफड़े की रक्षा की लड़ाई बहुत पहले ही शुरू हो गई थी। दिल्ली में पहाड़ी का भाग, दिल्ली रिज तो कभी रिज के नाम से पुकारा जाता है जो कि कभी शहर की लगभग 15 प्रतिशत भूमि पर फैला हुआ था।

यह रिज एक भूवैज्ञानिक कारक है जिसकी विशेषता यह है कि वह कुछ दूरी तक लगातार चोटी की तरह उठान पर है। दिल्ली रिज भारत की सबसे पुराने पहाड़ अरावली पर्वत श्रृंखला का उत्तरी विस्तार है जो कि गुजरात से लेकर राजस्थान और हरियाणा से दिल्ली तक विस्तार लिए हुई है। दिल्ली रिज कुल 35 किलोमीटर की दूरी तक फैली हुई है जो कि भाटी माइंस से दक्षिण पूर्व में 700 साल पुराने तुगलकाबाद तक अलग-अलग दिशाओं में शाखाओं में विभाजित है और अंत में यमुना नदी के पश्चिमी तट पर वजीराबाद के पास उत्तरी छोर तक इसका फैलाव है।


दिल्ली के इतिहास में रिज ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यहां तक कि इसका अपना प्राग इतिहास भी है। दिल्ली रिज क्वार्टजाइट चट्टानों से बनी है, जिससे पाषाण युग वाले मानव अपने औजार बनाते थे। दरअसल, पुरातत्वविदों ने दिल्ली रिज में पाषाण युग के कारखानों की खोज की है जो कि व्यापक स्तर पर औजारों के उत्पादन का साक्ष्य है। पाषाण कालीन मानव की रिज के घने वन आच्छादित क्षेत्र में भी रहगुजर थी जो कि उन्हें भोजन (कंदमूल और पशु) तथा आश्रय प्रदान करती थी। इतना ही नहीं, वहाँ पर्याप्त जल भी था और यह तथ्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

रिज अपनी स्थलाकृतिक विशेषता के कारण हजारों साल से मानव को इस क्षेत्र में बसने के लिए आकर्षित करती रही है। यही कारण है कि आठवीं सदी के लालकोट के किले, 12 वीं सदी की कुतुब मीनार, 17 वीं सदी का परकोटे वाला शहर शाहजहांनाबाद से 20 वीं सदी की लुटियन की नई दिल्ली तक राजधानी की ऐतिहासिक वास्तुकला रिज के भीतर और उसके आसपास पाई जाती है।

दिल्ली सात शहरों के उत्थान-पतन की गवाह रही है। इनमें मुख्य किला राय पिथौरा, लाल कोट, महरौली, सिरी, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद और मुगल शहर शाहजहांनाबाद, जो कि अब पुरानी दिल्ली के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजो ने शाहजहांनाबाद पर ही कब्जा किया था। मध्य काल में इन शहरों में से पहले चार पारिस्थितिक कारणों और पहाड़ियों की वजह से मिली सैन्य सुरक्षा के कारण सीधे तौर पर रिज में ही बने थे।

14 वीं सदी में, दिल्ली रिज का जंगल कांटेदार झाड़ियों से ढका था, जहां प्राकृतिक हरीतिमा कम थी। शिकार के बेहद शौकीन बादशाह फिरोज तुगलक ने रिज के चट्टानी दक्षिणी भाग को साफ करवाया जिस पर गयासुद्दीन तुगलक ने किलेदार शहर तुगलकाबाद किले का निर्माण करवाया। उत्तर मुगल कालीन दौर में शहर के यमुना नदी के तट की ओर ले बनने के कारण रिज पर बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई। फिर भी इसने एक भूमिगत जल स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और स्थानीय चरवाहे के लिए गोचर भूमि के रूप में कार्य किया।


दिल्ली के हालिया इतिहास में रिज की भूमिका संवेदनशील रही है। अंग्रेज शासन काल के दौरान रिज विभिन्न कारणों से असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बन गई। पहली महत्वपूर्ण घटना वर्ष 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था, जिसमें अंग्रेजों के विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह देखा गया। वैसे तो समूचा उत्तर भारत अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में आगे था पर सर्वाधिक सरगर्मी दिल्ली में थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि भारतीय विद्रोही सैनिक मुगल बादशाह, जो कि अंग्रेजों की कड़ी नजर में था, को केंद्रबिंदु मानकर चारों ओर से लामबंद हुए थे। अंग्रेज सैनिकों ने रिज की ऊंचाई का लाभ हासिल करने के हिसाब से उसके उत्तरी हिस्से में अपना मोर्चा कायम किया था। बाद में भारतीय आजादी के रणबांकुरों की शहादत के कारण रिज को एक पवित्र स्मारक का दर्जा मिला।

भारत में अंग्रेजी राज के वर्ष 1883-84 में प्रकाशित दिल्ली के गजेटियर में दिल्ली में बड़े स्तर पर जैव विविधता के होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज है। अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1913 में अधिसूचनाओं के माध्यम से एक मजबूत वैधानिक तंत्र बनाया था। भारतीय वन अधिनियम, 1878 के प्रावधानों के तहत दिल्ली के आठ गांवों की 796.25 हेक्टेअर भूमि को एक आरक्षित वन के रूप में अधिसूचित किया गया था। इसके बाद भी, दिल्ली में रिज को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से कुछ और अधिसूचनाएं जारी की गईं।

