एक आधुनिक लेखक होने के नाते मैं अपने को अपने देश की अनेक ऐसी ही विलुप्त, उपेक्षित, विस्मृत पंरपराओं के बीच पाता हूँ । वे आंखों से तिरोहित भले ही हों, अनुपस्थित नहीं हैं। जिस तरह के अवचेतन का छिपा संसार बराबर मेरी चेतना में सेंध लगाकर मेरे सृजन संसार में घुसपैठ करता रहता है, उसी तरह प्रकृति, परंपरा, ईश्वर, अनीश्वर की छायाएं मेरी आधुनिक चेतना पर अपनी छायाएं डालती रहती हैं। मेरी रचना-भूमि पर मृत और जीवित एक साथ रहते हैं, यहां मेरे पुरखे मेरे समकालीन हैं, मेरे अनुभव के साक्षी हैं। इसे मैं अपने सृजन का अदृश्य परिवेश कहना चाहूँगा और यह अदृश्य कम से कम रचना के क्षेत्र में, उससे कहीं विराट्, व्यापक और विस्फोटक है, जिसे हम ऐतिहासिक या सामाजिक परिवेश कहते हैं।
हर कविता और कहानी इस अदृश्य के छिपे, गोपनीय संकेतों को अपनी भाषा में मूर्तिमान करने का प्रयास है। यदि संयोग और सौभाग्य से वह ऐसा करने में सफल हो जाती है तो उसका अमूर्त यथार्थ हमारी जानी-पहचानी दुनिया के यथार्थवादी यथार्थ से कहीं अधिक उज्जवल, कहीं अधिक अर्थपूर्ण, कहीं अधिक विस्मयकारी दिखाई देता है।
निर्मल वर्मा, दूसरे शब्दों मेंः विचार चिंतन
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