यह भी एक दैविक संयोग जान पड़ता है कि अचानक जीवन के किसी मोड़ पर कोई ऐसी पुस्तक हाथ लग जाती है जिसे हमने जान-बूझकर नहीं चुना किन्तु जिसे जैसे स्वयं मालूम हो, कि हमारी आत्मा किस तृष्णा की आग में उसके लिए झुलस रही है, और वह खुद चलकर हमारे हाथ में चली आती है और हमें लगता है, कि हम अभी तक इसी की प्रतीक्षा तो कर रहे थे।
अज्ञेय के ‘शेखर’ को पढ़ना कुछ ऐसा ही अनुभव था; अपनी हिन्दी में भी ऐसी पुस्तक लिखी जा सकती है, यह एक चमत्कार-सा जान पड़ा था। महीनों तक उसकी भाषा और शैली का नशा मेरे मन पर छाया रहा्।
अच्छी कहानियां प्रेमचन्द, सुदर्शन, जैनेन्द्र की पहले भी पढ़ी थी किन्तु ‘शेखर’ का प्रभाव उसके ‘कहानीपन’ में नहीं, उस भभकती इन्टेंसिटी में था, जो शब्दों की आंच से हमारे भाव-जगत को धीरे-धीरे उबालने लगती है। ‘मानसबल का वक्ष, रात’ यह एक वाक्य आज भी तीर की तरह बिंधा है। पहली बार हिन्दी कथा साहित्य में प्रकृति सिर्फ पृष्ठभूमि नहीं, स्वयं पात्रों की ‘प्रकृति’ में साझा करती जान पड़ती है।
-निर्मल वर्मा
Wednesday, November 9, 2016
Shekhar Ek Jivani_Agyey_Nirmal Verma_Hindi Novel_Literature
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