19 वीं सदी में अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर रिज के जंगल का वनीकरण शुरू किया था। वर्ष 1807 का एक अंग्रेजकालीन नक्शा वर्तमान समय में रिज के बिखरे हुए जंगलों के विपरीत रिज के उत्तर से दक्षिण दिशा तक के निर्बाध विस्तार को प्रदर्शित करता है। वर्ष 1900 के आरंभ में, अंग्रेजों ने कुछ मुगल बाग़ों को सहेजने का काम शुरू किया। और जब उनकी शाही राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से दिल्ली स्थानांतरित हुई तब अंग्रेजों ने नए शहर के विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए प्रभावशाली इमारतें, चौड़ी और सुचारू सड़कों आदि बनवाईं जो कि आज भी ध्यान आकर्षित करती है।

अंग्रेजों ने नए शहर की एक उपयुक्त राजसी पृष्ठभूमि के रूप में रिज की कल्पना की। इस तरह, एक बार फिर से रिज पर ध्यान केंद्रित हो गया और वनीकरण का काम पूरे जोरों से शुरू हुआ। इसके पीछे मूल विचार नई शाही राजधानी को पत्ते के समुंदर के रूप में तैयार करने का था। इसी कारण विभिन्न विदेशी प्रजातियों के पौधों को रोपा गया जिसमें प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, मैक्सिको देश का पेड़, भी था जिसे अब भारत में विलायती कीकर के नाम से जाना जाता है। इसी विलायती कीकर की वजह से आज रिज में व्यापक रूप से एक ही प्रकार की वनस्पति की अधिकता हुई। इससे दिल्ली के हरित क्षेत्र में वृद्धि हुई पर यह पूरी तरह से एक सकारात्मक विकास नहीं था।

अंग्रेजों के दिल्ली रिज में किए गए वनीकरण से अंग्रेजी औपनिवेशिक वानिकी की प्रकृति और विशिष्टता का पता चलता है। रिज के पास के गांवों में रहने वाले हिंदुस्तानियों को विस्थापित कर दिया गया और ईंधन और चारे के लिए रिज पर निर्भर रहने वाले स्थानीय लोगों को बाड़ और सुरक्षाकर्मियों के सहारे उनके स्वाभाविक अधिकार से वंचित कर दिया गया। वर्ष 1913 में, अंग्रेज सरकार ने सेंट्रल रिज की प्राकृतिक संपदा को संरक्षित करने के लिए भारतीय वन कानून, 1878 के सातवें अधिनियम की धारा 4 को लागू करने का निर्णय लिया। दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने आठ गांवों-दसघरा, खानपुर, शादीपुर, बंद शिकार खातून, अलीपुर पिलांजी, मालचा और नारहौला की 796॰25 हेक्टेअर भूमि को आरक्षित वन घोषित कर दिया। इस संबंध में, 6 दिसंबर 1913 को अधिसूचना निकालने के साथ वन बंदोबस्त अधिकारी के रूप में एक आईसीएस अधिकारी और अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट दिल्ली विन्सेंट कोनोली की नियुक्ति की गई। इस तरह, रिज पर अंग्रेजों के नियंत्रण को और अधिक कड़ा कर दिया गया।

वर्ष 1915 में एक बार फिर दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने सात सितंबर 1915 को भारतीय वन अधिनियम, 1878 की सातवें अधिनियम की धारा 19 के तहत एक अधिसूचना जारी करते हुए पट्टी चंद्रावल गांव की भूमि के एक भाग को आरक्षित वन घोषित कर दिया। इन वनों का मालिकाना हक सीपीडब्ल्यूडी की अधिसूचित को दे दिया गया और समिति के सचिव को वन अधिकारी बना दिया गया।

लेकिन तेजी से शहरीकरण के कारण जमीन पर दबाव बढ़ा और 1920-30 के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के पास रिज के एक बड़े हिस्से को बारूद से विस्फोट करके उड़ाया गया। यह काम आवासीय कालोनियों और व्यावसायिक परिसर सहित करोल बाग की नई कॉलोनी के लिए आने जाने का रास्ता बनाने की गरज से किया गया था। 16 सितंबर 1942 को दोबारा मुख्य आयुक्त की अधिसूचना को निरस्त करते हुए पट्टी चंद्रावल महल गांव की जमीन के एक हिस्से को बतौर आरक्षित वन घोषित किया गया। इस तरह, यह साफ पता चलता है कि अंग्रेजों ने शाही वानिकी का एक ऐसा मॉडल लागू किया, जिसकी छाया अभी भी आधुनिक पर्यावरण नीति में नजर आती है।

आजादी के बाद के वर्षों में, बढ़ती जनसंख्या के दबाव, संसाधन की अत्यधिक निकासी, प्राकृतिक दृश्यों वाले सार्वजनिक पार्कों के निर्माण, सार्वजनिक आवास, आधुनिक निर्माण के कचरे के निपटान आदि के कारण रिज को एक गंभीर खतरा पैदा होने के साथ उसकी क्षेत्रफल में कमी आई है। किसी समय अखंड इकाई वाली यह रिज अब पांच क्षेत्रों-उत्तरी रिज, मध्य रिज, दक्षिण मध्य रिज, दक्षिणी रिज और नानकपुरा दक्षिण मध्य में विभाजित है। इन सभी पांच क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 7784 हेक्टेयर है जो कि पूरे शहर में अलग-अलग खंडों में फैला हुआ है।




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